खींचो न कमानों को न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो, अकबर ‘इलाहबादी’ की ये पंक्तियाँ मीडिया की तात्कालिक स्थिती का बखूबी वर्णन करती है। स्वतंत्रता संग्राम में पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। उस दौर में पत्रकारों ने अपनी कलम की रोशनाई से राष्ट्र प्रेम की ऐसी अलख जगायी, जिसका परिणाम है ये आजादी। ‘उदन्त मार्तंड’, ‘आज’, ‘प्रताप’ जैसे अनेकों समाचार-पत्र हानि-लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्रसेवा के लिए कटिबद्ध थे, या यूं कहें वो दौर था विशुद्ध पत्रकारिता का। गली-मोहल्ले से निकलने वाले छोटे-छोटे अखबारों में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। तत्कालिन समाचार पत्रों में छपे लेखों ने नौजवानों को सोचने पर विवश कर दिया था। ये हमारे पूर्वजों (पत्रकारों) की विरासत है कि मीडिया की विश्वसनीयता आज भी बदस्तूर कायम है। उस दौर में संपादकाचार्य बाबूराव, विष्णुराव पराणकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रताप नारायण मिश्र, लक्ष्मी शंकर गर्दे, पं. माखनलाल चतुर्वेदी जैसे उत्कृष्ट एवं ओजस्वी पत्रकारों ने अपनी ओजस्वी लेखन से आमजन में राष्ट्रप्रेम के बीज बो दिये थे। जिसकी फसल भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ, राम प्रसार बिस्मिल एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के रूप में देखने को मिली।
मगर आज के परिदृश्य में मीडिया की विश्वसनीयता में धीरे-धीरे ही सही गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। जैसा कि पराडक़र जी ने कहा था कि, आने वाले समय में संपादक, संपादक न होकर एक कुशल प्रबंधक होगा। वास्तव में आज का संपादक मालिक के आर्थिक हितों का कुशलता से प्रबंधन करता है। कभी समाचार पत्र की जान कहे जाने वाले मुखपृष्ठ एवं संपादकीय पृष्ठों पर पूँजीपतियों एवं राजनीतिज्ञों का दखल बढ़ता जा रहा है। प्रथम पृष्ठ पर लगने वाले ‘पुल आउट’ विज्ञापन से लाखों-करोड़ों का वारा-न्यार करने वाले पत्र-मालिकों (पूँजीपतियों) ने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब तो मीडियाकारों ने मुनाफाखोरी की सारी हदें पार दी हैं। प्रिंट मीडिया का नया आविष्कार है, एडवर्टोरियल यानि खबरों के शक्ल में विज्ञापन। ये विज्ञापन आपको अखबार के किसी पन्ने पर अपने विज्ञापनदाता की डुगडुगी बजाते मिल जायेंगे। किसी जमाने में अखबार की शान समझे जाने वाले संपादकीय पृष्ठ पर अब राजनीतिज्ञों या दल विशेष के प्रवक्ताओं की घुसपैठ हो चुकी है। संसद को अखाड़ा बना देने वाले कई लंपट आजकल इस पृष्ठ पर अपनी चाटुकारिता के जौहर दिखा रहे हैं।
ये हाल सिर्फ प्रिंट मीडिया का नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी है। ये कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समस्त नैतिक विचारों को ताक पर रखकर सेक्स, सनसनी और अपसंस्कृति परोसने में मशगूल हो गया है। खबरिया चैनलों में संजीदा खबरों का तो जैसे सूखा पड़ गया है, खबरों की कमी को पूरा करते हैं, छोटे पर्दे के घटिया रियालिटी शो। जो रियलीटी दिखाने के चक्कर में बाथरूम तक कैमरा लगा देते हैं। फिर उठते हैं विवाद, जिन्हें सनसनी बनाकर खबरें ब्रेक करने की जंग छिड़ जाती है।
सेक्स और सनसनीखेज खबर परोसने वाले ये चैनल आम जन या उससे जुड़े सरोकारों से एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। इस संबंध में भारतीय प्रेस परिषद् के नवनियुक्त अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की ये टिप्पणी काबिलेगौर है, मीडिया विशेषकर समाचार चैनल पर बुनियादी मुद्दों की अपेक्षा गैर जरूरी मुद्दों पर ज्यादा समय देते हैं। देश में ८० फीसदी लोग आर्थिक समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन मीडिया का ध्यान बहुसंख्य लोगों के हित संरक्षण पर न होकर, बॉलीवुड या राजनीतिक गलियारों तक सिमट गया है। अन्यथा क्या वजह है किसी सिने तारिका की गर्भावस्था पे पैकेज चलाने का ? जब देश भ्रष्टाचार से त्राहिमाम कर रहा हो, तो क्या जगह बनती है शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी पर चर्चा करने की ? रजिया के गुंडों में फँसने पर बड़ी स्टोरी बनाने वाले ये मीडियाकर भूल जाते हैं, गाँवों में शोषण का शिकार होने वाली लाखों लड़कियों को। अगर भूले से भी नारी शोषण पर कोई स्टोरी भी की, तो उसका प्रस्तुतीकरण बेहद सनसनीखेज होता है। कौन भूल सकता है, आरूषि कांड जिसमें मीडिया ने आरूषि के पिता को दोषी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी? ऐसे एक नहीं अनेकों प्रसंग मिल जाएंगे, जहां धर्म विमुख पत्रकारों ने पत्रकारिता की कलुषित ही नहीं कलंकित भी किया है। नारी हितों का दम भरने वाले मीडिया घरानों में नारी का शोषित होना अब आम बात हो गयी है।
क्या आम आदमी मीडिया की पहँच से दूर हो गया है ? अक्सर ये सवाल उठाया जाता है, और सच भी है देश की ७५ फीसदी जनता की बुनियादी समस्याओं से आँख फेर चुकी है भारतीय मीडिया। ऐश्वर्या राय के बढ़ते पेट पर नजर रखते-रखते मीडिया आम जन से जुड़ी समस्याओं पर नजर नहीं रख पा रहा है। आश्चर्य की बात है, बढ़ती महँगाई बेखौफ भ्रष्टाचार और आत्महत्या करने वाले किसानों की खबरें अब खबरिया चैनलों की सुखर््ियों से दूर होती जा रही हैं। लैक्मे इंडिया फैशनवीक को कवर करने के लिए जहाँ ५१२ मान्यता प्राप्त पत्रकार पहँुच जाते हैं, वहीं गरीबी से त्रस्त परिवार के सामूहिक आत्मदाह पर चुप्पी साध लेते हैं।
टी.आर.पी. और विज्ञापन की होड़ में शामिल ये खबरिया चैनल भूला बैठे हैं, नैतिकता और आदर्शों को। सास बहू और साजिश या राखी का इंसाफ अब प्रमुखता से दिखाये जाने वाले न्यूज कंटेंट का हिस्सा बन गया है। उस पर ब्रेकिंग खबरें, राखी तोड़ेंगी बाबा का ब्रह्मचर्य, क्या साबित करती हैं? जो दिखता हे वो बिकता है कि तर्ज पर चलते हुए, मीडिया के ठेकेदार भूल गए हैं पत्रकारिता का धर्म। क्या छोड़े, क्या दिखायें नहीं अब चर्चा होती है, क्या न दिखायें। अत: खबरिया चैनलों पर बिग बॉस सरीखे दर्जनों फूहड़ रियलीटी शो को परोसने की होड़ मची रहती है। इन शोज में आधे-अधूरे कपड़ों में निहायत भद्दा प्रस्तुतिकरण देने वाली कन्याओं से क्या नारी की अस्मिता पर प्रश्र चिन्ह नहीं लगता ? कपड़ों की तरह ब्वायफ्रेंड बदलने वाली सिने तारिकाएँ क्या भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व के योग्य हैं ? लिव इन रिलेशनशिप पर बिंदास बोलने वाली बालाएँ क्या शोषित हो सकती हैं ?
जवाब हमेशा न ही होगा, मगर फिर भी इन मॉडर्न गल्र्स के ‘कास्टिंग काउच’ के किस्से सुर्खियों में बने रहते हैं। राखी को न्यायाधीश मान बैठे ये खबरनवीस भूल गए हैं, न्याय की परिभाषा। न्याय की कीमत किसी निर्दोष की जान तो कभी नहीं हो सकती, लेकिन गंदा है पर धंधा है ये।
अब सवाल ये है कि निरंकुश मीडिया की लगाम कौन कसेगा। इसके तीन रास्ते हैं, पहला सरकार या सेंसर बोर्ड इनके कंटेट्स पर निगाह रखे और आवश्यकता पडऩे पर जुर्माना एवं लाइसेंस रद्द करने के आवश्यक कदम उठाये। दूसरा मीडियाकर अपने स्व-विवेक से राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अपना प्रस्तुतिकरण करें, जिसमें संपूर्ण राष्ट्र के बहुसंख्यक वर्ग का हित चिंतन सम्मिलित हो। तीसरा और अंतिम विकल्प है, दर्शक ऐसे चैनलों का निषेध करें जो पीत पत्रकारिता में संलग्र है। अंतत: रोजाना उठने वाली इस बहस का परिणाम चाहे जो भी हो, पर इस बहस ने बट्टा लगा दिया है मीडिया के चरित्र पर। मिशन से होकर प्रोफेशन तथा अंतत: सेनसेशन और कमीशन के फेर में उलझी हमारी पत्रकारिता, पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास का प्रतिनिधित्व तो कतई नहीं करती। अंतत: मीडिया शुद्धिकरण की ढ़ेरों आशाओं के साथ सिर्फ ये ही कह पाउँगा -
अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार।
शब्द नंगे हो गये शोहरत भी गाली हो गयी।।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार में उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं।)
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो, अकबर ‘इलाहबादी’ की ये पंक्तियाँ मीडिया की तात्कालिक स्थिती का बखूबी वर्णन करती है। स्वतंत्रता संग्राम में पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। उस दौर में पत्रकारों ने अपनी कलम की रोशनाई से राष्ट्र प्रेम की ऐसी अलख जगायी, जिसका परिणाम है ये आजादी। ‘उदन्त मार्तंड’, ‘आज’, ‘प्रताप’ जैसे अनेकों समाचार-पत्र हानि-लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्रसेवा के लिए कटिबद्ध थे, या यूं कहें वो दौर था विशुद्ध पत्रकारिता का। गली-मोहल्ले से निकलने वाले छोटे-छोटे अखबारों में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। तत्कालिन समाचार पत्रों में छपे लेखों ने नौजवानों को सोचने पर विवश कर दिया था। ये हमारे पूर्वजों (पत्रकारों) की विरासत है कि मीडिया की विश्वसनीयता आज भी बदस्तूर कायम है। उस दौर में संपादकाचार्य बाबूराव, विष्णुराव पराणकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रताप नारायण मिश्र, लक्ष्मी शंकर गर्दे, पं. माखनलाल चतुर्वेदी जैसे उत्कृष्ट एवं ओजस्वी पत्रकारों ने अपनी ओजस्वी लेखन से आमजन में राष्ट्रप्रेम के बीज बो दिये थे। जिसकी फसल भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ, राम प्रसार बिस्मिल एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के रूप में देखने को मिली।
मगर आज के परिदृश्य में मीडिया की विश्वसनीयता में धीरे-धीरे ही सही गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। जैसा कि पराडक़र जी ने कहा था कि, आने वाले समय में संपादक, संपादक न होकर एक कुशल प्रबंधक होगा। वास्तव में आज का संपादक मालिक के आर्थिक हितों का कुशलता से प्रबंधन करता है। कभी समाचार पत्र की जान कहे जाने वाले मुखपृष्ठ एवं संपादकीय पृष्ठों पर पूँजीपतियों एवं राजनीतिज्ञों का दखल बढ़ता जा रहा है। प्रथम पृष्ठ पर लगने वाले ‘पुल आउट’ विज्ञापन से लाखों-करोड़ों का वारा-न्यार करने वाले पत्र-मालिकों (पूँजीपतियों) ने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब तो मीडियाकारों ने मुनाफाखोरी की सारी हदें पार दी हैं। प्रिंट मीडिया का नया आविष्कार है, एडवर्टोरियल यानि खबरों के शक्ल में विज्ञापन। ये विज्ञापन आपको अखबार के किसी पन्ने पर अपने विज्ञापनदाता की डुगडुगी बजाते मिल जायेंगे। किसी जमाने में अखबार की शान समझे जाने वाले संपादकीय पृष्ठ पर अब राजनीतिज्ञों या दल विशेष के प्रवक्ताओं की घुसपैठ हो चुकी है। संसद को अखाड़ा बना देने वाले कई लंपट आजकल इस पृष्ठ पर अपनी चाटुकारिता के जौहर दिखा रहे हैं।
ये हाल सिर्फ प्रिंट मीडिया का नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी है। ये कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समस्त नैतिक विचारों को ताक पर रखकर सेक्स, सनसनी और अपसंस्कृति परोसने में मशगूल हो गया है। खबरिया चैनलों में संजीदा खबरों का तो जैसे सूखा पड़ गया है, खबरों की कमी को पूरा करते हैं, छोटे पर्दे के घटिया रियालिटी शो। जो रियलीटी दिखाने के चक्कर में बाथरूम तक कैमरा लगा देते हैं। फिर उठते हैं विवाद, जिन्हें सनसनी बनाकर खबरें ब्रेक करने की जंग छिड़ जाती है।
सेक्स और सनसनीखेज खबर परोसने वाले ये चैनल आम जन या उससे जुड़े सरोकारों से एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। इस संबंध में भारतीय प्रेस परिषद् के नवनियुक्त अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की ये टिप्पणी काबिलेगौर है, मीडिया विशेषकर समाचार चैनल पर बुनियादी मुद्दों की अपेक्षा गैर जरूरी मुद्दों पर ज्यादा समय देते हैं। देश में ८० फीसदी लोग आर्थिक समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन मीडिया का ध्यान बहुसंख्य लोगों के हित संरक्षण पर न होकर, बॉलीवुड या राजनीतिक गलियारों तक सिमट गया है। अन्यथा क्या वजह है किसी सिने तारिका की गर्भावस्था पे पैकेज चलाने का ? जब देश भ्रष्टाचार से त्राहिमाम कर रहा हो, तो क्या जगह बनती है शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी पर चर्चा करने की ? रजिया के गुंडों में फँसने पर बड़ी स्टोरी बनाने वाले ये मीडियाकर भूल जाते हैं, गाँवों में शोषण का शिकार होने वाली लाखों लड़कियों को। अगर भूले से भी नारी शोषण पर कोई स्टोरी भी की, तो उसका प्रस्तुतीकरण बेहद सनसनीखेज होता है। कौन भूल सकता है, आरूषि कांड जिसमें मीडिया ने आरूषि के पिता को दोषी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी? ऐसे एक नहीं अनेकों प्रसंग मिल जाएंगे, जहां धर्म विमुख पत्रकारों ने पत्रकारिता की कलुषित ही नहीं कलंकित भी किया है। नारी हितों का दम भरने वाले मीडिया घरानों में नारी का शोषित होना अब आम बात हो गयी है।
क्या आम आदमी मीडिया की पहँच से दूर हो गया है ? अक्सर ये सवाल उठाया जाता है, और सच भी है देश की ७५ फीसदी जनता की बुनियादी समस्याओं से आँख फेर चुकी है भारतीय मीडिया। ऐश्वर्या राय के बढ़ते पेट पर नजर रखते-रखते मीडिया आम जन से जुड़ी समस्याओं पर नजर नहीं रख पा रहा है। आश्चर्य की बात है, बढ़ती महँगाई बेखौफ भ्रष्टाचार और आत्महत्या करने वाले किसानों की खबरें अब खबरिया चैनलों की सुखर््ियों से दूर होती जा रही हैं। लैक्मे इंडिया फैशनवीक को कवर करने के लिए जहाँ ५१२ मान्यता प्राप्त पत्रकार पहँुच जाते हैं, वहीं गरीबी से त्रस्त परिवार के सामूहिक आत्मदाह पर चुप्पी साध लेते हैं।
टी.आर.पी. और विज्ञापन की होड़ में शामिल ये खबरिया चैनल भूला बैठे हैं, नैतिकता और आदर्शों को। सास बहू और साजिश या राखी का इंसाफ अब प्रमुखता से दिखाये जाने वाले न्यूज कंटेंट का हिस्सा बन गया है। उस पर ब्रेकिंग खबरें, राखी तोड़ेंगी बाबा का ब्रह्मचर्य, क्या साबित करती हैं? जो दिखता हे वो बिकता है कि तर्ज पर चलते हुए, मीडिया के ठेकेदार भूल गए हैं पत्रकारिता का धर्म। क्या छोड़े, क्या दिखायें नहीं अब चर्चा होती है, क्या न दिखायें। अत: खबरिया चैनलों पर बिग बॉस सरीखे दर्जनों फूहड़ रियलीटी शो को परोसने की होड़ मची रहती है। इन शोज में आधे-अधूरे कपड़ों में निहायत भद्दा प्रस्तुतिकरण देने वाली कन्याओं से क्या नारी की अस्मिता पर प्रश्र चिन्ह नहीं लगता ? कपड़ों की तरह ब्वायफ्रेंड बदलने वाली सिने तारिकाएँ क्या भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व के योग्य हैं ? लिव इन रिलेशनशिप पर बिंदास बोलने वाली बालाएँ क्या शोषित हो सकती हैं ?
जवाब हमेशा न ही होगा, मगर फिर भी इन मॉडर्न गल्र्स के ‘कास्टिंग काउच’ के किस्से सुर्खियों में बने रहते हैं। राखी को न्यायाधीश मान बैठे ये खबरनवीस भूल गए हैं, न्याय की परिभाषा। न्याय की कीमत किसी निर्दोष की जान तो कभी नहीं हो सकती, लेकिन गंदा है पर धंधा है ये।
अब सवाल ये है कि निरंकुश मीडिया की लगाम कौन कसेगा। इसके तीन रास्ते हैं, पहला सरकार या सेंसर बोर्ड इनके कंटेट्स पर निगाह रखे और आवश्यकता पडऩे पर जुर्माना एवं लाइसेंस रद्द करने के आवश्यक कदम उठाये। दूसरा मीडियाकर अपने स्व-विवेक से राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अपना प्रस्तुतिकरण करें, जिसमें संपूर्ण राष्ट्र के बहुसंख्यक वर्ग का हित चिंतन सम्मिलित हो। तीसरा और अंतिम विकल्प है, दर्शक ऐसे चैनलों का निषेध करें जो पीत पत्रकारिता में संलग्र है। अंतत: रोजाना उठने वाली इस बहस का परिणाम चाहे जो भी हो, पर इस बहस ने बट्टा लगा दिया है मीडिया के चरित्र पर। मिशन से होकर प्रोफेशन तथा अंतत: सेनसेशन और कमीशन के फेर में उलझी हमारी पत्रकारिता, पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास का प्रतिनिधित्व तो कतई नहीं करती। अंतत: मीडिया शुद्धिकरण की ढ़ेरों आशाओं के साथ सिर्फ ये ही कह पाउँगा -
अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार।
शब्द नंगे हो गये शोहरत भी गाली हो गयी।।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार में उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं।)