
बहरहाल ये गर्व का विषय नहीं है कि हमारे यहां इस तरह का कोई हादसा नहीं हुआ । ध्यातव्य हो बतौर रक्षा मंत्री अमेरिका दौरे पर गए जार्ज फर्नांडिस की सरेआम धोती उतार के ली गई तलाशी । ऐसा वाकया सिर्फ उन्हीं के साथ नहीं और भी कई मंत्रियों के सामने पेश आया है । हांलांकि सभी ने खामोश रहकर बात को दबाने का ही प्रयास किया है । इस मामले पे जार्ज फर्नांडिस साहब कि सफाई भी काबिले गौर थी, अमेरिकी आतंकी हमलों के बाद से सहमे हुए हैं इसीलिए उनके ऐसे सुरक्षा इंतजामों को समझा जा सकता है । खैर हकीकत जो भी हो उनके साथ जो कुछ भी हुआ वो वास्तव में खेदजनक था । एयरपोर्ट पर सरेआम उनकी इज्जत का तमाशा बनाना वास्तव में भारतीय लोकतंत्र का मजाक उड़ाना ही था । आखिर इस तरह की अपमानजनक परिस्थितियों को कब तक सहते रहेंगे हम? अगर वास्तव में ये सुरक्षा संबंधी जांच का मामला था तो अमेरिका चीन और रूस के राजनयिकों की इस प्रकार की सघन जांच क्यों नहीं करता?
इस तरह की अनेकों घटनाओं और प्रसंगों के समक्ष भारत कभी भी अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज नहीं करा सका है ? आपको याद होगा 22 जुलाई 2008 को भारतीय सदन को शर्मसार कर देने वाला नोट फार वोट कांड । इस कांड में अमेरिका के आदेशानुसार कांग्रेस सरकार न्यूक्लियर डील के लिए आतुर हो गई थी । डील के अपने ही सहयोगियों द्वारा विरोध के बाद सरकार ने वो किया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । अब प्रश्न ये उठता है कि क्या भारत का नियंत्रण अमेरिका के हाथों में है ? हैरत में मत पडि़ये विकिलीक्स के केबल्स के अनुसार अमेरिका की अदृश्य डोर भारत की शासन व्यवस्था को नियंत्रित करती है । यहां हैरान कर देने वाली बात ये भी है कि भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव भी अमेरिका के ही इशारों पर किया जाता है । आपको याद होगा मोदी का वीजा प्रकरण । भारत में क्या हुआ कैसे हुआ किन परिस्थितियों में हुआ इसका निर्धारण करने वाला अमेरिका कौन होता है? अंततः मोदी भारत की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं । अब चूंकि ये विरोध अमेरिका ने किया था अतः हम हिन्दुस्तानियों के लिए सर्वमान्य हो गया । इसी घटना के तारों को पकड़कर आगे चलें तो तस्वीर और भी स्पष्ट हो जाएगी । ध्यान दीजिएगा आगामी लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे हैं मोदी पर मीडिया के हमले भी बढ़ते जा रहे हैं । कभी बच्चियों के कुपोषण तो,कभी निःशुल्क आवंटित हो रहे मकानों के आवेदन के लिए एकत्रित भीड़ पर लाठी चार्ज का मामला इसके अलावा भी अन्य कई मुद्दों पर मोदी को घेरने की कोशिशें बदस्तूर जारी है । सोचने वाली बात है कि क्या पूरे भारत में सर्वत्र रामराज्य व्याप्त है जो गुजरात की इतनी थुक्का फजीहत हो रही है । काबिलेगौर है मीडिया का ये आक्रामक रुख इराक पर अमेरिकी हमले से पहले भी ऐसा ही था । संक्षेप में मीडिया ने अमेरिका के आरोपों को इतना प्रमाणिक मानकर प्रसारित किया था कि पूरा विश्व अपने आपको जैविक हथियारों की जद में महसूस करने लगा था । आखिर में इराक से कोई भी जैविक हथियार बरामद नहीं होने के बाद अमेरिका की इस तरह से खिंचाई क्यों नहीं की? वो तो भला हो मुंतजिर अल जैदी की जिसने कम से कम जूता फेंककर पत्रकार बिरादरी की नाक रख ली । कहीं इस मोदी प्रकरण की डोर भी अमेरिकी हाथों में तो नहीं है ? विचार करीये साक्ष्य किस ओर इशारा करते हैं ।
बहरहाल भारत में प्रधानमंत्री के चुनावों में पहले भी विदेशी ताकतों के सम्मिलित होने की बात कही जाती रही है । सत्तर से अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री जहां केजीबी की सहमति से चुना जाता था तो आज रूस के पराभव के बाद वो स्थान अमेरिका ने ले लिया है । सत्तर के दशक में भारत में अमेरिका के राजदूत डेनियल पैटिक ने एक किताब लिखी । इस किताब का नाम था अ डैंजरस प्लेस, इस किताब में उन्होने लिखा कि अमेरिका पिछले 24 वर्षों से कम्यूनिस्टों के खिलाफ जंग में कांग्रेस की मदद करता रहा है । इसके अलावा केरल और बंगाल जैसे कम्यूनिस्टों के परंपरागत गढ़ में चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस को चुनाव का खर्च भी दिया है । अब अगर डैनियल साहब की इस बात को सच मान लिया जाए तो अमेरिका कांग्रेस की मदद क्यों करता रहा ? वजह साफ है भारत की सत्ता पर अपना अदृश्य नियंत्रण स्थापित करने के लिए । विकिलीक्स केबल्स के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंम्हा राव के शासन में विदेश मंत्री रहे पी सोलंकी को अपने पद से सिर्फ इसलिए हटना पड़ा क्योंकि वे अमेरिका के निर्देशानुसार क्वात्रोच्चि के मामले को दबा नहीं सके । 2005 में मनमोहन सिंह के शासनकाल में पेटोलियम मंत्री मणि शंकर अय्यर को भी अमेरिका के दबाव में पद से हटाया गया । मणि शंकर भारत ईरान संबंधो को आगे बढ़ाकर पाइप लाइन योजना पर अमल चाहते थे । उनकी जगह कुर्सी पर विराजे मुरली देवड़ा इंडो यूएस संसदीय फोरम से थे । विकीलिक्सि पर यकीन करें तो भारत सरकार के मंत्रीमंडल में फिलहाल छः कैबिनेट इसी फोरम से थे । इसके अलावा एफडीआई और हथियारों की खरीद फरोख्त जैसे मामलों में भी अमेरिका की सहमति आवश्यक होती है । उपरोक्त साक्ष्यों पर अगर यकीन करें तो किस दिशा में जा रहा है भारतीय लोकतंत्र ? कब तक हम अमेरिका के रहमोकरम के मोहताज बने रहेंगे ? विचार करीये आगामी लोकसभा चुनावों में आपका चुनाव क्या है ? याद रखीये अंतिम चुनाव सिर्फ और सिर्फ आपका होगा । अंततः
अब भी न संभलोगे तो मिट जाओगे हिंदोस्तां वालों,
तुम्हारी दासतां भी न होगी जहंा की दास्तानों में ।