Sunday, July 8, 2012

आधुनिकता की गर्त में समाती कजली
मानव सृष्टि के आरंभ से ही हाव भावों एवं विभिन्न चित्रों एवं लोकगीतों के माध्यम स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयासरत रहा है। वस्तुतः मनुष्य एक कलाप्रेमी एवं सामाजिक प्राणि है। अपने अस्तित्वबोध एवं बौद्धिकता को स्वर देने के लिए मनुष्य ने विभिन्न लोककलाओं केा जन्म दिया । ऐसी ही एक लोककला का नाम है कजली, जो धीरे धीरे ही सही क्रमशः काल के गाल में समा रही है।
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध कजली का जन्म विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में बसे मीरजापुर जनपद में हुआ। जिस प्रकार बुंदलखण्ड की अभिव्यक्ति फाग,एवं गुजरात का गर्बा है ठीक उसी प्रकार विंध्य मंडल की चेतना की संवाहक है लोकगीत कजली। सावन के महीने में वर्षा के रिमझिम संगीत एवं पृथ्वी के हरितिमा युक्त श्रृंगार के स्वर से स्वर मिलाकर मानव मन कूक उठता है।
 हरि हरि आवै मस्त सवनवा,गावै मनवा रे हरी
हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह ही कजली गायन के अनंत रुप एवं विस्तार हैं। देखा जाए तो कजली पुराने समय में जनसंचार का एक सशक्त माध्यम थी। कजली के माध्यम से भी पौराणिक कथाएं कहीं व सुनी जाती थी। उदाहरणस्वरुप देखें, खड़ी द्रौपदी सभा में नजर चार करैं कृष्ण की पुकार करैं ना।
     पांच पति मन मारे आज बैठे हैं किनारे,चीर खींच के दुःशासन करैं उघार करैं। कृष्ण की पुकार करैं ना
                      अथवा
जनकपुरी में आई प्रभु श्रीराम की बारात का बर्णन करती ये पंक्तियां
जनकपुरी से आई पतिया बांच लिये रघुराई,अरे रामा कैसी सजी है बारात जनकपुरी आई रे हरि।
उपरोक्त गीतों में भाव अनुरुप अपूर्व वर्णन देखने को मिलता है। पत्रकारिता की दृष्टि से देखें तो समसामयिक घटनाओं एवं बदलते वातावरण का सचित वर्णन करने में भी इस विधा के अद्भुत योगदान को नकारा नहीं जा सकता । उदाहरण के तौर पर काशी में अंग्रजों द्वारा बनवाए गए राजघाट पुल का वर्णन करती ये पंक्तियां- बना राजघाट पुल बड़ा आला पिया दूर से देखाला पिया ना,नीचे गाड़ी आवै जाए सीटी इंजन की सुनावै,घोड़ा हाथी सब उपरां से आला पिया दूर से देखाला पिया ना।
अथवा बदलते परिवेश में एक विवाहिता का अपने पति से आग्रह- हमें साबुन मंगा द हमाम पिया,ल मजा तमाम पिया ना। अनेक विधाओं की भांति कजली का जन्म भी ग्राम्यांचल से हुआ है। प्रमाणों की बात करने पर भविष्योत्तर पुराण में इस पर्व के मनाए जाने का उल्लेख है। नागपंचमी के दिन कजरी या जरई स्थापना के लिए तालाब से मिट्टी लाकर आरोपित की जाती है। इसी अवसर से कजली गायन आरंभ हो जाता था।
भाव रस राग एवं विस्तृत प्रकृति के कारण कजली के कई अखाड़े बने जहां इनका स्वतंत्र गायन होता था। विजयगढ़ मं चैहारी गुरु का अखाड़ा,अहरौरा मंे राजनाथ एवं बनारसी बाबा का अखाड़ा बहुत प्रसिद्ध थे। पूर्वांचल में सावन भादों के महीने में घर आए मेहमानों से कजरी गवाने की भी परंपरा थी। न गाने पर होने वाली दुर्दशा का वर्णन इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखता है।
नीचे हील गोबरी ऊपर छाई बदरी, हमके कजरी न आवे सब गवाए जबरी।
मीरजापुर में कजली गायन के लिए कई स्थान जाने जाते थे,त्रिकोण मेला,नारघाट,पसरहट्टा एवं कजरहवा पोखरा। कजरहवा पोखरा का नाम तो कजली के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ। कजली प्रतियोगिता के आकर्षण में बंधकर अक्सर काशीराज भी यहां आते थे। लोकोक्तियों में आज भी ये पंक्तियां प्रसिद्ध हैं।
दसमी रामनगर की भारी कजरी मीरजापुर सरनाम,रामनगर में राम बसत हैं मीरजापुर जयराम। ये जयराम महंत जयराम थे जो कजली का मेला लगवाते थे। विंध्य क्षेत्र की ये समृद्ध परंपरा आज लुप्त होने के कगार पर है। चैधरी बद्रीनारायण प्रेमघन,अंबिकादत्त व्यास,भारतेंदु हरिश्चंद्र सदृश   साहित्यकारों ने   कजली को अपने ओजस्वी लेखन से समृद्ध किया। इस लोकगीत की विषयवस्तु में      हास परिहास,दुःख,समसामयिकी आदि जीवन के प्रत्येक पहलू का समावेश था। देश भक्ति के स्वर भी कजली में मुखर होकर उठते थे। यथा हरि हरि नागर नैया जाला काला पानी रे हरि ।
कजली मुख्यतः महिलाओं का ग्राम्यगीत था,परंतु कला को जाति अथवा लिंग से बांधना असंभव है। बफत,अंबिकादत्त व्यास से लेकर राजनाथ तक लेखन के क्षेत्र में तो दूसरी ओर शारदा सिन्हा से लेकर बड़े गुलाम अली ने गायन के क्षेत्र में इस लोकगीत को विस्तार एवं विविधता प्रदान की है। कजली ने सामाजिक सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात करके अपने सामाजिक दायित्वों का कुशलता से निर्वहन किया। नारी दुर्दशा एव ंदहेज समस्या को स्वर देती हुई कजली कहती है।
ऊंची ऊंची बखरिया देख बिअहल भइया बिरनू, भीतरां मरमिया नाहिं जनल भइया बिरनू
च्ूंकि कजली मुख्यतः ग्राम्य महिलाओं का गीत था। अतः इनके मनोभाव,अपेक्षाएं,दुःख वेदना एवं विरह का प्रस्तुतीकरण भी कजली से होता था। यथा
पिया मेंहदी लिया द मोती झील से जाके साइकिल से ना।
                     अथवा
अरे रामा सावन चढ़ा ललकार पिया घर नाहीं रे हरी
संक्षेप में कहें तो जीवन का प्रत्येक पहलू कजली से जुड़ा हुआ था। वक्त के बदलाव के साथ ही ये लोककला आज लुप्त होने के कगार पर है।निन्यान्बे के चक्कर में उलझे लोगों को अभिव्यक्ति का अवकाश ही कहां हैं। रही सही कसर तड़क भड़क एवं द्विअर्थी संवादों से युक्त फिल्मी गीतों के तीव्र विस्तार ने पूरी कर दी है। कजली के मेले,दंगल एवं मौलिक धुनें खात्मे के कगार पर हैं। अपनी संस्कृति से जुड़े इस लोकगीत को बचाना हमारा कत्र्तव्य है,क्योंकि कजली के बहाने ही सही हमें वृक्षों झूलों अर्थात् प्रकृति से जुड़े रहने का एक अवसर सुलभ होगा।
                                                                                                                               सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र ’