Friday, January 25, 2013

गणतंत्र दिवस मनाइए गर्व से कहीये वी आर इंडियन: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

देखा जाए तो इतिहास के विस्तृत अध्यायों में तारीखें बहुत मायने रखती हैं । यथा भारत में देशभक्ति की बात करने के लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी की दो तारीखें मुकर्रर हैं  । मजे की बात है वर्ष के शेष दिनों में देश को शर्मसार कर देने वाले लोग भी इन तारीखों पर स्वयं को देश भक्त साबित करने मंे कोई कसर नहीं उठा रखते । गणतंत्र अर्थात गण द्वारा चालित तंत्र , मगर अफसोस की बात है  िकइस संपूर्ण काले तंत्र में गण की भूमिका भस्मासुर पैदा करने की ही रह गई है । ऐसा भस्मासुर जिसे वे चाह कर भी भस्म नहीं कर सकते हैं । इस सारी विभीषिका को देखते हुए मन में कुछ पंक्तियां उठती है:
कैसी है ये त्रासदी कैसा है संयोग , लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग
कोई हैरत की बात नहीं वास्तव में इस गौरवपूर्ण देश का दुर्भाग्यपूर्ण संचालन यही दो कौड़ी के लोग कर रहे हैं । हमारे समाज में आज भी रोजाना की दर से ऐसी घटनाएं घटित होती हैं तो यह साबित करती हैं कि हम आज भी गणतंत्र की भावना से कोसों दूर हैं । यथा अभी कुछ दिनों पूर्व का ही वाकया ले लें हमारे इस गणतंत्र में एक युवराज की ताजपोशी हुई है । इन विषम परिस्थितियों में कुछ तलवे चाटने वाले लोगों ने इसे ऐतिहासिक तो कुछ ने इसे अविस्मरणीय बताया । अब जबकि बात ताजपोशी की है तो यहां विशेष योग्यता का प्रश्न नहीं उठता,अतः हमारे युवराज की कोई विशेष योग्यता नहीं है । बहरहाल जिस विशेष योग्यता पर विशेष बल दिया गया वो है युवा शब्द । ध्यातव्य हो कि 40 वर्ष से अधिक की आयु के व्यक्ति को युवा नहीं कहा जा सकता लेकिन गणतंत्र का असली मजा तो यही है शब्दों की मनमाफिक व्याख्या । खैर ये तथाकथित युवा देश के आम युवा को कहां तक लुभाता है ये देखने वाली बात है ? अपने से क्या हम दूसरी बात करेंगे गर्व करेंगे हमारे संविधान पर । ऐसा संविधान जिसका एकमात्र ध्येय है समरथ को नहीं दोष गुंसाई या और फटे में कहें तो जिसकी लाठी भैंस उसी की ।
वैसे आज के दिन साल भर मौन रहने वाले मौनी बाबा भी लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर अपना मौन तोड़ते हैं । मौन तोड़ते हैं वो भी हिंदी भाषा में देखीये है ना ये दिन महान । संविधान के अनुसार हमारी राजभाषा हिंदी को कम से कम एक दिन तो मिलता है । गर्व करीए हम अपना 62 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं । अन्य दिनों अगर अंग्रेजी नहीं बोलेंगे हमारे काले कारनामों पर पर्दा कौन डालेगा । वस्तुतः देश की अनपढ़ जनता को छलने के लिए अंग्रेजी से सक्षम हथियार क्या हो सकता है? बात समझ मे आए अथवा न आए गण की भूमिका तो तालियां बजाना ही है । वैसे ये तो बड़ी छोटी बात है अगर हमारे जननायकों से पूछिये तो सीधा सा तर्क मिलेगा कि ग्लोबलाइजेशन का जमाना है अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलेगा । अब मन में एक सवाल उठता है कि रूस,चीन और जापान जैसे देश अपनी मातृभाषा में अपना काम कैसे चला लेते हैं ? क्या उनके विकास का स्तर हमसे कुछ कम है ? जवाब हमेशा ना में ही मिलेगा । वास्तव में अंग्रेजी का ये अंधा अनुसरण मात्र एक ढ़कोसला है जिसका देश हित से कोई लेना नहीं है । हां अंग्रेजी बोलने का एक प्रत्यक्ष लाभ आपको बता दूं । आपको याद होगा कि उत्तर प्रदेश के एक कद्दावर नेता कुछ महीनों अपने मातहतों से चर्चा कर रहे थे चर्चा हिंदी में चल रही थी । अतः ये आम जनमानस की समझ में भी आ रही थी । अब इसका नुकसान भी देख लीजिये । इसी दौरान भावनाओं की रौ में बहकर उन्होने कह दिया कि चोरी करना बुरी बात नहीं है थोड़ी थोड़ी किया करो । अब बात चूंकि हिंदी में हो रही थी सबकों समझ आ गई । इसके बाद की स्थिती तो सबको पता है । सोचिये कि यही बात उन्होने अंग्रेजी में कही होती तो क्या इतना बवाल होता । नही ंना इसीलिए हमारे सारे बड़े नेता अपनी बातें अंग्रेजी में कहते हैं । पहले तो बात जनता की समझ में नहीं आती अगर मीडिया की वजह से समझ में आ भी जाए तो जनता की याददाश्त तो हमारे सभी नेता जानते ही हैं कि कमजोर होती है ।
अब जरा अपने गणराज्य की भी बात हो जाए । हमारे गणराज्य का एक अभिशप्त भाग है काश्मीर जिसे कभी धरती का स्वर्ग भी कहा जा सकता है । ध्यान दीजिये ये गुलाम भारत की बातें थी और कहते भी हैं कि छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी । अतः हमारे जननायक कल की बातों पर विशेष गौर नहीं करते । अब जब बात जन्नत की हो तो उस पर सभी की निगाहें गड़नी चाहिए । अतः हमारे पड़ोसी चीन और पाक की निगाहें इस कश्मीर पर ऐसी गड़ी कि इन्होने उसे लगभग आधा कब्जा कर ही दम लिया । खैर इस बात के लिए हमारे नेताओं को मत कोसियेगा । उन्होने अमेरिका से लेकर यूएन तक बहुत चीख पुकार मचाकर अपने कत्र्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन किया मगर नतीजे वहीं ढ़ाक के तीन पात । किंतु हमारे कद्दावर नेता इतने से ही हार मान जाते तो नेता कैसे माने जाते । आखिर वोटबैंक भी तो बनाना था । गौरतलब है कि सत्ता की आंच पर खौलते जनता रूपी दूध की मलाई है वोटबैंक । यही वोटबैंक नेता को पुष्ट करता है । अतः हमारे बुद्धिमान नेताओं ने एक अस्थाई निष्कर्ष निकाला अनुच्छेद 326 । अर्थात एक देश के दो ध्वज और दो संविधान । है न हमारा लोकतंत्र महान । गर्व से कहीये हम अपना 62 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं । यही नहीं हमारे नेताओं ने शांति के लिए जितना काम किया उतना तो शायद विश्व के अन्य किसी भी देश के नेता ने किया हो लेकिन कमबख्त ये नोबेल पुरस्कार आज भी हमारे नेताओं की पहुंच से दूर है । इसमे सर्वप्रथम नाम है माननीय नेहरू जी जिन्होने चीन द्वारा छीन ली गई जमीन को बंजर और निष्प्रयोज्य बताकर अपनी आंतरिक मनोवृत्ति को सुस्पष्ट कर दिया । इससे भी गर्व की बात है कि इसी राजपरिवार ने आने वाले कई दशकों तक अपनी संततियों अथवा युवराजों एवं युवराज्ञियों के माध्यम से हमारे देश को कृतार्थ किया । हैरत होती है जब लोग ऐसे मासूम एवं शांति प्रिय लोगों पर सवाल उठाते हैं । ये सब छोडि़ये गर्व से मनाइए गणतंत्र दिवस ।
अंतिम पंक्तियों में हम बात करेंगे इस लोकतंत्र के नवनीत सेक्यूलरिज्म की । हमारा पूरा देश धर्मांधता की आग में जल जाए,हजारेां लाखों लोग जिहादी हिंसा के शिकार बने ठेंगे से मगर मजाल है कि हमारी सेक्यूलरिज्म की भावना पर ठेस आए । वैसे भी इस सवाल उठाने वाले हम और आप होते कौन हैं ये तो हमारी परंपरा है अतिथि देवो भवः । इसी परंपरा के निर्वाह में सदियों से हमारे अनेकों महापुरूषों ने अपने प्राण दिये, तो भला हमारे आधुनिक नेता इतने निर्विय तो नहीं हो सकते । आप सेक्यूलरिज्म को इसी परंपरा के निर्वाह को इसी परंपरा के रूप में देख सकते हैं इसी कारण हमारे नेता देश में प्रत्येक आतंकी का एवं चरमपंथी का यथायोग्य स्वागत करते हैं । आप कसाब की खातिरदारी से इस बात को भली भांति समझ सकते हैं । वैसे भी बाहर से आने वालों का देश पर पहला अधिकार होता है बस इसी वजह से हमारे जननायकों ने काश्मीर के लोगों शरणार्थी तो बांग्लादेश से आने वाले अतिथियों का वोटर कार्ड बनवाकर बकायदा नागरिक बना डाला । उस पर भी लोग दर्शन बघारते हैं वसुधैव कुटुंबकम, काबिलेगौर है कि सदियों पुराने इस वेद वाक्य का अर्थ आमजन ने भले ना समझा पर हमारे काबिल नेता जरूर समझते हैं । इसीलिए उन्होने इस पूरे कुटुंब को पूरी राजकीय मान्यता के साथ स्वीकार किया । गर्व की बात है कि हमारी इसी उदार भावना के कारण ही ये हिंसक मेहमान आज अमेरिका या अन्य देशों की बजाए भारत आना ज्यादा पसंद करते हैं । अब जब भारत आते हैं तो जाहिर खर्च भी यहीं करते होंगे हुआ विदेशी मुद्रा का निवेश । इस बात को हम भले ही ना समझें पर हमारे वित मंत्रियों ने बखूबी समझ लिया है। सबसे बड़ी बात भारत की बढ़ती जनसंख्या आज चिंता का सबब भी बन गई ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण का भी कारगर अस्त्र हैं ये विदेशी मेंहमान । अतः ये घटनाएं भले ही हमारे लिए चिंता का सबब हों पर हमारे नेता तो माॅैज में कहते है आल इज वेल । सरकार की उपरोक्त सारी नीतियों पर विचार करें तो समझ में आ जाएगा कि एक ही तीर से अनेकों शिकार कैसे किये जाते हैं । अंततः इतना सब समझाने के बाद भी यदि ये सरकारी संदेश आपकी समझ में ना आए तो हमारे मासूम मौनी बाबा कर भी क्या कर सकते हैं? उनकी वचनबद्धता तो इंडिया के प्रति है और हम सब ठहरे जाहिल भारतीय तो जनाब आप भी अंग्रजीदां तौर तरीके अपनाकर गणतंत्र दिवस मनाइए गर्व से कहीये वी आर इंडियन । जहां तक मेरा सवाल है तो मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा किः
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत गालिब, खुश रहने को ये ख्याल अच्छा है ।

Tuesday, January 15, 2013

फिर तो मुश्किल हो जाएगा सीमाओं की निगहबानी के लिए जवान ढंूढ़ना ! सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’


 अपना भारत भी कमाल का देश का है । एक ओर जब पूरा देश दामिनी प्रकरण में उलझा था ठीक उसी वक्त पाक सैनिकों ने सीमा की सुरक्षा में मुस्तैद हमारे दो जवानों को बुरी तरह मार डाला । हैवानियत की हद तो तब हुई जब ये पता चला कि उनमें से एक जवान का धड़ सिर के बिना ही बरामद हुआ । क्या ये एक सामान्य मुद्दा है ? इन जवानों के प्राणोत्सर्ग के शोक में कितनों ने मोमबत्तियां जलाईं ? क्या ये बलात्कार प्रकरण से छोटा मुद्दा था?े सरहदों पे तैनात जवानों के साथ पेश आई ये दुर्दांत घटना क्या मानवाधिकारों से परे है ? क्या सैनिकों के मानवाधिकार नहीं होते ? अगर होते हैं तो अब तक कहां सोये हैं मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले ? ऐसे अनेकों प्रश्न हैं जिनके उत्तर अब तक अनुत्तरित हैं या यूं कहें कि कोई भी देने की जहमत नहीं उठाना चाहता । किंतु शुतुरमुर्ग की तरह सिर रेत में गाड़ लेने से प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते ।
अभी कुछ दिनों पूर्व एक दुष्कर्म के मामले में आसमान को सर पर उठा लेने वालों की खामोशी अब खलने लगी है । भारत मां की रक्षा के लिए प्राणों की आहुती देने वाले इन जवानों के लिए डीडीए में फ्लैट,परमवीर चक्र,नकद ईनामों की घोषणाएं भी नहीं की जा रही हैं । हैरान हूं ये वाकया और ये राजनीतिक दोगलापन देखकर । अजीब है हमारा लोकतंत्र इस तंत्र में कसाब को दामाद बनाया जा सकता है लेकिन शहीदों के त्याग को मूल्यहीन समझा जाता है । बहरहाल अभी सिर्फ एक घटना की बात क्यों करें ऐसी अनेकों लगातार घटती जा रही हैं जिससे ये साबित होता है कि इस नुमाइशी तंत्र में जवानों का क्रम अक्सर ही सबके बाद आता है । इस घटना के आसपास घटी एक अन्य घटना में नक्सलियों ने मृत जवान के शव में विस्फोटक भर दिया था । क्या ये घटना हमारे लोकतंत्र को शर्मसार नहीं करती? काबिलेगौर है कि देश में आतंकियों और नक्सलियों की वकालत करने वाले तो हजारों मिल जाएंगे लेकिन जवानों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर टिप्पणी भी करने से गुरेज किया जाता है । वजह है हमारी दोमुंही सेक्यूलर परंपरा । मजे की बात है कि इसी माह हम अपना 65 वां सैन्य दिवस भी मना रहे हैं । ऐसे में सैनिकों के प्रति सरकार की जवाबदेही भलीभांती समझी जा सकती है ।
इन सारी चर्चाओं के बीच अगर सेक्यूलर जनों की बात न की जाए तो बात कुछ अधूरी लगती है । ध्यातव्य हो खुद को सेक्यूलर नं 1 एवं समाजवाद का ठेकेदार साबित करने वाले मुलायम के पुत्र फिलहाल उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री सरकार चला रहे हैं । दुर्भाग्य से शहीद लांस नायक हेमराज मथुरा से थे । ऐसे में घडि़याली आंसू बहाने के लिए ही सही हमारे युवा मुख्यमंत्री को आगे आना ही चाहीए था, मगर अफसोस अमर शहीद की अंतिम यात्रा अखिलेश जी तो दूर उनके सिपहसलारों ने भी आना मुनासिब नही समझा । हैरत की बात मौलवी मदरसों के छोटे कार्यक्रमों में भी खासे उत्साह से भाग लेने वाले मुलायम जी के सुपुत्र ने शव यात्रा से दूरी क्यों बनाई ? जवाब स्पष्ट ये अखिलेश जी वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होनें कठमुल्लों के दबाव में अभी कुछ दिनों पूर्व ही उत्तर प्रदेश में आतंकियों पर चल रहे सभी केस वापस लेने का फैसला किया था । अब उनके इस फैसले से उनके चरित्र को तो बखूबी समझा जा सकता है ।जरा सोचिये देश की रक्षा के लिए अपना पुत्र और पति सौंपने मां एवं पत्नी पर बिना सिर की लाश देखकर क्या बीती होगी ? इन सबके अलावा प्रशासनिक उपेक्षा क्या सैनिक परिवारों का मनोबल तोड़ने की कोशिश नहीं है । ये कहानी तो थी हमारे सेक्यूलर समाज के युवा चेहरे की लेकिन राजनीति पर लगे इस कलंक को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने लांस नायक सुधीर सिंह के शव को बकायदा कंधा देकर धोया ।
इन सबके बावजूद केंद्र सरकार की पाक को दी गई नसीहत अब तो मजाक लगने लगी है । अंततः जैसा कि आसार था ब्रिेगेडियर स्तर की मीटिंग निरर्थक सिद्ध हुई । पाकिस्तान अब भी अपने रटे रटाये जवाब ही दोहरा रहा है कि उसका इस घटना से कोई लेना देना नहीं है । बहरहाल पाकिस्तान चाहे जो भी कहे इस पूरी घटना को मनमोहन सरकार की एक और नाकामी के तौर पर भी देखा सकता है । हांलाकि इस दिशा में थलसेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह के बयान से थोड़ी राहत अवश्य मिली है । अपने बयान में श्री सिंह ने भारत सरकार को उसके कत्र्तव्य की याद दिलाते हुए कहा कि शहीद जवान का सिर वापस लाने की जिम्मेदारी भी सरकार की है । देखने वाली बात है कि इस दिशा में भारत सरकार की अग्रिम कार्रवाई क्या होगी ? अफसोस की बात है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए तो ये कत्तई नहीं लगता की सरकार इस दिशा में गंभीर कदम उठाएगी । सोचने वाली बात है कि कब तक हम पाक की बदनीयती का शिकार होकर वार्ता के असफल प्रयास करते रहेंगे ? जहां तक भारतीय सेना का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर हमारे पास की सर्वाधिक अनुशासित सेना है । अन्यथा अगर कहीं यहां भी पाक जैसे हालात होते निश्चित तौर पर हमारे लोकतंत्र के ढ़कोसले की इतिश्री हो चुकी होती । इन सबके बावजूद भी अगर देश का राजनीतिक दोगलेपन का अंत नही ंतो निश्चित तौर पर आने वाले समय में सीमाओं की निगहबानी के लिए जवानों की खोज मुश्किल हो जाएगी । अंततः वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि .....
बस्तियों से दूर शायद एक मकां होगा,वतन पे मरने वालों का यहां ना फिर निशां होगा !