Wednesday, September 26, 2012

भारतीय संप्रभुता पर संकट: एक विवेचन-सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

विकीलिक्स के खुलासों ने रातांे रात पूरी दुनिया की रंगत बदल कर रख दी है । इसका सीधा सा असर अमेरिका पर पड़ता दिख रहा है । वास्तव में इस रिपोर्ट ने वैश्विक साजिशों को बेनकाब कर डाला है । ऐसे में इस संगठन के प्रति अमेरिका की आक्रामकता को समझा जा सकता है । आस पास मौजूद साक्ष्यों का अगर सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे पूरी दुनिया को अमेरिका ने कहीं न कहीं प्रभावित किया है । कौन भूल सकता है कम्यूनिज्म के विरूद्ध अमेरिका की जंग जिसकी पौध थी ओसामा बिन लादेन । ध्यान दे ंतो लादेन का वजूद उन दिनों अमेरिका के लिए लड़ने वाले भाड़े के टट्टू से ज्यादा कुछ नहीं थी । अंततः वही लादेन जब भस्मासुर बनकर अमेरिका के समक्ष आ खड़ा हुआ तो उसका अंजाम भी किसी से छुपा नहीं है । अब सवाल उठता है कि दोषी कौन है ? अमेरिका या लादेन । किसी के अंदर छुपी जेहादी भावनाओं को भड़काना तो प्रशंसनीय काम नहीं माना जा सकता । वास्तव में ये अमेरिका का दोष है,लेकिन ध्यान दीजिएगा पूरे विश्व में इस मुद्दे पर कोई खास चर्चा नहीं हुई । वजह साफ है अमेरिका का वर्चस्व । क्या अमेरिका इस वर्चस्व का दुरूपयोग कर रहा है? जवाब हमेशा हां में मिलेगा । याद होगा कि जैविक हथियारों केे नाम पर किस तरह से सद्दाम हुसैन को मौत के घाट उतार दिया था । हांलाकि उसकी मौत के बाद भी जैविक हथियार  जो थे ही नहीं, नहीं मिले । क्या अंजाम हुआ सद्दाम हुसैन को जिसे केवल शक के आधार कुत्ते की मौत मारा गया ? क्या दोष था उसका? ऐसा कौन सा संकट था वैश्विक शांति के समक्ष जो अमेरिका ने उसका बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया ? सोचिये ऐसा क्यों हुआ और किसी ने आवाज तक नहीं उठाई ? ऐसे अनेकों क्यों हैं जिन्हें सोचकर आपका दिमाग भन्ना उठेगा । सवाल ये भी उठता इतने बड़े हत्याकांड के बावजूद भी मीडिया के ठेकेदारों ने अपना मुंह क्यों नहीं खोला ? वजह साफ है कि पूरे विश्व पर अमेरिका का अघोषित नियंत्रण है ।
बहरहाल ये गर्व का विषय नहीं है कि हमारे यहां इस तरह का कोई हादसा नहीं हुआ । ध्यातव्य हो बतौर रक्षा मंत्री अमेरिका दौरे पर गए जार्ज फर्नांडिस की सरेआम धोती उतार के ली गई तलाशी । ऐसा वाकया सिर्फ उन्हीं के साथ नहीं और भी कई मंत्रियों के सामने पेश आया है । हांलांकि सभी ने खामोश रहकर बात को दबाने का ही प्रयास किया है । इस मामले पे जार्ज फर्नांडिस साहब कि सफाई भी काबिले गौर थी, अमेरिकी आतंकी हमलों के बाद से सहमे हुए हैं इसीलिए उनके ऐसे सुरक्षा इंतजामों को समझा जा सकता है । खैर हकीकत जो भी हो उनके साथ जो कुछ भी हुआ वो वास्तव में खेदजनक था । एयरपोर्ट पर सरेआम उनकी इज्जत का तमाशा बनाना वास्तव में भारतीय लोकतंत्र का मजाक उड़ाना ही था । आखिर इस तरह की अपमानजनक परिस्थितियों को कब तक सहते रहेंगे हम? अगर वास्तव में ये सुरक्षा संबंधी जांच का मामला था तो अमेरिका चीन और रूस के राजनयिकों की इस प्रकार की सघन जांच क्यों नहीं करता?
इस तरह की अनेकों घटनाओं और प्रसंगों के समक्ष भारत कभी भी अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज नहीं करा सका है ? आपको याद होगा 22 जुलाई 2008 को भारतीय सदन को शर्मसार कर देने वाला नोट फार वोट कांड । इस कांड में अमेरिका के आदेशानुसार कांग्रेस सरकार न्यूक्लियर डील के लिए आतुर हो गई थी । डील के अपने ही सहयोगियों द्वारा विरोध के बाद सरकार ने वो किया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । अब प्रश्न ये उठता है कि क्या भारत का नियंत्रण अमेरिका के हाथों में है ? हैरत में मत पडि़ये विकिलीक्स के केबल्स के अनुसार अमेरिका की अदृश्य डोर भारत की शासन व्यवस्था को नियंत्रित करती है । यहां हैरान कर देने वाली बात ये भी है कि भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव भी अमेरिका के ही इशारों पर किया जाता है । आपको याद होगा मोदी का वीजा प्रकरण । भारत में क्या हुआ कैसे हुआ किन परिस्थितियों में हुआ इसका निर्धारण करने वाला अमेरिका कौन होता है? अंततः मोदी भारत की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं । अब चूंकि ये विरोध अमेरिका ने किया था अतः हम हिन्दुस्तानियों के लिए सर्वमान्य हो गया । इसी घटना के तारों को पकड़कर आगे चलें तो तस्वीर और भी स्पष्ट हो जाएगी । ध्यान दीजिएगा आगामी लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहे हैं मोदी पर मीडिया के हमले भी बढ़ते जा रहे हैं । कभी बच्चियों के कुपोषण तो,कभी निःशुल्क आवंटित हो रहे मकानों के आवेदन के लिए एकत्रित भीड़ पर लाठी चार्ज का मामला इसके अलावा भी अन्य कई मुद्दों पर मोदी को घेरने की कोशिशें बदस्तूर जारी है । सोचने वाली बात है कि क्या पूरे भारत में सर्वत्र रामराज्य व्याप्त है जो गुजरात की इतनी थुक्का फजीहत हो रही है । काबिलेगौर है मीडिया का ये आक्रामक रुख इराक पर अमेरिकी हमले से पहले भी ऐसा ही था । संक्षेप में मीडिया ने अमेरिका के आरोपों को इतना प्रमाणिक मानकर प्रसारित किया था कि पूरा विश्व अपने आपको जैविक हथियारों की जद में महसूस करने लगा था । आखिर में इराक से कोई भी जैविक हथियार बरामद नहीं होने के बाद अमेरिका की इस तरह से खिंचाई क्यों नहीं की? वो तो भला हो मुंतजिर अल जैदी की जिसने कम से कम जूता फेंककर पत्रकार बिरादरी की नाक रख ली । कहीं इस मोदी प्रकरण की डोर भी अमेरिकी हाथों में तो नहीं है ? विचार करीये साक्ष्य किस ओर इशारा करते हैं ।
बहरहाल भारत में प्रधानमंत्री के चुनावों में पहले भी विदेशी ताकतों के सम्मिलित होने की बात कही जाती रही है । सत्तर से अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री जहां केजीबी की सहमति से चुना जाता था तो आज रूस के पराभव के बाद वो स्थान अमेरिका ने ले लिया है । सत्तर के दशक में भारत में अमेरिका के राजदूत डेनियल पैटिक ने एक किताब लिखी । इस किताब का नाम था अ डैंजरस प्लेस, इस किताब में उन्होने लिखा कि अमेरिका पिछले 24 वर्षों से कम्यूनिस्टों के खिलाफ जंग में कांग्रेस की मदद करता रहा है । इसके अलावा केरल और बंगाल जैसे कम्यूनिस्टों के परंपरागत गढ़ में चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस को चुनाव का खर्च भी दिया है । अब अगर डैनियल साहब की इस बात को सच मान लिया जाए तो अमेरिका कांग्रेस की मदद क्यों करता रहा ? वजह साफ है भारत की सत्ता पर अपना अदृश्य नियंत्रण स्थापित करने के लिए । विकिलीक्स केबल्स के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंम्हा राव के शासन में विदेश मंत्री रहे पी सोलंकी को अपने पद से सिर्फ इसलिए हटना पड़ा क्योंकि वे अमेरिका के निर्देशानुसार क्वात्रोच्चि के मामले को दबा नहीं सके । 2005 में मनमोहन सिंह के शासनकाल में पेटोलियम मंत्री मणि शंकर अय्यर को भी अमेरिका के दबाव में पद से हटाया गया । मणि शंकर भारत ईरान संबंधो को आगे बढ़ाकर पाइप लाइन योजना पर अमल चाहते थे । उनकी जगह कुर्सी पर विराजे मुरली देवड़ा इंडो यूएस संसदीय फोरम से थे । विकीलिक्सि पर यकीन करें तो भारत सरकार के मंत्रीमंडल में फिलहाल छः कैबिनेट इसी फोरम से थे । इसके अलावा एफडीआई और हथियारों की खरीद फरोख्त जैसे मामलों में भी अमेरिका की सहमति आवश्यक होती है । उपरोक्त साक्ष्यों पर अगर यकीन करें तो किस दिशा में जा रहा है भारतीय लोकतंत्र ? कब तक हम अमेरिका के रहमोकरम के मोहताज बने रहेंगे ? विचार करीये आगामी लोकसभा चुनावों में आपका चुनाव क्या है ? याद रखीये अंतिम चुनाव सिर्फ और सिर्फ आपका होगा । अंततः
          अब भी न संभलोगे तो मिट जाओगे हिंदोस्तां वालों,
           तुम्हारी दासतां भी न होगी जहंा की दास्तानों में ।
                                                                      

Monday, September 24, 2012

क्या ध्वस्त हो रहा है लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ ?

                                    
यदि कोई ऐसी चीज है जो मुक्त चिंतन को बरदाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाए । ये कथन है प्रसिद्ध अमेरिकी चिंतक विण्डेल फिलिप के वास्तव में उपरोक्त कथनों में मीडिया की कार्य पद्धति को भी समझा जा सकता है । लोकतंत्र में अपनी विशिष्ट वैचारिक भूमिका के कारण ही मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है । अब प्रश्न उठता है कि क्या मीडिया अपनी भूमिका का निष्पक्ष रूप से निर्वहन कर पा रहा है ? जहां तक प्रश्न है भारतीय मीडिया का तो उसका जन्म ही गुलामी में हुआ था । ऐसी गुलामी जहां सच छापने की कीमत तात्कालीन संपादकों को अपना सर्वस्व लुटाकर चुकानी पड़ी । इसके बावजूद भारतीय पत्रकारिता की धार अपने प्रारंभिक काल से बड़ी पैनी थी ।  सांप्रदायिकता के विरूद्ध चेतावनी,भाषा सुधार, राजनीति दशा एवं दिशा,स्वतंत्रता का संपोषण आदि अनेक विवादित विषयों पर पत्रकारों ने  अपनी लेखनी चलाई । अपने प्रारंभिक दिनों से देश हितों के लिए मुखर मीडिया आज मिशन, सेनसेशन,कमीशन और बाजारवाद के चैराहे पर आ खड़ी है । इन चारों तत्वों में मीडिया का प्रधान तत्व है मिशन,वास्तव में ये मीडिया का मिशनरी स्वरूप जिसने अखबारों को आमजन मानस के बीच लोकप्रिय बनाया। गुलामी के दिनांे के दौरान लोगों  में देश प्रेम के बीच बोये । अब बात आती है सेनसेशन की जो आजकल प्रायः हम सभी देख और सुन रहे हैं । सनसनीखेज समाचारों की इस आपाधापी में पत्रकारिता का मूल तत्व कहीं लुप्त होता रहा है । जैसा कि पराड़कर जी ने कहा था आने वाले दिनों में संपादक मालिक के व्यवसायिक हितों के कुशल प्रबंधक होंगे । वास्तव में आज संपादक कुशल प्रबंधक होते जा रहे हैं । ये समाचार पत्रों मंे प्रकाशित खबरांे को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है । एक ही खबर को चार अलग अलग अखबारांे  में पढ़कर देखीये आपकों ये अंतर साफ दिखने लगेगा । ये तो रही अखबारों की बात टीवी चैनलों  ने तो नैतिकता की सारी हदें ही तोड़ डाली । जैसा कि आप रोजाना ही देखते और सुनते होंगे। पत्रकारों की जगह ले ली कम कपड़ांे में आपसे मुखातिब टीवी एंकरों ने । इसके अलावा अन्य विचित्र भाव भंगिमाओं वाले सनकी से दिखने वाले एंकर भी यत्र तत्र सर्वत्र दिखने लगे हैं । जैसेे आपको याद होगा स्टार टीवी के वो एंकर जो चिल्लाते नजर आते थे ‘सोना है तो जाग जाइए’। जरा गौर करने पर ऐसे अनेकों उदाहरण आपको मिल जाएंगे उदाहरण के तौर कुछ वर्ष पूर्व एक चैनल द्वारा चलाई गई खबर, राजधानी की सड़कों पर दौड़ी चालक रहित कार या उमा भारती की शादी की खबर । ये तो छोटे से उदाहरण है मीडिया की इन खबरों का सिलसिला यहीं नहीं थमता । कुछ वर्षों पूर्व समाज में नयी परिभाषा का जन्म हुआ है, जो दिखता है वो बिकता है । क्या वाकई ऐसा ही होना चाहिए? सब कुछ दिखाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने का वक्त आ गया है । अन्यथा अनेकों पूनम पांडे और सनी लियोन को बढ़ावा मिलेगा । पूनम पांडे का प्रकरण तो सभी को याद होगा । किस तरह होड़ लगी थी कद्दावर पत्रकारों के बीच उसे दिखाने की । इस प्रकरण में अर्द्धविक्षिप्त पूनम पांडे से ज्यादा दोष पत्रकार बिरादरी का था । जरा सोचिए व्यक्तिगत रूप से घर घर जाकर कितनों को देह दर्शन करा सकती थी । यहां उसे विस्तार दिया कैमरे ने,कल तक गुमनाम सी लगने वाली पूनम पांडे रातों रात एक सनसनी बन गयी । फिर एक प्रश्न उठता कि क्या वासना को विस्तार देने का माध्यम बनता जा रहा है मीडिया? वो तो भला हो सेंसर बोर्ड का जिसने सबकुछ खुलेआम दिखाने की छूट अब तक नहीं दी है । अन्यथा क्या होता इस समाज का चेहरा? बड़े से बड़ा कद्दावर समाचार पत्र आज खबरों की कमी से जूझ रहा है ऐसे ही कुछ हालात टीवी चैनलों के भी हैं । टीवी चैनल कम खबरों की भरपाई सास बहू और साजिश,वल्गर कामेडी शो और निर्मल बाबा जैसों के कार्यक्रम दिखा के कर लेता है । दूसरी ओर अखबार भी पेड न्यूज और विज्ञापन छाप कर अपना कोटा पूरा कर लेते हैं । ये अलग बात है कि अखबार में पन्नों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है लेकिन उसमें पठनीय सामग्री कितनी इसका तो भगवान ही मालिक है । अब जरा खबरों की बात कर लें मीडिया सेमिनारों में अक्सर ही न्यूज सेंस की बात होती है । क्या होता है न्यूज सेंस ? जहां तक मेरी राय है तेा वर्तमान में मीडिया में काम कर रहे सत्तर फीसदी लोगों में इसका अभाव है । अगर ऐसा नहीं होता तो 80 फीसदी से ज्यादा खबरें पीआरओ,पुलिस और नेताओं के हवाले से नहीं लिखी जाती । क्या ये तथाकथित बुद्धिजीवी सदा सत्य ही बोलते है? देश के हालात देखकर ऐसा तो नहीं लगता । ध्यातव्य हो कि पत्रकारिता के सिद्धांतों में उसे आम आदमी का हित चिंतक बताया जाता है । लेखन का दृष्टिकोण उस आम आदमी पर केंद्रित होना चाहिए जिस तक पहुंचते पहुंचते रोटियां खत्म हो जाती हैं । क्या उस आम आदमी के प्रति जवाबदेह है मीडिया?
शब्द ब्रह्म का रूप हैै ये कथन है प्रसिद्ध उपन्यासकार अज्ञेय जी के । वास्तव में शब्द भावनाओं के विस्तार का सशक्त माध्यम होते हैं । लगता है आजकल मीडिया में शब्दों का भी अकाल पड़ा हुआ है । कभी देश के शब्दकोष को राष्टपति,मुद्रास्फीति आदि जैसे अनेकों सारगर्भित शब्द देने वाला मीडिया अब शब्दों के चयन के लिए फिल्मों का मोहताज हो गया है । उदाहरण के लिए विभिन्न टीवी चैनलों पर बुम्बाट,इशकजादे जैसे सतही शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है । खैर इस मामले में अपना प्रिंट मीडिया भी पीछे क्यों रहे । कुछ महीने पूर्व एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार का शीर्षक देखा‘दसवीं के दबंगों का कमाल लहराया परचम’ , खबर पढ़ने के बाद ये सोचने पर विवश होना पड़ा दसवीं की परीक्ष में अच्छे अंक लाने वाले ये नौनिहाल अगर दबंग है तो फिर अनैतिक कृत्य करने वाले असामाजिक तत्वों को दबंग कैसे कहा जा सकता है?
बीते चुनावों से एक नई परंपरा ने जन्म लिया है जिसे पेड न्यूज । पेड न्यूज हंालाकि नैतिकता के नंबरदार खबर के ठीक नीचे बहुत बारीक शब्द में लिखते हैं कि ये विज्ञापन है । क्या ऐसे कर देने से हमारे कत्र्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? ध्यान रखीये ज्यादातर पाठक नीचे लिखी इन चंद बारीक लाइनों की बजाय मेाटी हेडिंग पर गौर करते हैं । इन शीर्षकों में होती है भ्रामक सूचनाएं । उदाहरण के लिए फलां नेता के नेतृत्व में उमड़ा जनसैलाब । जबकि हकीकत इसके कोसेां दूर होती है । ये खबरें निश्चित तौर पर मतदाता की मनोदशा को प्रभावित करती हैं । बीते लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग के पास जबरन पेड न्यूज केे लिए दबाव बनाने के 167 मामले दर्ज हुए थे । अब सोचिये किस ओर जा रही है पत्रकारिता ?मामला यहीं तक होता तो मान लेते कि आल इज वेल,लेकिन मीडिया को संचालित करने वाले पूंजीपतियों की मनमानी यहीं खत्म नहीं होती । अभी हाल ही में कैग की रिपोर्ट के बाद प्रकाश में कोयला घोटाले के मामले में कुछ समाचार पत्रों की भूमिका भी संदिग्ध है । रिपोर्ट के अनुसार दैनिक भाष्कर की अनुषांगी कंपनी को डीबी पावर को 765 करोड़ के कोल ब्लाक आवंटित हुए थे । टू जी मामले में भी कुछ पत्रकारों के नाम सामने आए थे । क्या यही होता है एक पत्रकार का चरित्र ? जंतर मंतर में हुए स्वामी रामदेव के अनशन के दौरान एक नयी परंपरा ने जन्म लिया । दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बाद बाबा बस की छत पर सवार होकर अपने समर्थकों का हौंसला बढ़ा रहे थे । इस दौरान कुछ पत्रकार ने उनसे बातचीत की । बातचीत के बाद उनका ये पीटूसी काबिलेगौर मैं फलां, बस की छत से लाइव, सोचने वाली बात है कि अगर बाबा अगर बाथरूम में होते तो पीटूसी क्या होता? अभी ज्यादा दिन नहीं बीते है निर्मल बाबा की नौटंकी बीते । लगभग सभी चैनलों पर छाए रहते थे निर्मल बाबा । अंततः मीडिया की नौटंकी से आजिज आकर आज तक को दिये अपने साक्षात्कार में सामने बैठे पत्रकार से एक प्रश्न पूछा,क्या आप बिना पैसे के मेरा विज्ञापन दिखाओगे ? अरे अगर कमाउंगा नही ंतो मीडिया को विज्ञापन के पैसे कहां से दूंगा? बात साफ निर्मल बाबा की ये दुकान बिना मीडिया के सहयोग के नहीं चल पाती । फिर किस हक से पत्रकारों ने उन्हे ढ़ोंगी बताया ?
अनेकों ऐसे प्रश्न जो ये सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या ढ़ह रहा है लोकतंत्र का चैथा स्तंभ ? जहां तक पत्रकार का प्रश्न है तो जैसा कि पांडेय बेचन शर्मा उग्र ने कहा था कि पत्रकार लाखों की भीड़ में मसीहा की तरह से पहचाना जा सकता है । पत्रकारिता पाने का नहीं गंवाने का मार्ग है जो ऐसा नहीं कर सकते वो रहम करें इस राम रोजगार पर । उन्होने इसे राम रोजगार इसलिए कहा था क्योंकि ये पेश राम की तरह पवित्र रहा है । जरा सोचिये अपने इर्द गिर्द मिलने वालों में कहीं देखा है ऐसा पत्रकार ?
                                                                                                                         सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’


Friday, September 21, 2012

यहां कोई किसी का यार नहीं

एक पुराना गीत है ‘सब प्यार की बातें करते हैं पर करना आता प्यार नहीं,है मललब की दुनिया सारी यहां कोई किसी का यार नहीं’ इन पंक्तियों को अगर भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये और भी प्रासंगिक लगेंगी । एक कहावत है कि सियासत की मजबूरियों में ही सियासत छुपी होती है । वस्तुतः राजनीति समझौते का दूसरा नाम है । ये समझौते किसी दल या विचारधारा को ध्यान में रखकर नहीं किये जाते बल्कि अपनी मजबूरियों को ढ़ोने के लिए किये जाते हैं । ये बात वर्तमान शासन प्रणाली को देखकर बखूबी समझी जा सकती है । इस बात के एक दो नहीं अनेकों उदाहरण रोजाना ही हमारे सामने आते रहते हैं । ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि खुद कि मजबूरियों घिरे इन लोगों से देश हित की उम्मीद की जा सकती है । जवाब हमेशा ही ना होगा ।90 के दशक से अस्तित्व में आयी गठबंधन की राजनीति ने देश के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है । देश की राजनीति में इन दिनों दो गठबंधन दलों की मुख्य भूमिका है । इनमें से एक है कांग्रेस नीत संप्रग तो दूसरा भाजपानीत राजग । चूंकि संप्रग गठबंधन के हाथ में सत्ता की बागडोर है तो आइए पहले चर्चा करते हैं संप्रग की । गठबंधन को निभा रहे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चर्चा इन दिनों हर जुबान पर है । देश तो क्या विदेशों में भी अद्भुत सत्ता संचालन के गुण की चर्चा हर ओर की जा रही है । ऐसे में देश विदेश में हो रही अपनी खिंचाई से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कुछ कड़े फैसले लिये । देश में एफडीआई की राह खोलना और पेटोलियम पदार्थों के मूल्य में इजाफा करना । बकौल प्रधानमंत्री ये कड़े फैसले आर्थिक सुधारों के लिए अति आवश्यक बताये गये । इन फैसलों से देश का भला होना या न होना तो भविष्य की गर्त में है लेकिन उनके सहयोगियों ने उनकी थुक्का फजीहत में कोई कसर नहीं उठा रखी है । इनमें सबसे पहले समर्थन वापस लेने की घोषणा की ममता बनर्जी ने । तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो के निर्देशानुसार उनके सांसदों ने मंत्री पद से इस्तिफा देकर समर्थन वापस ले लिया । वजह आम आदम केेे हितों की लड़ाई बताई गई । इस घटना का अगर सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे असली वजह मुद्दे से बिल्कुल भिन्न है । अभी कुछ दिनों पूर्व एक चैनल पर हो रही बहस में शामिल तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुल्तान अहमद ने बताया कि सरकार ने ये फैसले सहयोगियों को नजरअंदाज करके लिये थे । बंगाल में चल रही उनकी पार्टी की सरकार के बारे में प्रश्न करने पर उन्होने कहा कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि बंगाल का विकास हो । लगभग दो साल स ेचल रही हमारी सरकार को आवश्यक आर्थिक मदद नहीं मिलने के कारण जरूरी विकास कार्य भी लंबित पड़े हैं । अगर इन बातों पर गौर करें संप्रग गठबंधन का निरंकुश चेहरा हमारे सामने आता है । आश्चर्य की बात ये है कि लगभग आठ वर्षों पुराने अपने इस रिश्ते को बचाने के लिए कांग्रेस ने कोई खास पहल नहीं की । इसका भी कारण स्पष्ट है क्योंकि ममता के सांसदों के विरोध के बावजूद भी सरकार पर अल्पमत का संकट नहीं है । वजह है सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा । ध्यान दीजिएगा कि अगर तृणमूल कांग्रेस के 19 सांसदों ने इस्तिफा दे दिया है तो भी बसपा के 21 और सपा के 22 सांसद सरकार को स्थिरता प्रदान कर रहे हैं । ऐसे में ममता दीदी के समर्थन देने या लेने का कोई विशेष फर्क सरकार की सेहत पर नहीं पड़ा । इन परिस्थितियों को देखकर एक और गीत याद आ रहा है ‘कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर’।
अब बात करते सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा की । भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरे इन दलों को वश में रखने का हथियार अब भी सरकार के पास है । ये है सीबीआई, जिसे उसके इसी विकृत रूप के कारण आजकल कांग्रेस व्यूरो इंवेस्टिगेशन कहा जा रहा है । इसका सबूत है मायावती पर चल रहा ताज कारीडोर मामला कांग्रेस की छत्रछाया में खड़े होने के कारण ही मायावती आजकल ख्ुाद को सुरक्षित महसूस कर रही हैं । अब बात करते हैं मुलायम की तो उनकी अवसरवादी और कुटिल राजनीति से कोई भी अंजान नहीं है । उनके लिए कांग्रेस को समर्थन देने का मतलब है खुद पर चल रही जांच से बचना और उत्तर प्रदेश के लिए बड़े पैकेज झटकना । आपने भी देखा होगा कि मायावती के शासन में केंद्र ने जिस तरह का रवैया अपनाया था उसके ठीक विपरीत अखिलेश के लिए केंद्र ने तिजोरी के ताले खोल दिये हैं । ऐसे में सरकार को गिराकर मुलायम खुद के लिए सिरदर्द नहीं खड़ा करेंगे । उनकी रणनीति है केंद्र से मिल रहे राहत पैकेज से विकास की लहर चलाकर कांग्रेस की कब्र खोदना । कब्र खोदने से मेरा आशय है आगामी लोकसभा चुनाव इस बात से कोई भी अंजान नहीं है कि आम आदमी के हितों की बात करके सत्ता में आयी कांगे्रस आज उसी आम आदमी की दुश्मन नंबर 1 बन गयी है । ऐसे में अगले चुनाव के बाद उसकी वापसी की संभावना भी मृतप्राय हो चुकि है । इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर मुलायम तीसरे मोर्चे की किलेबंदी में जुटे हैं । ऐसे में भारत बंद के दौरान माकपा नेता प्रकाश करात का उन्हे तीसरे मोर्चे का मुखिया कहा जाना मुलायम की सफलता को दर्शाता है । मुलायम के सिंडिकेट में आपको दर्जनों तुच्छ और टुच्चे नेता मिल जाएंगे जिनकी हालत आजकल रोडसाइड रोमियो से ज्यादा कुछ नहीं है ।याद करीये भारतीय राजनीति में तीसरा मोर्चा कोई नई बात नहीं है पूर्व में भी लालू जी ने इस तरह का मोर्चा बनाया था । कौन भूल सकता अवसरवाद के सशक्त उदाहरण रामविलास पासवान को जिन्होने संप्रग और राजग दोनों की सरकारों में मंत्री पद पाया । इन उदाहरणांे को देखते हुए मुलायम का हश्र क्या होगा ये विचारणीय प्रश्न है ।
ये तो थी संप्रग की बात लेकिन राजग गठबंधन की हालत भी इससे कुछ भिन्न नहीं है । जिसकी बानगी भाजपा के महंगाई के विरोध प्रायेाजित भारत बंद के दौरान देखने को मिली । उसके इस आंदोलन को उसके सहयोगी दलों अकाली दल और शिवसेना का समर्थन भी नहीं मिला । भाजपा के एक और बड़े सहयोगी दल जद यू  के तेवर भी कई बार राजग गठबंधन को खतरे में डालते नजर आते हैं । अब विचारणीय प्रश्न है कि खुद अवसरवाद की बिमारी से ग्रस्त ये नेता कैसे रचेंगे स्वस्थ लोकतंत्र? अंततः
                         सियासत नाम है जिसका वो कोठे की तवायफ है,
                             इशारा किसको करती है नजारा किसको मिलता है।
                                                                                                                सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’            

Saturday, September 15, 2012

पद का नहीं कद का दावेदार ढ़ूंढ़ना होगा

हांलाकि आगामी लोकसभा चुनाव 2014 में प्रस्तावित हैं,लेकिन सत्ता के गलियारों में उनकी धमक साफ सुनी जा सकती है । हर छुटभैया खुद को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट कर रहा है । ये मैं नहीं कह रहा ये खबरें आए दिन समाचार पत्रों और चैनलों पर सुर्खियां बटोर रही हैं । वैसे ये बहस शुरू करने का श्रेय किसी और को बिहार के विकास पुरूष नितीश कुमार को जाता है । याद होगा कि राष्टपति चुनाव के वक्त उन्होने भाजपा से सेक्यूलर प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने की मांग की थी । खैर ये बेवक्त शहनाई बजाने की तरह अप्रासंगिक बात थी । बहरहाल उनकी इस हरकत को देखकर गांव में बचपन की सुनी कहावत याद आ गई । जैसी कि पुरनिये कहा करते हैं अगर खिली धूप के साथ फुहारें पड़े ंतो सियार की शादी होती है । वास्तव में यही है भारतीय राजनीति का स्याह पक्ष यहां कितने ही सियार लोकतंत्र की झुलसती दोपहरी में हनीमून का ख्वाब पाले बैठे हैं । खैर ख्वाब देखना व्यक्ति का नितांत निजी मामला कोई भी कभी भी देख सकता है । ध्यान देने वाली बात ये है कि ख्वाब पूरे होंगे या नहीं इसमें संशय  है। वास्तव में पद की ये महत्वाकांक्षा ही व्यक्ति को नकारात्मकता की ओर ढ़केलती है ।
अपने माय वोट बैंक के साथ मुलायम बड़ी चतुराई से पाला बदलकर तीसरे मोर्चे की किलेबंदी कर रहे हैं । इसके पीछे उनकी महत्वाकांक्षा ही जिम्मेदार है । या कौन भूल सकता है राजनीति के मसखरे कहे जाने वाले लालू जी की महत्वाकांक्षा जिसको लेकर उन्होने भी तीसरा मोर्चा गढ़ा था । उनका और पासवान का हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । वैसे मालूम पड़ा है कि आजकल वो ज्योतिषचार्य हो गये हैं । हैरत में मत पडि़ये बीते लोकसभा चुनावों में उनकी सत्य हुई भविष्यवाणी को याद करीये । उन्होने कहा था कि प्रधानमंत्री बनना आडवाणी जी की कुंडली में नहीं लिखा । उनकी ये बात अंततः सच साबित हुई । अफसोस है बेचारे आडवाणी जी को लेकर जो एक कमजोर प्रत्याशी से पिट गए । मनमोहन जी के विजयी होने के कुछ दिनों बाद ही अखबारों में एक कार्टून प्रकाशित हुआ था,जिसमें दिखाया था कि मनमोहन जी से पिटकर आडवाणी जी बेसुध से रिंग में गिरे हुए हैं । ऐसे में पास से गुजरता हुआ एक राहगीर कहता है कि अरे ये तो मजबूत प्रत्याशी था । उस कार्टून को देखकर आडवाणी जी के दिल पर क्या बीती होगी ये तो नहीं पता पर उस कार्टून को यादकर आज भी हंसते हंसते सांस फूल जाती है । कार्टून पे मत जाइएगा अगर लोकतंत्र में रहना है तो देशद्रोह का अगला मुकदमा आप पर भी ठोका जा सकता है । सही भी तो है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे भी उठाने पड़ते हैं । अब असीम भाई को ही ले लीजिए उनका बनाया एक कार्टून उनकी जान का दुश्मन बन गया । एक ही झटके में वो कसाब,अफजल सरीखे आतंकियों और कनीमोझी,व कलमाड़ी जैसे घपलेबाजों से भी बड़े देशद्रोही बना दिये गए । कोयले की कालीख से भले कांग्रेस के हाथ सने हो लेकिन वो भी देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है । यकीन नहीं आता तो उनके राज में हुए घोटालों की फेहरिस्त पर नजर डालिए । इसे ही कहते हैं खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे । खैर जो भी हो इस चर्चा से मेरा आशय है प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवारों की असल योग्यता दर्शाना । संक्षेप में कहें तो आजादी के बाद से ही देश में तथा देशभक्तों के बीच प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने की होड़ लगी थी । यहां एक प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता है,क्या ऐसा ही होता है प्रधानमंत्री? जैसी कि आजादी के 65 वर्षों तक हम बराबर देखते आ रहे हैं । जवाब यही मिलता है कि हमारे देश में पद के दावेदार तो अनेकों मिल जाएंगे पर इस पद के मुताबिक कद किसी का भी नहीं है । अगर किसी का है तो उसके पीछे पड़ जाते हैं सेक्यूलरिज्म के ठेकेदार । इन्होने सेक्यूलर होने की नयी परिभाषा गढ़ी है । इन तुच्छ जननायकों के अनुसार जो जितना बड़ा देषद्रोही वो उतना बड़ा सेक्यूलर । जो देश को बेच डाले वो और बड़ा सेक्यूलर और जो इस भूभाग के वास्तविक दावेदारों को का जीवन नर्क बना डाले वो तो माशा अल्लाह सेक्यूलरों का खुदा ही होगा । तभी तो गिलानी,अग्निवेश जैसे भेडि़ये मजबूरों का घर फूंककर वहां तमाशा करते हैं । हो सकता हो आपको मेरी बात गलत लगे भाई सबकी अलग राय हो सकती है । ये भी हो सकता है आपको चहुंओर इंडिया शाइनिंग लग रहा हो लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है । अगर स्याह हकीकत को जानना है तो कभी बात करके देखीए अपने ही घर में रिफ्यूजी कैंपों में जीवन बसर करने वाले कश्मीरी हिन्दुओं से जो लाखों की संख्या में अपने घरों से बेदखल हुए बैठे हैं । इनके लिए किसी का कलेजा नहीं फटता दर्द होता बांग्लादेश से अवैध रूप से आए लोगों के लिए । वाह रे सेक्यूलरिज्म मैं इसमें यकीन नहीं रखता । ध्यान दीजिएगा अगर सेक्यूलरिज्म की परिभाषा यही है जो हमारे देश में दिखती है तो अमेरिका को विश्व के नक्शे मिटा देना चाहिए । क्योंकि उसने लादेन जैसे योद्धा को मौत के घाट उतार दिया । उसकी मौत पर किसी ने भी वैसी प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की जैसे हमारे एक केंद्रीय मंत्री ने की थी । अमेरिका के सैनिकों का उसे समुद्र में फेंकना उन्हे रास नहीं आया और वो खुलेआम इसकी भत्र्सना कर बैठे । वास्तव में सेक्यलरिज्म के हमारे और वैश्विक दर्शन में बहुत फर्क है। अब सोचने वाली बात देश की बागडोर हम किसे सौंपे? आपने कभी प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन जी के हावभव देखे हैं । क्या ऐसा ही होता है प्रधानमंत्री? कभी सुनी है उनकी हिन्दी ज्यादातर नहीं सुनी होगी क्योंकि लालकिले पर चढ़कर भी हिन्दी बोलना नहीं पसंद करते । वो तो भला हो विपक्ष का जो उन्हे घेर घारकर कभी कभार हिन्दी बोलने पर मजबूर कर देती है । वरना वो तो शायद सपने में भी हिन्दी से सरोकार नहीं रखना पसंद करते । दोबारा प्रश्न उठता है क्या ऐसा होगा हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री जो हिन्दी बोलना भी पसंद नहीं करता ?हमारे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी की ऐसी ही अदाएं देखकर एक अंग्रेज अधिकारी ने कहा था कि नेहरू दिखता तो हिन्दुस्तानी है पर आत्मा से अंगे्रज है । जी हां तो आजादी के बाद से ऐसे ही काले अंग्रेज सत्ता के दावेदार बने बैठे हैं । अगर मेरी बात गलत लग रही होगी तो शायद आपने चाचा जी की कुछ लार्जर दैन लाईफ वाली तस्वीरें नहीं देखी होंगी । वो तस्वीरें जिनमें चचा अचकन पे गुलाब लगाए विदेशी मेम के साथ बैठकर सिगरेट फूंकते दिखते हैं या वो तस्वीर जिसमें वो उन्हीं मेम से चिपककर बैठे मिल जाएंगे । यहां फिर एक प्रश्न है कितने लोग जानते हैं कि चाचा नेहरू की पत्नी का नाम क्या है ? कितने लोगों ने उनको अपनी श्रीमती के साथ उस तरह से बातें करते देखा है ? खैर वो मेम कोई और लार्ड माउंटबेटन की पत्नी थी और ध्यान रखीएगा ये तस्वीरें उस वक्त की है जब देश दासतां की जंजीरों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था । सबसे अधिक हैरत की बात ये है कि ये चिपकना लिपटना किसी और के साथ नहीं ऐसे आदमी की बीवी के साथ हो रहा था जो उनका वैचारिक शत्रु था । क्या ऐसे में नेहरू जी की निष्पक्षता प्रभावित नहीं हो सकती थी ? उनके बहुतेरे किस्से बाद में कई दिनों तक अखबारों में छपते रहे । नेहरू जी और लेडी माउंटबेटन के बीच हुए पत्र व्यवहारों को भी माउंटबेटन की बेटी ने बाद में प्रकाशित कराया । इन पत्रों से और भी बहुत सी बातें प्रकाश में आई । ध्यातव्य हो कि आजादी मिलने के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी के योग्य दावेदार थे सरदार पटेल जिन्होने कई मौकों पर अपनी योग्यता सिद्ध भी की थी । बता दें कि तात्कालीन कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में 15 में 14 प्रदेश अध्यक्षों ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में मतदान किया था । अंतिम फैसला किया महात्मा गांधी ने जिन्होने हस्तक्ष्ेाप कर पं नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया । जैसा कि उन्हेाने 1930 के अधिवेशन सुभाष के सामने अपने प्रत्याशी की हार पर किया था । ऐसे में गांधी जी को भी बेदाग नहीं ठहराया जा सकता । बहरहाल यहां गांधी जी पर चर्चा नहीं करूंगा । पं नेहरू के जीवन को और करीब से जानना है तो इलाहाबाद स्थित उनके घर आनंद भवन को घूम कर देखीये । काफी कुछ समझ आ जाएगा । वास्तव में पद का वास्तविक दावेदार वही होता है जिसने देश के लिए त्याग किया हो न कि वो जिसने देश के संसाधनों को प्राइवेट लिमिटेड इस्टेट बना डाला हो । गौर करीये वास्तव में कांग्रेस है क्या एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी एक निजी प्रापर्टी जिसका सीईओ परिवार से ही आएगा । तो ऐसे में अमूल बेबी की तो बपौती है प्रधानमंत्री की कुर्सी । सोचिये क्या वास्तव में इसे ही लोकतंत्र कहते हैं?
अक्सर ही चर्चाओं के दौरान जैसा कि मेरे एक मित्र कहा करते हैं कि देश को अभी बड़े डाक्टर या इंजीनियर की नहीं योग्य शिक्षकों और नेताओं की आवश्यकता है । वास्तव मंे वर्तमान में मुख्यधारा के नेताओं पर चर्चा करने के बाद नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और नाम जेहन में ठहरता है ? निष्पक्षता से सोचियेगा । क्या सूख गई है  नेताओं की नर्सरी ? या बपौती बन गई है कुछ प्राइवेट लिमिटेड परिवारों की ? जरा सोचिये मोदी के बाद फिर कौन इस जादुई कुर्सी का नैसर्गिक उत्तराधिकारी ? क्या भविष्य की राजनीति के लिए हमारे पास विकल्प सुरक्षित हैं ? जरा फिर से सोचियेगा नेतृत्वविहीन होकर किस गर्त में जा रहे हैं हम ? अव्यवस्था के इस आलम में युवाओं को आगे आना होगा क्योंकि इसी उम्र में त्याग किया जा सकता है । वास्तव में एक निर्धारित उम्र के बाद व्यक्ति की संघर्ष क्षमता कुंद हो जाती है । यहां प्रश्न व्यक्ति की योग्यता का नहीं सामथ्र्य का होता है । ऐसा ही कुछ मनमोहन जी के साथ भी हुआ है जो कांग्रेस की बलीवेदी पर बकरा बने बैठे हैं । कब तक सत्ता की बागडोर ऐसे निस्तेज और थके हुए बूढ़ों के हाथ में सौंपते रहेंगे कब तक । अब आवश्यकता युवाओं के आगे बढ़ने की । ध्यान रखीयेगा स्वामी विवेकानंद से लगायत भगत सिंह तक सभी युवा थे, जिन्होने हममे स्वाभिमान के बीज बोये थे । आज देश का स्वाभिमान क्षत विक्षत होता देखकर क्या हमार युवा रक्त नहीं खौलता ? क्या इतने ठंडे पड़ गए हैं हम ? सोचिये सारे विकल्प आपके सामने हैं । अंततः
न संभलोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्तां वालों,
तुम्हारी दासतां भी न होगी जहां की दास्तानों में
                                                                                                                                   जय हिंद,जय भारत




                                                                                                                                 सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’  



Monday, September 3, 2012

‘युवाओं के नाम एक आवाह्न पत्र’

  देश हित की बात यूं तो विगत कई वर्षांे से करते आ रहे हैं । दुर्भाग्य कि बात ये है कि इसकी अंतिम परिणीती अब तक अप्राप्य है । वर्तमान दशा और दिशा को देखते हुए ये प्राप्त होती नहीं लगती । जायज सी बात आप लोगों को लग सकता है कि ये देश की हम सभी की साझा समस्या है और इसपे व्यक्तिगत आक्षेप लगाने वाला मैं कौन होता हूं ? बात सही भी है, और बहुत से लोगों का ये मानना भी है हमने विगत 60 वर्षों में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर ली हैं । हम एक आर्थिक महाशक्ति बन गए हैं, कंप्यूटर के पुरोधा साबित हो रहे हैं,एटम शक्ति बन चुके हैं । बहरहाल बात को लंबा खींचने से बेहतर है ये कहना कि हममें से कई आत्ममुग्ध हो चुके हैं । गौरतलब है कि आत्ममुग्धता बेहोशी की अवस्था से कहीं खतरनाक चीज है । तो अब मूूल प्रश्न है कि क्या हम वाकई आत्ममुग्धता का शिकार है? क्या हम इतने अंधे हो गए हैं कि हमें सर्वत्र हरा हरा दिखता है ? अनेकों सवाल हैं जो अनेकों लोगों को आक्रांत किये हुए हैं ।
जहां तक मेरा प्रश्न है तो कई लोगों को आधुनिक संचार माध्यमों से इस रह की बातें आप के समक्ष रखने के कारण मैं अहमक भी लग सकता हूं । सही भी है मेरा परिचय आपमें से कई बौद्धिक जनों के समक्ष घुटने भर भी नहीं ठहर सकता । मेरी बौद्धिक,आत्मिक और आर्थिक उन्नती आप लोगों के सामने कुछ भी नहीं है । फिर सवाल ये उठता है कि आप मेरी बातें क्यों पढ़ें ? परन्तु मित्रों सवाल मेरा नहीं ये सवाल इस पूरे देश अथवा समाज का है जो आज नहीं आज से दस वर्षों बाद कभी भी उठाया जा सकता है । जहां तक मेरा प्रश्न है तो वो मैं कुछ पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहा हूं ।
              मैं क्या हूं, मैं कौन हूं !
              मैं राजा या भिखारी कुछ भी हो सकता हूं
              मेरा नाम कुछ भी हो सकता है,
              फर्क नहीं पड़ता,
              मैं एक विचार हूं,जो आपका आक्रांत कर देता है,
              मैं एक सोच हूं जो आपको खुशी से भर देती है,
              मैं एक संभावना हूं जो आपमें जीने की आस जगाती है,
              मैं क्या हूं, मैं कौन हूं
              ये आप सोचिये
              मैं तो बस मौन हूं !
 यहां इन पंक्तियों की प्रासंगिकता सिर्फ इतनी है कि अपने आप को मैं स्वयं नहीं समझ पाया । अगर कुछ समझा तो सिर्फ इतना कि मैं युवा हूं,मुझमें आपमें प्रत्येक युवा में देश को बदलने की क्षमता है । यहां युवा से मेरा आशय है किसी उम्र विशेष से नहीं विचारों से है । जिनके पास कुछ सृजनात्मक विचार हैं,जो लीक से हटकर चल सकें वास्तव में ही युवा हैं । ऐसे युवाओं को समर्पित है मेरा ये संबोधन । जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘ तन समर्पित मन समर्पित, और ये जीवन समर्पित, चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं ।’ सच भी है कि वाकई इस देश के युवाओं ने देश को बहुत कुछ दिया भी है । चाहे भगत  हो या आजाद इन सभी सपूतों ने देश को अपना सम्पूर्ण यौवन दे डाला । इतने बड़े त्याग की उम्मीद क्या उस काल के बूढ़ों से कर सकते हैं । वे लोग जो जेल में अच्छा खाना न मिलने का रोना रोेेते रहे । लेकिन अफसोस आजादी के बाद भी समाज में इन युवाओं की चर्चा न के बराबर हुई । तो क्या उनके प्राणों के कुछ मूल्य न थे? क्या उनका बलिदान इस तिरस्कार के योग्य था जो आज हो रहा है ? दो अक्टूबर को गांधी जयंती की बात तो बच्चा भी जानता है लेकिन भगत सिंह को फांसी कब हुई कितने लोगों को पता है? क्या सरकार का ये दायित्व नहीं है कि इन युवाओं के अभूतपूर्व बलिदान से आमजन को रूबरू कराये ? ऐसे न जाने कितने क्यों हैं जो आज नहीं तो भविष्य में आपके सामने सर उठाएंगे । क्या इनके जवाब आपके पास हैं । आज भी हालात कुछ बदले नहीं हैं । मेरी बातों केा प्रमाणित करते अनेकों पढ़े लिखे बेरोजगार युवा आपको अपने इर्द गिर्द मिल जाएंगे । नौकरी के लिए,पीएचडी के लिए तलवे चाटते हुए । यहां मैं अपने कुछ मित्रों के उदाहरण देना चाहूंगा जो वर्ष 2002 से जेआरएफ और नेट की परीक्षाएं उत्तीर्ण करके आज भी बेरोगार घूम रहे हैं । क्या गलती है इनकी? कोई जवाब है किसी के पास ? थके और हताश ये युवा वास्तव में झंडा ढ़ोने वालों की जमात में शामिल होेते जा रहे हैं । यहां मैं देश के सीमित धनाड्य वर्ग के युवाओं की बात नहीं कर रहा हूं । क्योंकि उनके आदर्श भगत या आजाद नहीं राहुल और अखिलेश यादव होंगे । जिनकी विशेष योग्यता उनका अपने परिवारों में जन्म लेना है । अभी कुछ दिन पहले तक उत्तर प्रदेश अपने सबसे युवा मुख्यमंत्री चुने जाने का जश्न मना रहा था। किंतु सिर्फ छः महीनों में लोगों की ये खुशी काफूर हो गई । हालात ये है कि अब की सरकारों ने लोगों की जेबों पर डाके डाले लेकिन ये युवा तो पूर्ववर्तियों से दो कदम आगे बढ़कर लोगों की नींदोें पर भी डाका डाल बैठा । जब रात भर की बिजली कटौती के कारण लोग सो भी नहीं पाएंगे तो सपने क्या खाक देखेंगे ? अतः अब ये समझ लेना होगा कि देश का विकास इन कुलीन परिवारों में जन्मे तथाकथित युवाओं से न होकर हमसे आपसे होगा । चुनाव आपका है सत्ता में युवाओं की भागिदारी या जीवन पर्यंत कुत्तों की चाटुकारिता । दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां गौरतलब हों: रक्त वर्षों से नसों में खौलता हैं, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है । अंततः मेरा आग्रह सिर्फ इतना है कि हमारी पहचान समग्र रूप से युवा की होनी चाहिए न कि जातियों  के आधार पर और अगर कोई वाद हम युवाओं में हो तो वो सिर्फ राष्टवाद हो ।
                                            जय हिंद जय भारत
                                            सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’