Friday, October 21, 2011

मीडिया का नैतिक पतन : एक विवेचना -सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

                               खींचो न कमानों को न तलवार निकालो,
                              जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो,
                          अकबर ‘इलाहबादी’ की ये पंक्तियाँ मीडिया की तात्कालिक स्थिती का बखूबी वर्णन करती है। स्वतंत्रता संग्राम में पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। उस दौर में पत्रकारों ने अपनी कलम की रोशनाई से राष्ट्र प्रेम की ऐसी अलख जगायी, जिसका परिणाम है ये आजादी। ‘उदन्त मार्तंड’, ‘आज’, ‘प्रताप’ जैसे अनेकों समाचार-पत्र हानि-लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्रसेवा के लिए कटिबद्ध थे, या यूं कहें वो दौर था विशुद्ध पत्रकारिता का। गली-मोहल्ले से निकलने वाले छोटे-छोटे अखबारों में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। तत्कालिन समाचार पत्रों में छपे लेखों ने नौजवानों को सोचने पर विवश कर दिया था। ये हमारे पूर्वजों (पत्रकारों) की विरासत है कि मीडिया की विश्वसनीयता आज भी बदस्तूर कायम है। उस दौर में संपादकाचार्य बाबूराव, विष्णुराव पराणकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रताप नारायण मिश्र, लक्ष्मी शंकर गर्दे, पं. माखनलाल चतुर्वेदी जैसे उत्कृष्ट एवं ओजस्वी पत्रकारों ने अपनी ओजस्वी लेखन से आमजन में राष्ट्रप्रेम के बीज बो दिये थे। जिसकी फसल भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ, राम प्रसार बिस्मिल एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के रूप में देखने को मिली।
मगर आज के परिदृश्य में मीडिया की विश्वसनीयता में धीरे-धीरे ही सही गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। जैसा कि पराडक़र जी ने कहा था कि, आने वाले समय में संपादक, संपादक न होकर एक कुशल प्रबंधक होगा। वास्तव में आज का संपादक मालिक के आर्थिक हितों का कुशलता से प्रबंधन करता है। कभी समाचार पत्र की जान कहे जाने वाले मुखपृष्ठ एवं संपादकीय पृष्ठों पर पूँजीपतियों एवं राजनीतिज्ञों का दखल बढ़ता जा रहा है। प्रथम पृष्ठ पर लगने वाले ‘पुल आउट’ विज्ञापन से लाखों-करोड़ों का वारा-न्यार करने वाले पत्र-मालिकों (पूँजीपतियों) ने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब तो मीडियाकारों ने मुनाफाखोरी की सारी हदें पार दी हैं। प्रिंट मीडिया का नया आविष्कार है, एडवर्टोरियल यानि खबरों के शक्ल में विज्ञापन। ये विज्ञापन आपको अखबार के किसी पन्ने पर अपने विज्ञापनदाता की डुगडुगी बजाते मिल जायेंगे। किसी जमाने में अखबार की शान समझे जाने वाले संपादकीय पृष्ठ पर अब राजनीतिज्ञों या दल विशेष के प्रवक्ताओं की घुसपैठ हो चुकी है। संसद को अखाड़ा बना देने वाले कई लंपट आजकल इस पृष्ठ पर अपनी चाटुकारिता के जौहर दिखा रहे हैं।
ये हाल सिर्फ प्रिंट मीडिया का नहीं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी है। ये कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समस्त नैतिक विचारों को ताक पर रखकर सेक्स, सनसनी और अपसंस्कृति परोसने में मशगूल हो गया है। खबरिया चैनलों में संजीदा खबरों का तो जैसे सूखा पड़ गया है, खबरों की कमी को पूरा करते हैं, छोटे पर्दे के घटिया रियालिटी शो। जो रियलीटी दिखाने के चक्कर में बाथरूम तक कैमरा लगा देते हैं। फिर उठते हैं विवाद, जिन्हें सनसनी बनाकर खबरें ब्रेक करने की जंग छिड़ जाती है।
सेक्स और सनसनीखेज खबर परोसने वाले ये चैनल आम जन या उससे जुड़े सरोकारों से एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। इस संबंध में भारतीय प्रेस परिषद् के नवनियुक्त अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की ये टिप्पणी काबिलेगौर है, मीडिया विशेषकर समाचार चैनल पर बुनियादी मुद्दों की अपेक्षा गैर जरूरी मुद्दों पर ज्यादा समय देते हैं। देश में ८० फीसदी लोग आर्थिक समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन मीडिया का ध्यान बहुसंख्य लोगों के हित संरक्षण पर न होकर, बॉलीवुड या राजनीतिक गलियारों तक सिमट गया है। अन्यथा क्या वजह है किसी सिने तारिका की गर्भावस्था पे पैकेज चलाने का ? जब देश भ्रष्टाचार से त्राहिमाम कर रहा हो, तो क्या जगह बनती है शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी पर चर्चा करने की ? रजिया के गुंडों में फँसने पर बड़ी स्टोरी बनाने वाले ये मीडियाकर भूल जाते हैं, गाँवों में शोषण का शिकार होने वाली लाखों लड़कियों को। अगर भूले से भी नारी शोषण पर कोई स्टोरी भी की, तो उसका प्रस्तुतीकरण बेहद सनसनीखेज होता है। कौन भूल सकता है, आरूषि कांड जिसमें मीडिया ने आरूषि के पिता को दोषी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी? ऐसे एक नहीं अनेकों प्रसंग मिल जाएंगे, जहां धर्म विमुख पत्रकारों ने पत्रकारिता की कलुषित ही नहीं कलंकित भी किया है। नारी हितों का दम भरने वाले मीडिया घरानों में नारी का शोषित होना अब आम बात हो गयी है।
क्या आम आदमी मीडिया की पहँच से दूर हो गया है ? अक्सर ये सवाल उठाया जाता है, और सच भी है देश की ७५ फीसदी जनता की बुनियादी समस्याओं से आँख फेर चुकी है भारतीय मीडिया। ऐश्वर्या राय के बढ़ते पेट पर नजर रखते-रखते मीडिया आम जन से जुड़ी समस्याओं पर नजर नहीं रख पा रहा है। आश्चर्य की बात है, बढ़ती महँगाई बेखौफ भ्रष्टाचार और आत्महत्या करने वाले किसानों की खबरें अब खबरिया चैनलों की सुखर््ियों से दूर होती जा रही हैं। लैक्मे इंडिया फैशनवीक को कवर करने के लिए जहाँ ५१२ मान्यता प्राप्त पत्रकार पहँुच जाते हैं, वहीं गरीबी से त्रस्त परिवार के सामूहिक आत्मदाह पर चुप्पी साध लेते हैं।
टी.आर.पी. और विज्ञापन की होड़ में शामिल ये खबरिया चैनल भूला बैठे हैं, नैतिकता और आदर्शों को। सास बहू और साजिश या राखी का इंसाफ अब प्रमुखता से दिखाये जाने वाले न्यूज कंटेंट का हिस्सा बन गया है। उस पर ब्रेकिंग खबरें, राखी तोड़ेंगी बाबा का ब्रह्मचर्य, क्या साबित करती हैं? जो दिखता हे वो बिकता है कि तर्ज पर चलते हुए, मीडिया के ठेकेदार भूल गए हैं पत्रकारिता का धर्म। क्या छोड़े, क्या दिखायें नहीं अब चर्चा होती है, क्या न दिखायें। अत: खबरिया चैनलों पर बिग बॉस सरीखे दर्जनों फूहड़ रियलीटी शो को परोसने की होड़ मची रहती है। इन शोज में आधे-अधूरे कपड़ों में निहायत भद्दा प्रस्तुतिकरण देने वाली कन्याओं से क्या नारी की अस्मिता पर प्रश्र चिन्ह नहीं लगता ? कपड़ों की तरह ब्वायफ्रेंड बदलने वाली सिने तारिकाएँ क्या भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व के योग्य हैं ? लिव इन रिलेशनशिप पर बिंदास बोलने वाली बालाएँ क्या शोषित हो सकती हैं ?
जवाब हमेशा न ही होगा, मगर फिर भी इन मॉडर्न गल्र्स के ‘कास्टिंग काउच’ के किस्से सुर्खियों में बने रहते हैं। राखी को न्यायाधीश मान बैठे ये खबरनवीस भूल गए हैं, न्याय की परिभाषा। न्याय की कीमत किसी निर्दोष की जान तो कभी नहीं हो सकती, लेकिन गंदा है पर धंधा है ये।
अब सवाल ये है कि निरंकुश मीडिया की लगाम कौन कसेगा। इसके तीन रास्ते हैं, पहला सरकार या सेंसर बोर्ड इनके कंटेट्स पर निगाह रखे और आवश्यकता पडऩे पर जुर्माना एवं लाइसेंस रद्द करने के आवश्यक कदम उठाये। दूसरा मीडियाकर अपने स्व-विवेक से राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप अपना प्रस्तुतिकरण करें, जिसमें संपूर्ण राष्ट्र के बहुसंख्यक वर्ग का हित चिंतन सम्मिलित हो। तीसरा और अंतिम विकल्प है, दर्शक ऐसे चैनलों का निषेध करें जो पीत पत्रकारिता में संलग्र है। अंतत: रोजाना उठने वाली इस बहस का परिणाम चाहे जो भी हो, पर इस बहस ने बट्टा लगा दिया है मीडिया के चरित्र पर। मिशन से होकर प्रोफेशन तथा अंतत: सेनसेशन और कमीशन के फेर में उलझी हमारी पत्रकारिता, पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास का प्रतिनिधित्व तो कतई नहीं करती। अंतत: मीडिया शुद्धिकरण की ढ़ेरों आशाओं के साथ सिर्फ ये ही कह पाउँगा -
                       अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार।
                         शब्द नंगे हो गये शोहरत भी गाली हो गयी।।


 (लेखक हिन्दुस्थान समाचार में उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं।)
          अंधेरा धरा पे कहीं रह ना जाए: सिद्घार्थ मिश्र, स्वतंत्र
प्रकाश पर्व दीपावली एक उत्सव है, प्रकाश की अगवानी का। कार्तिक मास में मनाया जाने वाला यह पर्व भारतीय मिमांसा एवं चिंतन में विशिष्ठ स्थान रखता है। इस पर्व के महत्व को इस श्लोक से भली-भांति समझा जा सकता है -
                               असतो मा सद्गमय
                              तमसों मा ज्योतिर्गमय
                              मृत्योमामृतं गमय।।
  अर्थात्, मुझे असत्य से सत्य की ओर से ले चलो, ये पर्व भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है। इस पर्व के ठीक ष्० दिन पहले मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने विजयदशमी के दिन रावण का वध किया था। श्लोक के अर्थ में देखें तो सत्य ने असत्य पर विजय पायी थी। अत: इस पर्व में ‘सत्यमेव जयते’ की महता आज भी प्रतिपादित होती है। द्वितीय पंक्तियों में कहा गया है, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। माना जाता है कि विश्व का सबसे गहन अंधकार है अज्ञान। अत: प्रतीकों के माध्यम से इस पर्व के उपलक्ष्य पर ज्ञान रूपी दीपक के माध्यम से, अज्ञान रूपी अंधकार का शमन आज भी किया जाता है। अंतिम पंक्तियों में, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलने की बात कही गयी है। मानव जीवन को प्रारंभ से ही क्षणभंगुर माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित समय सीमा के लिए जन्म लेता है, और अंतत: मर जाता है। अत: मनुष्य के जीवन-मरण के इस चक्र से छूटने की प्रक्रिया की अमरता कहते हैं। यहाँ अमरता से आशय हजार वर्षों के जीवन से न होकर, वैचारिक अमरता से है। उदाहरण के लिए यदि हम मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्रीराम के जीवन चरिष पर गौर करें तो मनुज रूप में जन्म लेने के बाद भी अपने कृतित्व एवं धार्मिक आचरण के फलस्वरूप आज भी जीवित हैं। आज भी उनकी विजय को धर्म की विजय मानकर, राम लीला का मंचन किया जाता है। उनके गृह आगमन की प्रसन्नता में हम दीये जलाकर प्रतिवर्ष ‘दीपावली’ को हर वर्ष प्रकाश पर्व के रूप में मनाते हैं !दीपावली एवं मां सरस्वती का आपस में गहरा संबंध है। इस संदर्भ में कविवर निराला की ये पंक्तियां आज और भी प्रासंगिक हो गई हैं:-
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योर्तिमय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे
वर दे वीणा वादिनी वर दे
 वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में मनुष्य अनेकों व्याधियों एवं दु:श्चिंताओं से जूझ रहा है। आज मनुष्य के जीवन का मूल्य कीट पतंगों के जीवन सदृश हो गया है। गहन झंझावातों से जूझ रही मानव सभ्यता पे आतंकवाद, नक्सलवाद, भाषावाद आदि का ग्रहण लग गया है। यदि समग्र रूप से इन समस्याओं का अध्ययन करें तो इनका अस्तित्व अज्ञान से जुडा हुआ है। अत: निराला ज्ञान की अधिष्ठाषी मां सरस्वती से अज्ञान के अंधकार के शमन की प्रार्थना कर रहे हैं। अज्ञान से घिरा मनुष्य चहुंओर अंधकार की कालिमा से जूझकर हिंसक एवं विवेक शून्य हो गया है। अत: आज के परिदृश्य में ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य हो गयी है। जिस प्रकार अंधेरे कमरे में रखा एक दीपक चहुंओर उजाला भर देता है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक मानव चित की समस्त दुर्बलताओ का नाश करके मनुष्य के मन-मस्तिष्क में आशा, दृढता एवं सात्विक विचारों का संचार करता है। विश्व की तमाम समस्याओं के मूल में छिपा है, मानव मन का अज्ञान। इसी अज्ञान के कारण ही भाषा, सीमाएं, जातियों एवं धर्म के आधार पर मनुष्य का निरंतर पतन होता जा रहा है। अन्यथा ईश्वर ने अपनी ओर से तो विभाजन की कोई रेखा नहीं खींची है। हमारे भारतीय चिंतन में कहा भी गया है।

‘‘वसुधैव कुटुंम्बकम’’ अर्थात् इस वसुंधरा पर निवास करने वाला प्रत्येक प्राणी हमारे परिवार का हिस्सा है। यहाँ प्रत्येक प्राणी में, जीव-जंतु, पेड-पौधे भी सम्मिलित हैं। इसीलिए हमारी प्राचीन मान्यताओं में वृक्षों, जीवों, नदियों को भी पूज्यनीय बताया गया है। वैज्ञानिक आधार से भी देखें तो पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक जीव की अपनी उपादेयता है, इसी को पारिस्थितिक तंष (ईको
सिस्टम) कहते हैं। मनुष्य ने अपने क्षणिक लाभ के लिये पर्यावरण में जो भी परिवर्तन किये, उनका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। ग्लोबल वार्मिंग, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण जैसी समस्याओं ने मानव जीवन को विशाक्त बना डाला है। प्रदूषित पर्यावरण, अनुचित आहार-विहार के कारण मानव जाति निरंतर पतनोन्मुख होती जा रही है। पर्यावरण के साथ छेड-छाड के फलस्वरूप नयी-नयी व्याधियों ने मानव जीवन को जकड लिया है, और मनुष्य असमय ही काल के गाल में समा रहा है।
अत: अब हमें ये स्वीकार करना ही होगा कि मनुष्य का समग्र विकास पर्यावरण की अनदेखी करने से नहीं हो सकता है। इसीलिए प्रत्येक वर्ष उत्सव मनाते समय हमें पर्वों के साथ जुडे संदेशों को भी समझना होगा। दीपावली हमारे देश का महापर्व है, तो इसे अशांत एवं प्रदूषित करने से क्या लाभ है। ध्यान देने वाली बात है कि प्रतिवर्ष इन्हीं पटाखों से लाखों टन जहरीली गैसों का रिसाव होता है। यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि कई बार आतिशबाजी से अनेकों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। इन समस्याओं को देखते हुए क्या पटाखों का प्रयोग करना उचित होगा ? इस समस्या को दूसरे पहलू से देखें तो पाएंगे कि एक ओर हम पटाखे जलाकर पैसों का दहन करते हैं, तो दूसरी ओर अनेकों लोग भूख-प्यास से लड रहे होते हैं। क्या हम इन पैसों का उपयोग इन गरीब एवं असहाय लोगों के हित में नहीं कर सकते ? वैसे भी ‘दीपावली’ हम प्रभु श्रीराम के गृह आगमन के हर्ष में मनाते हैं। प्रभु के राज्य को ‘राम-राज्य’ कहा जाता था। उनके राज्य में चहुंओर संपन्नता एवं प्रसन्नता व्याप्त थी। अत: हमें अपने चारों और रहने वाले लोगों की प्रसन्नता को ध्यान रखकर, इस दीपावली पे ‘राम-राज्य’ को चरितार्थ कर सकते हैं।
कहा गया है कि ‘संकल्प’ का कोई विकल्प नहीं होता। आइए इस दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं शांतिपूर्वक मनाने का संकल्प लें। हमारे संकल्प में यदि गरीब, असहाय एवं वृद्घों को भी स्थान मिले तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। कहा भी गया है कि ‘खुशियां बांटने से बढती हैं।’ अत: आइए खुशियां एवं प्यार बांटकर इस पर्व पे ‘राम-राज्य’ की परिकल्पना को साकार करें।
अंतत: कविवर गापेल दास नीरज की इन पंक्तियों में प्रकाश पर्व की महत्ता को समझने का प्रयास करें :-
‘‘जलाओ दिये मगर ध्यान रहे इतना
अंधेरा धरा पे कहीं रह न जाए’’
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार में उपसंपादक के पद पर कार्यरत हैं)
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आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर मिले आरक्षण

अभी कुछ दिनों पूर्व योजना आयोग की रिर्पोट ने हंगामा खड़ा कर दिया है। लोग सोचने पर विवश हैं क्या ३२ रूपए पर्याप्त हैं, व्यक्ति की रोजमर्रा के खानपान और जरूरतों के  लिए । इस अल्प राशि में क्या खाएं क्या न खाएं, सोचकर लोगों का दिमाग भन्ना गया है। पत्रकारों और अन्य विशेषज्ञों को बैठे बिठाए चर्चा का नया विषय मिल गया है।

खैर चर्चा का सार चाहे जो भी हो पर ३२ रूपए की इस अल्प राशि से गरीबों का कोई भला नहीं हो सकता। ये तो उपहास है गरीबी की दुरूह परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाले करोडा़ें लोगों का। नीयति से निराश और भ्रष्टाचार की भेंट चढेें़ इन आम लोगों का भला योजना आयोग की इस रिपोर्ट से तो कत्तई नहीं हो सकता। जहां तक गरीबी का प्रश्र है तो आजादी के बाद इस विषय पर व्यापक चर्चा कभी नहीं हुई। अगर कुछ चर्चाएं हुई भी तो उनका अंजाम इसी तरह बचकाना ही हुआ। वयस्क तो दूर की बात है, अगर एक छोटे बच्चे के दृष्टिकोण से भी इस विषय पर गौर करें तो ३२ रूपए की ये अल्प राशि अपर्याप्त है। यहां ये पंक्तियां काबिलगौर हैं।

स्वार्थ सिंधु में तैरते मगरमच्छ के बाप
जनता मछली कर रही अपने नाश का जाप

‘‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’’ इस नारे की को उछालकर सत्ता में आई कांग्रेस ने सबसे अधिक शोषण आम आदमी का ही किया है। पोषण वैज्ञानिक सुखात्मे की अवधारणा,‘ शहरों में २४०० तथा गांव में २१०० कैलोरी का इस्तेमाल जीवन हेतु आवश्यक है ’ को यदि मानक मानकर देखें तो कहां से मिलेगी जीवनोपयोगी आवश्यक कैलोरी? आलीशान होटलों में मंहगी शराब गटकने वाले ये माननीय क्या जानेगें गरीबों का दर्द ? इस बारे में यदि सत्य का अन्वेषण करना है तो हमें मिलना होगा पांत के उस आखिरी आदमी जिस तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो जाती है रोटियां। जिनके लिए चिकन या कबाब नहीं रोटियां भी हैं एक सुनहरा ख्वाब। मगर अफसोस पांत में बैठे उस आखिरी उपेक्षित आदमी की भूख से किसी को कोई सरोकार नहीं है। ये भूख क्या उसे हिंसक नहीं बना नहीं सकती? एक कहावत है ‘मरता क्या न करता’। सरकार की ये विध्वंसक नीतियां प्रेरित करती हैं हिंसक बनने के लिए। अन्यथा क्या वजह हो सकती है २७  रूपए के लिए कत्ल करने की। और उस चल जाती है चटपटी स्टोरी,खबरिया चैनलों के मंदबुद्धि एंकर अजीबोगरीब मुखमद्रा बनाकर परोसते हैं खौफ । अंतत: उपेक्षित रह जाते हैं गरीबी के मौलिक प्रश्र।

ऐसा नहीं है कि देश कं गाल हो गया हैं,हमारी खरबों डालर की काली कमाई सड़ रही है स्विस बैंक में। पैसा केंद्रित हो गया है एक जगह मतलब जो पहले से अमीर थे वो उद्योगपति बन गए और जो उद्योगपति थे वे पहुंच गए विश्व के शीर्ष धनाड्यों में । अनिल व मुकेश अंबानी बंधुओं के विश्व के शीर्ष में शुमार होने पर तो दर्जनों कवर स्टोरियां तैयार हो जाती हैं,मगर बंधुआ मजदूरी करने वालों की जीवनशैली पर कलम चलाना मुनासिब नहीं समझा जाता है।चहुंओर निराशा से घिरे ये लोग अगर नक्सली नहीं बनेंगे तो क्या संत नामदेव बनेंगे? मगर कौन समझाये सत्ता के शीर्ष पर बैठे इन उल्लुओं को? कहा भी जाता है--

‘बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है,
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा जहां हर शाख पे उल्लू बैठा है’

दिन रात अंधकार से घिरे इन उल्लुओं से प्रकाश की उम्मीद करना क्या लाजिमी होगा ?परंतु दु:ख की बात है,गरीबी की गलियों में भटके भारत के ग्रामीण आज भी जाति,धर्म,संप्रदाय,भाषा के नाम पर इन तथाकथित राजनेताओं का राजनीतिक उल्लू सीधा करते आ रहे हैं। रही सही कसर पूरी कर दी है,आरक्षण की धधकती आग ने । इतिहास गवाह है चुनाव के खेल में आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है,सरकार बनाने और गिराने का । जहां तक आरक्षण से भला होने का प्रश्र है तो सबसे बड़ा लाभ हुआ है, ये मुद्दा भुनाने वाले नेताओं का । हाल ही में ६७५ करोड़ की लागत से दलित स्मारक के नाम अपनी आदमकद मूर्ति लगनाने वाली मायावती इस आरक्षण की राजनीति की ही उपज हैं। दलित राजनीति से शीर्ष पर पहुंची मायावती के राजसी ठाट बाट अब किसी से छुपे नहीं है। जीते जी अपनी मूर्ति बनवाना हो या हाथी की मूर्तियां बनवाना,ये काम बड़ी बेशर्मी से सिर्फ  वही कर सकती हैं। विचारणीय प्रश्र है कि इन मूर्तियों से दलित या उपेक्षित वर्ग को क्या लाभ मिला? कितने लोगों की रोजी-रोटी की समस्या दूर हो गई इस अशोभनीय कार्य से?मगर कोई किसी को कुछ भी कहने की हालत में नहीं है। बहरहाल देश की दुर्दशा को देखते हुए ये पंक्तियां आज और भी प्रासंगिक हो गई हैं

  ‘अंधेर नगरी चौपट राजा,
  टके सेर भाजी टके सेर खाजा’

जी हां राष्ट्र की वर्तमान दशा साफ तौर पर इन पंक्तियों में परिलक्षित होती है। दलित चिंतन के आधार पर सत्ता में आयी मायावती ने अब चुनाव के ठीक पहले गरीब सवर्णों को आरक्षण दिलाने का एक नया चुनावी शिगुफा छोड़ा र्है। अगर वास्तव में वे सर्वजन के हित में सोचती हैं, तो चुनाव आने से पहले उनकी ये सदबुद्धी कहां थी?मोदी को टोपी पहनाने के फेर में जुटी कांग्रेस कौन जाने कल ,आतंक का पर्याय बन चुके संजरपुर को राजनीतिक तीर्थ घोषित कर दे ? किसी की आलोचना से पूर्व हमें उसके विकास कार्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए,क्योंकि ये पब्लिक है सब जानती है।  अब आमजन को मतदान से पूर्व ये समझ लेना चाहिए कि गरीबी,भूखमरी किसी जाति,धर्म या संप्रदाय से संबंधित नहीं होती। अत: अगले चुनावों में हमें इन सभी बाध्क तत्वों को बहिष्कृत कर नए सिरे से नव भारत के निर्माण का संकल्प लेना होगा। हमें बनाना होगा सपनों का वो भारत जहां गरीबी,बेरोजगारी या आरक्षण की सतही राजनीति न होकर  आशा एवं समता का संचार होगा। हमें ये समझना ही होगा लोकतंत्र व राजतंत्र के मध्य छुपा अंतर । ‘सत्यमेव जयते ’ को मानक वाक्य मानकर आइए सृजन करें एक नए भारत का जहां सभी के लिए समान अवसर व संभावनाएं हों । राजनीतिक क्षुद्रता से दूर बहुत दूर.........

सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

 

Wednesday, October 19, 2011

भ्रष्टाचार और बड़बोलेपन की शिकार कांग्रेसनीत यूपीए सरकार

अन्ना हजारे द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना उग्र रूप धारण कर लेगा यह शायद ही किसी ने सोचा होगा। वर्तमान में यूपीए सरकार चारों तरफ से भ्रष्टाचार के आरोप में घिरती दिखाई दे रही है। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में वित्त मंत्रालय के नोट ने ये साबित कर दिया है कि, इस घोटाले की जानकारी प्रधानमंत्री समेत तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम् समेत सभी को थी और कहीं न कहीं सरकार के बड़े नेता भ्रष्टाचार में संलग्र हैं। स्पेक्ट्रम घोटाला ही क्यों अपने सात वर्षों के कार्यकाल में यूपीए सरकार ने भ्रष्टाचार की एक नई परम्परा की शुरूआत की है। राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाला, आईपीएल घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला, सांसदों की खरीद फरोख्त समेत अनेकों मामले ऐसे हैं जो यह साबित करते हैं कि यूपीए सरकार आकंठ घोटालों में संलिप्त रही है। उस पर प्रधानमंत्री की मासूम टिप्पणी, कि मुझे चिदम्बरम् की विश्वसनियता पर कोई शक नहीं है और न्यायपालिका अपने दायरे में रहकर कार्य करे, क्या साबित करती है ?

खैर जो भी हो कमर तोड़ मंहगाई से जूझ रही जनता के समक्ष अब केन्द्र सरकार की विश्वसनीयता तार-तार हो गई है। स्पेक्ट्रम घोटाले का सच उजागर होने के बाद भी पी.चिदम्बरम् की तरफदारी कर रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी भी अब संदेह के घेरे में आती जा रही है। 1.75 लाख करोड़ के स्पेक्ट्रम घोटाले पर बीते बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम् की भूमिका पर भी सवाल उठाये थे। सोचने वाली बात है कि इतना बड़ा घोटाला दयानिधि मारन और ए.राजा क्या अपने दम पर कर सकते हैं ? इस सन्दर्भ में वर्तमान वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के पत्र ने सत्ताधीशों के आपसी मिली भगत को सामने ला दिया है। अपने पत्र में उन्होंने यह कहा है कि अगर चिदम्बरम् चाहते तो वो स्पेक्ट्रम की नीलामी करा सकते थे। ज्ञात हो टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन को लेकर चार बैठकें हुई थीं, इनमें से अंतिम बैठक में ए.राजा के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे। ये बाते इस ओर इशारा कर रही है कि प्रधानमंत्री भी इस घोटाले से अनभिज्ञ नहीं थे। बीते लोक सभा चुनावों में मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहे जाने से आहत मनमोहन सिंह क्या अब सशक्त प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं ? उनके एक नहीं अनेकों निर्णय यह साबित करते हैं कि सत्ता की डोर उनके हाथ में न होकर किसी और के हाथ में है। अन्यथा क्या केन्द्रीय सर्तकता आयुक्त के पद पर किसी दागी की नियुक्ति कोई ईमानदार प्रधानमंत्री कर सकता है। वास्तव में कांग्रेस पार्टी की सत्ता प्रारंभ से दस जनपथ से चलाई जाती रही है, और गांधी परिवार के निर्णय ही सर्वमान्य होते हैं। एक लोकतांत्रिक देश को चलाने के लिये ऐसी पार्टी की आवश्कता होती है, जो स्वत: लोकतंत्र में विश्वास करती हो। मगर अफसोस सत्ता के शीर्ष पर बैठी कांग्रेस प्रारंभ से गांधी परिवार का अपना पालनहार मानती आ रही है, और उन्हीं के इशारे पर नाचती रही है। स्व. अर्जुन सिह जीवन पर्यन्त गांधी परिवार की खुशामद में बयानबाजी करते रहे, उनका स्थान अब दिग्विजय सिंह ने ले लिया है। दिग्विजय जी गाहे-बगाहे अमर्यादित टिप्पणीयाँ करके सुर्खियों में बने रहते हैं, चाहे वो भगवा आतंकवाद के विरूद्ध हो, अथवा अन्ना हजार जैसे उत्कृष्ट समाजसेवी के विरूद्ध हो। वैश्विक स्तर पर भगवा आतंकवाद उनकी ही खोज है, इसके अलावा सिमी और संघ की तुलना भी सिर्फ वही कर सके हैं। पूरा विश्व जब तालिबान प्रायोजित आतंकवाद को कोस रहा था तो उन्हें भगवा आतंकवाद का डर सता रहा था। उनकी प्रशंसा में मुझे यह पंक्तियां याद आ रही हैं जो काबिले गौर हैं।

कैसी है ये त्रासदी, कैसा है संयोग
लाखों में बिकने लगे, दो कौड़ी के लोग

पहले आतंरिक सुरक्षातंत्र की विफलता का सेहरा चिदम्बरम् के सिर बांधने वाले दिग्विजय जी आजकल उनकी तरफदारी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘‘भाजपा चिदम्बरम् के पीछे सिर्फ इसलिये पड़ी है, क्योंकि वह संघी आतंकवाद के विरूद्ध कार्रवाई कर रहे हैं।’’

अब सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार के दल-दल में आकंठ डूबी यूपीए सरकार के ये कद्दावर ध्वजवाहक  क्या किसी पर उंगली उठाने लायक हैं। जवाब है नहीं, लेकिन देखने वाली बात यह है कि बड़बोलेपन का शिकार इन कांग्रेसी नेताओं की मति कब सुधरेगी। कल तक वैश्विक स्तर पर सर्वमान्य भारत की गिनती अब भ्रष्टाचारी राष्ट्र के रूप में होने लगी है। इसका सीधा असर प्रधानमंत्री की वांशिगटन यात्रा में देखने को मिला है। आखिर कब तक धर्म, उन्माद और तुष्टिकरण की राजनीति करते रहेंगे ? कब तक शहीदों के बलिदान को धिक्कारा जाता रहेगा? कब तक पाला-पोसा जाता रहेगा आतंकवाद और तुष्टीकरण को? अफजल गुरु और कसाब को धर्मान्ध कठमुल्लों की खुशी के लिए बचाने वाले ये कतिपय लोग क्या राष्ट्रद्रोही नहीं है? देश की आम जनता के विकास में बाधक ये भ्रष्टाचारी कब तक लूटते रहेंगे इस देश को? कब होगी कार्रवाई कालाधन स्विस बैंक में जमा करने वालों के विरुद्ध?

अनेकों प्रश्न है जो प्रत्येक भारतीय के मन को कचोटते रहते हैं। क्या यही मूल्य है भगत, आजाद सरीखे क्रांतिकारियों की कुर्बानी का? कहीं नक्सलवाद की समस्या, कहीं इस्लामी आतंकवाद की समस्या, कश्मीर से कन्याकुमारी चहुंओर समस्याएँं मुंह बाए खड़ी है। उस पर कमरतोड़ महँगाई ने अर्थशास्त्र विशेषज्ञ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता पर निश्चित रूप से सवालिया निशान लगा दिए है। अब वक्त है ये सोचने का कि क्या हमारा भविष्य इस सरकार के हाथों में सुरक्षित है? अंतत:

न संभलोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्ताँ वालों,
तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी जहाँ की दास्तानों में