Tuesday, October 30, 2012

झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

शीर्षक पढ़कर हैरान होने की जरूरत नहीं है । वास्तव में ये वर्तमान राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का सही आकलन है । माननीय मनमोहन जी के हालिया मंत्रीमंडल में किये गये फेरबदल पर नजर डालें तो पाएंगे कि आज के राजनीतिक सरोकार नैतिकता के विलोम होते हैं । वर्तमान सरकार द्वारा किये गये अब तक के सब से बड़े उलटफेर में  सात केबीनेट मंत्रियों सहित 22 मंत्रियो की कुर्सियों की अदला बदला हो गयी । भ्रष्टाचार,महंगाई सहित कई संगीन आरोपों से जूझ रही सरकार के ये कदम किस ओर इशारा करते हैं । बहरहाल इस फेरबदल को विगत आठ वर्षों से मौन मोहन,अंडर एचीवर समेत विभिन्न उलाहनों से जूझ रहे प्रधानमंत्री की चुप्पी तोड़ने के तौर पर भी देखा जाना चाहिये । ध्यातव्य हो कि मनमोहन ने ऐसे समय अपनी खामोशी तोड़ी जब आम आदमी सरकार के प्रति अपना विश्वास पूरी तौर पर खो चुका है । तथ्यों का अगर और ध्यान से निरीक्षण किया जाये तो ये फेरबदल वास्तव में जनता का ध्यान भ्रष्टाचार और घोटालों से हटाकर अन्यत्र लगाने के लिये उठाया गया कदम ही है । ऐसा ही कदम उन्होने पूर्व  में एफडीआई की स्वीकृति और पेटोलियम पदार्थों के दाम में वृद्धि लाकर किया था । इसका नतीजा भी सभी के सामने है । कोल गेट मामले में सरकार की खिंचाई कर रहे लोगों ने महंगाई और घरेलू बजट पर चर्चा शुरू कर दी ।
उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर देखें तो ऐसा अवश्य लगता है कि इस सरकार का रुख लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह निरंकुश हो गया है । अर्थात जनता जर्नादन मेरे ठेंगे पर, आपको बुरा लगता है तो लगता रहे हम अपने फैसले करने को पूरी तरह आजाद हैं । वास्तव में कांग्रेस का यही विद्रोही तेवर जनता के सिरदर्द का सबब बना हुआ है । गौरतलब है कि वर्तमान में राबर्ट वढ़ेरा के मामले पर घिरी सरकार ने ये फेरबदल के कदम उठाकर लोगों का ध्यान एक बार फिर दूसरी ओर मोड़ दिया है । वस्तुतः चर्चा का विषय अभी रार्बट को मानकों की अनदेखी कर क्लीनचिट देना या उनके बचाव में समस्त मंत्रियों के उतरने पर होनी चाहिये थी । इन मामलों में कमाल का है मनमोहन जी का मैनेजमेंट,तभी तो अपने शासन काल में उन्होने इतने बड़े घोटालों का सृजन किया । पहले घोटाले फिर खुलासे और अंततः तुगलकी फैसलों से चर्चा का रुख बदलना । वास्तव में क्या यही होते हैं प्रधान मंत्री के दायित्व ? उस पर कांग्रेसियों का तुर्रा कि प्रधानमंत्री ईमानदार हैं । भाड़ में जाये ऐसी ईमानदारी जिसकी ओट में लोकतंत्र पे कालिख पोती जाय ।
विचारणीय प्रश्न है कि हालिया हुए इस फेरबदल से लोकतंत्र का कितना भला होगा ? जवाब हमेशा ना में मिलेगा वास्तव में इस तरह के फेरबदल के पीछे प्रधानमंत्री की मंशा कुछ और थी । प्रथम दृष्टया इस फेरबदल के द्वारा प्रथम परिवार के प्रति वफादारी दिखाने वालों को पुरस्कृत किया गया है । ध्यान दीजीयेगा केजरीवाल जी के राबर्ट वाले खुलासे के बाद मनीष तिवारी और सलमान खुर्शिद की भूमिका । अंततः उन्हे वफादारी का पुरस्कार भी मिला । भ्रष्टाचार की मांग को लेकर गडकरी की थुक्का फजीहत और नैतिकता की दुहाई देने वाले कांगेसी नेता खुर्शिद जी या श्रीप्रकाश जी के मामले में नैतिकता क्यों नहीं दिखाते ? वास्तव में ये कांग्रेसी दोमुहेपन की पराकाष्ठा है । ये लोग एक ओर तो गडकरी को नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने की बात करते हैं तो दूसरी ओर खुर्शिद जैसे दागियों का संरक्षण भी करते हैं । इस मामले में काबिलेगौर बात ये भी है कि हवाला मामले में नाम आने के बाद आडवाणी जी द्वारा नैतिकता के आधार पर दिये गये इस्तिफे से भी सबक ले सकते हैं । इस फेरबदल में बात सिर्फ संरक्षण की ही नहीं है,वरन हालिया भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे खुर्शिद को तरक्की भी दे दी गयी । खैर ये इस तरह का पहला मामला नहीं है इसके पूर्व भी असफल मंत्री सुशील शिंदे को इस तरह का प्रमोशन दिया गया है । अब विचारणीय प्रश्न है कि इस फेरबदल के मायने क्या हैं ? ये निर्णय भ्रष्टाचार और दागियों से निजात पाने के लिये नहीं लिया गया क्योंकि अगर सुबोधकांत सहाय को हटाया गया तो श्री प्रकाश जायसवाल और पी चिदंबरम जैसों का अपने पदों पर बना रहना क्या दर्शाता है ?
मनमोहन जी की चुप्पी इस तरह टूटने का आभास किसी को भी नहीं था । अपने हालिया तुगलकी फैसलों में जहां उन्होने ठीक ठाक काम रहे मंत्रियों को दंडित किया तो आरोपियों को मलाई काटने के लिये बड़े पद भी दे डाले । उनके इस निर्णय को एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री के निर्णय के तौर याद नहीं किया जा सकता । इस मामले में सरकार की सबसे ज्यादा निंदा हुई है जयपाल रेड्डी को हटाने से । जानकारों के अनुसार सरकार ने ये फैसला रिलायंस के दबाव में लिया है । खैर उनकी जगह आये मोइली जी ने आते ही तेल के दामों में वृद्धि के आसार दिये तो दूसरी ओर मनमोहन जी के बेहद करीबी माने जाने वाले पवन बंसल जी ने रेल मंत्रालय संभालते ही रेल भाड़ों में वृ़िद्ध की बात कही । अब इन मंत्रियों की अल्प बुद्धि से महंगाई का निराकरण होता तो नहीं दिखता । जहां तक महंगाई से निपटने का प्रश्न है तो ये सीधे सीधे वित्त और कृषि मंत्रालय से जुड़ा मामला है लेकिन अफसोस है कि ये मंत्रालय अब भी पुराने निजामों द्वारा संचालित होंगे । अतः सरकार के इस निर्णय को जनहित से जोड़कर तो नहीं देखा जा सकता । हां इस निर्णय में सरकार के चुनावी स्वार्थ अवश्य छिपे हैं । यथा बीते चुनावों के प्रदर्शन के आधार पर आंध्र प्रदेश के 11 सांसदों को मंत्रीमंडल में स्थान मिलना । ये वास्तव में अपने आप में एक अनोखी घटना है । इसे जगन रेड्डी के बगावत को कुचलने के कदम के तौर पर समझा जा सकता तो गुजरात के सांसद को मंत्रीमंडल में शामिल करने की मुख्य वजह है गुजरात का आगामी विधानसभा चुनाव । इसी प्रकार की सोच चंद्रेश कुमारी को मंत्रीमंडल में शामिल करने के पीछे भी है । सरकार उनके कांगड़ा कनेक्शन का फायदा आगामी हिमाचल विधान सभा चुनावों मंे उठाने को आतुर है । उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अगर देखें तो सरकार का ये निर्णय वास्तव मंे मनमोहन जी की कुशल मैनेजमेंट क्षमता का एक और प्रमाण है । अन्यथा क्या वजह हो सकती है बिहार,मध्य प्रदेश,झारखंड,ओडि़सा समेत विभिन्न पूर्वोत्तर राज्यों की अनदेखी की? अंततः अगर निष्कर्षों की बात की जाये तो ये मनमोहन जी की ये कोशिश सरकार की गिरती साख को बचाने का एक और नाकाम कदम ही माना जायेगा । यदि सरकार के जनता के प्रति संदेश की बात करें तो ये सिर्फ इतना है कि झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला ।

Saturday, October 27, 2012

भाजपा को अकेले ही चलना होगा: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

भाजपा की वर्तमान दशा को देखते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर का एक गीत याद आ गया ।‘जोद़ी तोर डाक शुने कोई ना अशे तोबे एकला चलो रे’ अर्थात जब लोग तुम्हारी आवाज को अनसुना कर दे ंतो तुम अकेले चलो ।राजनीति के ताजा घटनाक्रम को अगर ध्यान से देखा जाये तो ये पंक्तियां वास्तव में भाजपा के लिये और भी प्रासंगिक हो उठती हैं । आज के हालात वस्तुतः भाजपा के लिये अकेला चलने का संदेश दे रहे हैं । इस पार्टी के पुराने इतिहास को देखते हुये ये सही भी है । भाजपा के दिग्गज नेता स्व दीन दयाल उपाध्याय की एक पुस्तक ‘पालीटिकल डायरी’ पढ़ रहा था । इस पुस्तक में उन्होने साफ तौर पर कहा कि  जन सरोकारों और देश के मुद्दों से अनभिज्ञ होकर सरकार चलाने के बजाय हम ताउम्र विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे । वस्तुतः इन्ही वाक्यों से पार्टी के वैचारिक उर्वरता को परखा भी जा सकता है । इस मुद्दे की उपेक्षा कर वाजपेयी सरकार का हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । राम मंदिर के नाम पर सत्ता में आने के बाद पार्टी का राम के प्रति किया गया विश्वासघात भी आम जन से छुपा नहीं है । ऐसी रीढ़विहीन और मौकापरस्त राजनीति की बजाय अगर वाजपेयीजी ने पूर्ण बहुमत ना होने की बात कहकर त्याग पत्र दे दिया होता तो शायद आज पार्टी के हालात कुछ और होते । ध्यान दीजीयेगा अपने शासनकाल के पूरे पांच वर्षों में अटल जी ममता,जयललिता और रामविलास पासवान जैसे सतही लोगों के रहमोकरम के मोहताज बने रहे । इसके परिणामस्वरूप भाजपा के हिंदू मतदाता ने भाजपा के प्रति अपना विश्वास खो दिया । इस प्रसंग को पार्टी के राजनीतिक वनवास की मुख्य वजह भी कहा जा सकता है ।
आज जब मैं ये बातें लिख रहा हूं तो मेरे मन में कहीं भी भाजपा या अटलजी के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है । वस्तुतः मैं अटल जी का औसत भाजपाइयों से बड़ा प्रशंसक हूं । अपने आप को उनका प्रशंसक कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है,ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है मुझे इस देश के सेक्यूलर लोगों की जमात से बाहर कर दिया जायेगा । कर दिया जाये लेकिन अगर लोग राहुल,मनमोहन या सोनिया जी के प्रशंसक हो सकते है तो अटल जी तो वास्तव में ऐसे कई सतही लोगों से काफी बड़ी शख्सियत हैं । फिर भी मुझे अफसोस है अटल जी के पांच वर्षों के कार्यकाल से और यही अफसोस भाजपा के पतन की मुख्य वजह बना ।ध्यान दीजियेगा हिंदू मैरीज एक्ट की बात आई तो सभी ने एकमत से उसमें परिवर्तन कर डाले लेकिन जहां इस तरह की बात मुस्लिमों के संदर्भ मे आई तो देश की प्रायः प्रत्येक पार्टी ने उनकी शरियत के सम्मान में देशद्रोही फैसले लेने में भी गुरेज नहीं दिखाया । इन्हीं सारे दोतरफा फैसलों से आजिज आकर लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया मगर अफसोस इस सरकार से भी उन्हे कोई लाभ नहीं मिला । ऐसे में भाजपा के मतों का बिखरना लाजिमी था । ऐसा हुआ भी बीते दो दशकों में भाजपा का केंद्र समेत उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया । इन दुर्दिनों का अंत अगर यहीं हो गया होता तो फिर भी ठीक था लेकिन अब तो हालात ऐसे हैं कि छुटभैये भी भाजपा को आंखे दिखाने से गुरेज नहीं करते ।
लोगों का ये गुस्सा जायज भी है । आखिर नैतिकता की उम्मीद किससे की जाये? लोकतंत्र की नाजायज औलादों से नैतिकता की उम्मीद तो बेमानी होगी, इन हालातों में लोगों ने भाजपा को देश हित के संरक्षक के तौर सत्ता सौंपी तो मामला उल्टा पड़ गया । अब सोचता हूं कि अटल जी ने किस मजबूरी में पांच वर्षों तक ओजहीन संरक्षक के तौर पर सत्ता का संचालन किया? ऐसे में एक शेर याद आ गया पेशे खिदमत है:
कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी,कोई यूं ही बेवफा नहीं होता
जी हां ऐसी ही कुछ मजबूरियां अटल जी ने भी पाली थी । पहली कुर्सी का नशा,वास्तव में ये धरती का सबसे बड़ा नशा होता है जो आप की नैतिकता और संघर्ष करने की क्षमता को कुंद कर देता है । इस बात को आप मनमोहन जी के हालिया बयान से भी समझ सकते हैं‘मेरे नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने से इस पद का अपमान होता है’। शायद ऐसी कोई वजह उन्होने भी ढूंढ़ी हो । दूसरी वजह सेक्यूलर जमात में शामिल होना ।शायद आपके स्मृति पटल में वाजपेयी की जालीदार टोपी वाली कोई तस्वीर संचित हो । ऐसा करने की प्रमुख वजह थी खुद को सेक्यूलरों की जमात में स्वीकार्यता दिलाना । तीसरी सबसे बड़ी वजह रही कार्यकर्ताओं की उपेक्षा । ध्यान दीजीयेगा कार्यकर्ताओं का जितना अपमान इस दल में होता है उतना किसी भी दल में देखने को नहीं मिलेगा । चैथी वजह अच्छे नेताओं का तिरस्कार, ये प्रथा आज भी बदस्तूर कायम है । इस बात को समझने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है विगत उप्र के चुनावों को देख लीजिये मतदान के बाद तक पार्टी अपने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम तक घोषित नहीं कर सकी थी । नतीजा साफ है सूबे में सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार । मतदाता संशयग्रस्त दल का चुनाव क्यों करेगा ? यही हालात आने वाले लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में भी हैं । पार्टी अपने  प्रत्याशी के चयन को लेकर भ्रमित बनी हुई है ।
उपरोक्त सारे मुद्दों को ध्यान में रखते हुये एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस भ्रमित नीति के सहारे भाजपा का केंद्र की सत्ता में काबीज होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है । ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के पास विकल्पों की कमी है । आज पूरे देश के फलक पर नरेंद्र मोदी का नाम धु्रव तारे की तरह चमक रहा है । हां ये अलग बात है कि सेक्यूलर उससे एकमत नहीं हैं,और अगर भाजपा के इतिहास को देखें तो सेक्यूलर कब उसके हिमायती रहे हैं ? इन परिस्थितियों तथाकथित सेक्यूलरों की नाराजगी या खुशी से पार्टी की सेहत पर कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा ।रही बात मुस्लिम मतदाताओं की तो वो वाजपेयी जी के तमाम रोजे इफ्तार की पार्टियों के बावजूद भी नहीं रीझे और आज भी नहीं रीझेंगे । ऐसे में इनकी परवाह कैसी । जहां तक एनडीए कुनबे का प्रश्न नितिश कुमार जैसे क्षेत्रिय नेता जब आप पर प्रहार कर कुनबे का अपमान करने की हिमाकत कर सकते हैं तो फिर इस कुनबे की रक्षा का क्या औचित्य? अंततः अगर भाजपा को सत्ता में वापसी करनी है तो उसे हवाओं का रुख भांपते हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार  घोषित करना ही होगा । यदि ये दांव चल गया तो सत्ता आपकी अगर नहीं चला तो ज्यादा से ज्यादा आप विपक्ष में होगे । ये कोई बुरी बात नहीं है,और वास्तव में आपके पूर्वजों के इन्हीं सिद्धांतों ने आपको देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने का गौरव दिया है ।इस मामले में पार्टी के पुरनियों को भी अपने क्षुद्र स्वार्थों से पार पाना होगा । जहां तक भारतीय व्यवस्था का प्रश्न है तो वास्तव में युवाओं के सिर पर ही सेहरा बंधता रहा है । बुढ़ापे में सेहरा बांधने का उदाहरण मनमोहन जी की सरकार से लिया जा सकता है । फैसला तो भाजपा को करना है सिद्धांतों के साथ राजनीति या सिद्धांत विहीन छद्म सेक्यूलरिज्म ।

Friday, October 26, 2012

सासू मां का लाडला रोबोट: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

जनाब ये है वर्ष 2012 और 1947 से यहां तक के सफर में राजनीति के तौर तरीके पूरी तरह से बदल गये हैं । उस समय कहानी थी एक लोकतंत्र के विकास की आज की कहानी में एक परिवार में ही पूरा लोकतंत्र समा गया है । कहना जरूरी नहीं है कौन सा परिवार और कैसा लोकतंत्र ।बहरहाल कहानी की शुरूआत होती है विदेश से आयातित एक विदेशी पतुरिया की जिसे सोनिया कहा जाता है । ध्यान दीजीयेगा लड़की को भगाकर ले आना शायद आज भी हमारे देश में गुनाह की श्रेणी में आता है । फिर भी भागकर आई इस पतुरिया को राजमाता घोषित किया गया और ये पूरा लोकतंत्र खामोश था । मामला आज भी वैसा ही होता अगर कुछ सरफरोशों ने बात आगे न बढ़ायी होती । अब देखीये विदेश से भाग भगा के आयी ये विधर्मिणी जिसके कुल वंश का पता भी औसत भारतीयों को नहीं है इस देश की अस्मिता के साथ अनोखे खेल खेल रही है ।
अभी कुछ दिनों पहले इसी विष बेल की उपज मंद बुद्धि अमूल बेबी को एक घिनौने मामले में कोर्ट से राहत मिली नहीं की इसके दूसरे फलों ने लोकतंत्र को झकझोर डाला । जी हां ताजा मामला सोनिया के लाडले रोबोट का । दुर्भाग्य से निर्विय व्यक्ति सिर्फ सोनिया ही पूरे देश का दामाद बन बैठा है । जमीन खरीद फरोख्त के इस मामले में कुछ साबित हो न हो एक बात तो साफ हो गयी है कि वास्तव में कांग्रेस ने लोकलाज से पूरी तरह कन्नी काट ली है ।अगर ऐसा नहीं होता तो एक दोषी व्यक्ति की तरफदारी में हर कांग्रेसी को भौंकना नहीं पड़ता । ध्यान दीजियेगा यहां भौंकना शब्द बिल्कुल जायज क्योंकि इन तथाकथित नेताओं के हालिया बयान का घटना के सरोकारों से लेना देना नहीं दिखता । वे सिर्फ इस प्रथम परिवार के प्रति अपनी वफादारी को साबित करने के लिये भौंक रहे हैं । थोड़ी सी बात मुद्दे पर भी कर लें, डीएलएफ के अनुसार उसने रोबोट को ब्याज रहित 50 लाख रु का ऋण दिया और ये बात रोबोट ने भी स्वीकार की है । चलीये उनकी इस बात को मान भी लिया जाय तो ये बात गले से नहीं उतरती कि डीएलएफ जो खुद बैंकों से 12 से 15 प्रतिशत व्याज की दर पर हजारों करोड़ ऋण लेती है रोबोट को ब्याज मुक्त ऋण क्यों दिया ? सोचने वाली बात है करेाड़ों का ऋण क्या इस देश के आम आदमी के लिये भी सुलभ है ? अगर नहीं है तो रोबोट जी डीएलएफ के भी दामाद है ं? इस मामले से एक बात साफ हो चुकी है कि गांधी परिवार अब दोबारा आपतकाल के निरंकुश शासन पद्धति की ओर बढ़ चला है । इन सब बातों को जेहन में रखकर ही शायद ये मंदबुद्धि मैंगोमैन आफ द बनाना रिपब्लिक जैसे मुहावरे गढ़ पाता है । कहते भी हैं कि लाइफ में आराम हो तो आइडियाज आते हैं लेकिन मंदबुद्धि मुहावरे गढ़े ऐसा पहली बार देखा । अब सोचने की बारी मैंगोमैन की है कि क्या हम वाकई बनाना रिपब्लिक में जी रहे हैं ? अगर ऐसा है तो फिर क्या आवश्यकता है इस बनाना रिपब्लिक की ?

Tuesday, October 23, 2012

भ्रष्टाचार का वास्तविक जिम्मेदार कौन ? सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

इन दिनों राजनीति अपने न्यूनतम स्तर को छू रही है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कांग्रेसी दिग्गजों के बेशर्म बयान । ध्यान दीजियेगा अरविंद केजरीवाल द्वारा कांग्रेसी दामाद राबर्ट का मुद्दा उठाये जाने के बाद वास्तव में प्रत्येक कांग्रेसी खुद को असहज अवस्था में पा रहा है । इसका जीवंत प्रमाण है सलमान खुर्शिद,दिग्विजय सिंह और अन्य तथाकथित नेताओं के सतही बयान । ये बयान वास्तव में खिसियानी बिल्ली के खंभा नोंचने वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं । ध्यातव्य हो इस तरह के बयान वास्तव में लोगों का ध्यान मुद्दे से भटकाने के उद्देश्य से ही दिये जाते हैं । ऐसे में दिग्विजय सिंह के मानसिक दिवालियेपन को आसानी से समझा जा सकता है । उन्होने हाल ही में कहा कि सोनिया राबर्ट की चार्टड अकांउटेंट नहीं  है । सही भी है लेकिन समझने वाली बात ये है कि सोनिया माइनों गांधी वास्तव में हैं क्या और उन्हे क्या समझा जाता है ? क्या वो भारत माता है जो पूरा देश अपने दामाद को दहेज में देने पर आमादा हैं ? और उनके ये दामाद राबर्ट जी क्या देश के प्रधानमंत्री हैं जो हवाई अड्डों पर उनकी चेकिंग नहीं की जानी चाहिए ?
बहरहाल क्या होता अगर होता अगर राबर्ट सोनिया के दामाद न होते । अनेकांे उदाहरण हैं नरेंद्र मोदी या स्वामी रामदेव जिनकी ईंट से ईंट बजाने में सीबीआई ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । ऐसे में तो हरियाणा सरकार द्वारा चलाई जा रही जांच को देखकर तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि सोनिया का रोबोट वास्तव में देश और संविधान से भी बड़ा है । इस पर दिग्विजय का तुर्रा कि उनके पास भाजपा के खिलाफ भी सबूत हैं । अगर किसी देशहित को ताक पर रखकर परिवार को बढ़ावा दिया है तो निश्चित तौर पर वो सजा का अधिकारी फिर वो चाहे भाजपाई हो अथवा कांग्रेसी,क्योंकि देश निश्चित तौर पर इन दोनो पार्टियों से बड़ा है। अगर ऐसे कोई भी साक्ष्य दिग्गी राजा ने छुपा रखे हैं तो ये भी देश द्रोह की श्रेणी में ही आयेगा  । खैर हमारे दिग्गी राजा के प्रशंसक उन्हें यू हीं डागी राजा नहीं कहते । अतः अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करते हुए उन्होने केजरीवाल से भी कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर 27 प्रश्न पूछ डाले ? यथा इन प्रश्नों के उत्तर मात्र से लोकतंत्र का भला हो जायेगा ।  गौर करीयेगा उनमें से एक प्रश्न था भारतीय राजस्व सेवा सर्विस के दौरान केजरीवाल और उनकी पत्नी दिल्ली से बाहर से क्यों नहीं गए ?शैक्षणिक अवकाश से आने के उपरांत उन्होने अपना शोध सरकार को क्यों नहीं सौंपा ? जरा सोचिये क्या ये भी कोई पूछने वाले सवाल हैं ? मासूम दिग्गी को ये सवाल तो अपने आकाओं से पूछने चाहिए कि उन्होने केजरीवाल दंपत्ति के  साथ ये सदाशयता क्यों बरती । ये सवाल वास्तव में कीचड़ उछालने से ज्यादा कुछ नहीं है जिनका उद्देश्य पूरे देश का ध्यान असल मुद्दे से भटकाने के अलावा कुछ और नहीं है । खैर ये बात यहीं थम जाती तो कोई बात नहीं थी लेकिन इस प्रकरण में कुछ अन्य कांग्रेसी दिग्गज भी भला अपनी वफादारी साबित करने से पीछे क्यों हट जाते । अतः अपनी वफादारी साबित करने के क्रम में सलमान खुर्शिद ने जहां केजरीवाल को चिंटी बताया तो बुढ़ापे से जवानी की ओर लौट रही शीला ने उन्हे बरसाती मेंढ़क करार दे दिया । विचारणीय प्रश्न है कि इस तरह से बचकाने बयानों से क्या साबित किया जा रहा है ? या दिग्गी ने थाती के तौर पर जो प्रमाण भाजपा या केजरीवाल के विरूद्ध संभाल के रखे उनसे कांग्रेसी सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के दाग मिटाये  जा सकते हैं ? या ये साबित किया जा सकता है कि भाजपा ने अपने लगभग छः वर्षों के शासन में कांग्रेस के साठ वर्षों के शासन की संरक्षित विरासत को डूबा दिया ? अतः आप सभी वरिष्ठ जनों से करबद्ध प्रार्थना है कि ये बचकानी बातें बंद करें क्योंकि अब भ्रष्टाचार के जिम्मेदारों की वास्तविक पहचान हो चुकी है ।
क्या सफलता जीवन का अंतिम सत्य है: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की इस आपाधापी को देखकर अक्सर ही मन द्रवित हो उठता है । हर कोई परेशान है सफल होने के लिए और शामिल होने को इस मूषक परिक्रमा में । क्या सफलता जीवन का अंतिम सत्य है? क्या सफल होने के उपरांत जीवन में कुछ भी शेष नहीं रहता ? क्या होते हैं सफलता के पैमाने ? क्या सफलता के लिए समझौते आवश्यक हैं ? क्या व्यक्ति अपनी मानवता और स्वतंत्रता को विक्रय किये बिना सफल नहीं हो सकता? अगर अपने व्यक्तित्व को बेचकर हमने सफलता का वरण किया तो उस सफलता का उद्देश्य क्या रह गया ? अनेकों प्रश्न है जिनके जवाब आज भी खोजता हूं  ।
ये अलग बात है कि मैं कोई बड़ा दार्शनिक या विचारक नहीं हूं कि मेरे सारे तर्क आप सर्वमान्य करें और मैं ऐसी कोई आशा भी नहीं रखता । बहरहाल अपने विषय पर लौटते हैं बात करते हैं अपने पहले प्रश्न की । क्या सफलता जीवन का अंतिम लक्ष्य है । जी नहीं सिर्फ सफल होना जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है । वास्तव में हमारे वेदों और प्राचीन ग्रंथों में वर्णित तर्कों के आधार पर देखें तो जीवन के चार प्रमुख पुरूषार्थ हैं । धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष सफलता को समझने के लिए इन चारों पुरूषार्थों को सूक्ष्मता से समझना होगा । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है, सर्वे गुणाः कांचनाश्रयंति: अर्थात जगती के सारे गुण अर्थ में समाहित हैं । यहां अर्थ से आशय है धन का तो ध्यान दीजियेगा धन की प्रकृति भी दो प्रकार की होती है । पहला नारायण का और दूसरा कुबेर का । धन का आकांक्षी तो प्रायः हर व्यक्ति होता है लेकिन धन की प्रकृति की परख कुछ लोगों मंे ही होती है । उदाहरण के तौर पर एक चिकित्सक समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए जो धनोपार्जन करता है,ये धन ही नारायण का धन है । दूसरी ओर एक दूसरा चिकित्सक अन्य अवांछित माध्यमों से अपने कत्र्तव्यों की उपेक्षा कर धन संग्रह में लिप्त होता है । ऐसे व्यक्तियों का धन निश्चित तौर पर एक ईमानदार चिकित्सक से ज्यादा होगा लेकिन ये कुबेर का धन है । इस प्रकृति का धन आपको भीतर से अशांत कर देता है । इसका उदाहरण आपको विगत दिनों एनआरएचएम घोटालों के दौरान हुई छापेमारी में साफ तौर पर दिख जायेगा । अब सवाल सिर्फ इतना है कि अपनी शांति की कीमत पर प्राप्त हुई ये सफलता किस काम की ? जहां तक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सफलता के पैमानों का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर इसकी व्याख्या भी दिग्भ्रमित करने वाली है । आज समाज में ऐसे अनेकों व्यक्ति मिल जाएंगे जो आपकी सफलता का आकलन आपकी जेब से करते हैं । अर्थात सफलता का पैमाना धन को माना जाने लगा है,जो कि पूर्णतः गलत है । व्यक्ति कि सफलता का आकलन उसके व्यक्तित्व में समाहित गुणों  से होना चाहिये । आप देखीये अगर देश की सर्वोच्च सेवाओं में कार्यरत लोग आठवीं दसवीं पास नेताआंे के जूते उठाने का कार्य कर रहे हैं । ये उनकी सफलता है अथवा असफलता ? इसे अगर सफलता कहें तो असफल व्यक्तियों का जीवन इनसे तो भला होता है । सोचिये जो व्यक्ति इस तरह का शोषण बर्दाश्त करता हो तो क्या वो अपने मातहतों का शोषण नहीं करेगा । निश्चित तौर पर करेगा और अगर करेगा तो कहां गई हमारे दर्शन में समाहित समता की भावना ।
अब बात करते हैं अपने तीसरे प्रश्न पर क्या सफलता के उपरांत जीवन में कुछ भी शेष नहीं रहता ? गौर कीजियेगा उपरोक्त उदाहरणों पर क्या इस तरह के लोग सफल नहीं हैं । उनकी पहली सफलता तो उसी दिन मिल गई थी जिस दिन उन्होनें प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर अपनी जगह इस व्यवस्था में बना ली । इतना सब कुछ पाने के बाद भी व्यक्ति संतुष्ट नहीं होता और इस तरह की सफलता का निरंतर विस्तार होता है । उदाहरण के तौर पर एक पति एक पिता एक पुत्र और अंततः एक कुशल चिकित्सक,प्रशासक,शिक्षक अथवा पत्रकार के रूप में । ऐसे में देखा जाये तो इस प्रकृति की सफलता वास्तव में एक मृग मरीचिका से ज्यादा कुछ भी नहीं है । वस्तुतः इस 99 के चक्कर का अंत कभी भी नहीं होता । सफलता संतुष्टि में निहित होती है । संतुष्टि सिर्फ और सिर्फ अपने निर्धारित कार्यों को ईमानदारी से करने में ही है । ध्यान दीजियेगा ये सिर्फ साड्डे हक की बात नहीं है यहां साड्डे कत्र्तवयों का चिंतन भी आवश्यक है । ध्यान दीजियेगा हर व्यक्ति प्रारंभ में ईमानदार ही होता है लेकिन धीरे धीरे वो अपने सद्गुण खो बैठता है । इस समझौते और चारित्रिक मिलावट का अंतिम उद्देश्य क्या होता है,सिर्फ और सिर्फ धन संग्रह । अब बताइये ऐन केन प्रकारेण धन अर्जन करने वाले व्यक्ति को सफल माना जा सकता है । अगर ऐसे व्यक्ति सफल हैं तो समाज में विवेकानंद और सुकरात सरीखे लोगों का क्या स्थान होगा ? सोचिये सारे तर्क आपके सामने हैं कि आप किस प्रकृति की सफलता अर्जित करना चाहते हैं ।
जहां तक मेरे विचारों का प्रश्न है तो वास्तव में सफलता जीवन का सबसे बड़ा छलावा है, असफलता जहां आपको मनुष्य बनाये रखती है तो दूसरी ओर इस प्रकार की सतही सफलता आपको पशुता की ओर ढ़केलती है । व्यक्ति की सफलता का आकलन हर रोज उसके जीवन के अंतिम दिन तक होता है,क्योंकि वास्तव में हमारे दर्शन की सफलता एक विस्तृत प्रक्रिया है । अतः इसे एक वर्ष या दो वर्ष में नहीं पाया जा सकता । जीवन के कुछ वर्षों और परीक्षाओं से सिर्फ आपकी स्मृति और कौशल का परीक्षण किया जा सकता है । जबकि सफलता का विषय इससे इतर है । हमारी सफलता की अंतरिम मापक इकाई है मोक्ष की अवधारणा । इस अवधारणा में व्यक्ति की जटिलता नहीं वरन उसकी सरलता को सराहा जाता है  । अर्थात निष्काम भाव से कृत मानव जनित कार्यों के आधार पर ही व्यक्ति की सफलता का सच्चा आकलन किया जा सकता है ।

Monday, October 22, 2012

बहलाना नहीं सहलाना सीखे सरकार: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

एक लोकतांत्रिक देश की सरकार के दायित्व क्या होते हैं ? शायद हमारे विद्वान प्रधानमंत्री को इस बात का भी कोई अनुमान नहीं है । अगर होता तो विगत दस वर्षों में वे सिर्फ मदारी का खेल दिखाने की बजाय विकास परक योजनाएं बना चुके होते । वास्तव में जनता की समस्याएं को हल करने के लिए शब्दों की लफ्फाजी के बजाय कड़े निर्णयों आवश्यकता होती है। चूंकि सौभाग्य से हमारे प्रधानमंत्री जी अर्थशास्त्री भी बताये जाते हैं,तो क्या वो भूल गये हैं अर्थशास्त्र के बुनियादी उपकरण? ये उपकरण है रोटी,कपड़ा और मकान इनके साथ ही शिक्षा और चिकित्सा की सुदृढ़ सेवाएं । ध्यान दीजियेगा मनमोहन जी की नीतियों को देखकर अनेकों सवाल उठ खड़े होते हैं । अब इस सरकार ने एक नया पटाखा फोड़ा है,हर हाथ मे फोन । योजना में कुल 7000 हजार करोड़ के व्यय होने की उम्मीद है । जरा सोचिये जिस देश में आम आदमी को बिजली तक मयस्सर नहीं है तो वहां ऐसी योजनाओं की क्या प्रासंगिकता है ? अभी हाल ही में भारत सरकार ने तिजोरी खाली होने का दावा करने के बावजूद विज्ञापनों पर कुल सौ करोड़ रूपये खर्च कर डाले । आशा था अपने कार्यकाल में हो रहे भारत निर्माण को दर्शाना ।किस भारत का निर्माण हुआ है? हमारे आस पास के गांव,कस्बों में रहने वाले भारत का या महानगर की झुग्गियों में बसने वाले भारत तक तो निर्माण कहीं नहीं दिखता । अगर आपके आस पास कहीं भारत निर्माण हो रहा हो तो जरूर बताइयेगा । हां सरकार के पालतु लोगों का बैंक बैंलेंस अगर रातों रात अरबों खरबों तक पहुंच जाने को भारत निर्माण कहते हैं तो अवश्य ही ये निर्माण हम सभी देख और सुन रहे हैं ? कैसी विडंबना है देश की एक घोटाला अभी खत्म भी नहीं हो पाता कि तब दूसरे लगभग उसके दोगुने आकार का घपला आकार ले लेता है ? जहां तक आम आदमी का प्रश्न है तो उसके पास पुराने मामले को भूलने के अलावा दूसरा कोई और विकल्प नहीं होता । अब सोचने वाली बात है कि 7000 करोड़ की इस प्रस्तावित चुनावी योजना से कितने कि डकैती होने वाली है ? ये मामला भी अगर पकड़ में आया तो फिर कोई और येाजना पर सरकार का अंतरिम तो लोकतंत्र को चूना लगाना ही हो गया है । वो भी अपने सगे संबंधियों की पूरी फौज के साथ । इस परिस्थिति में मेरा मनमोहन जी से सविनय अनुरोध है कि सिलेंडर का दाम घटा बढ़ाकर या एफडीआई के पिटे सिद्धांतों से रातों रात कोई चमत्कार नहीं होगा । हां अगर कोई चमत्कार होगा तो बुनियादी समस्याओं को समझकर उसका निराकरण करने से । इसका उदाहरण लेने के लिए आप आक्साफोर्ड मत जाइये यहीं भारत में एक बार नरेंद्र मोदी से उनके विकास माडल के बारे में जानने की कोशिश करीये,क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की खुशहाली विदेशी शासन व्यवस्था से बहाल नहीं होगी । अतः अब सरकारेां को जनता को बहलाने की बजाय सहलाना सीखना होगा । अन्यथा इस अफरातफरी से आजिज आ चुके हताश आ चुके आम आदमी के पास क्रांति के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा । अब ये बात मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि भारत निर्माण की वास्तविक क्रांति हमारे मानस पटल पर दिन रात दस्तक दे रही है । अंततः
कैसी है य त्रासदी कैसा है संयोग,लाखों मंे बिकने लगे दो कौड़ी के लोग

Saturday, October 20, 2012

वर्तमान परिप्रेक्ष्य और मीडिया

मीडिया अर्थात लोकतंत्र का चैथा स्तंभ । इस स्तंभ का कार्य लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभों व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका पर नजर बनाए रखना है । सच भी है कई बार बड़े मुद्दों पर मीडिया के प्रहार ने मामलों का रूप स्वरूप् को बदलकर रख दिया है । ऐसे में आम आदमी की मीडिया से आस लगाना स्वाभाविक लगता है, मगर अफसोस है बीते कुछ वर्षों से मीडिया के चरित्र में गिरावट का सिलसिला बदस्तूर जारी है । ऐसे में हर ओर से छला जाता है आम आदमी । अभी कुछ दिनों पूर्व एक नामचीन अखबार का संपादकीय पृष्ठ पढ़ रहा था । संपादक महोदय अपने विचारों की रौ में शायद इतने खो गये थे कि उन्होने अपने ही विचारों का कई बार खंडन कर डाला । ध्यान दीजियेगा इस अग्रलेख का शीर्षक था बेवजह की सफाई । इस लेख का मूल विषय हालिया प्रकाश में आया सलमान खुर्शिद का प्रकरण । लेख की प्रथम पंक्तियों में संपादक महोदय ने घटना पर प्रकाश डाला मगर अंतिम पंक्तियों तक पहुंचते पहुंचते वो स्वयं ही कह बैठे हांलांकि सलमान जी विश्वसनीयता तो संदेह से परे है । अब बताइये जो व्यक्ति स्वतः सलमान साहब को चरित्र प्रमाण पत्र देने को उद्यत हो उससे निष्पक्षता कि कैसी उम्मीद की जा सकती है ? दूसरा मामला देखीये सैफ अली खान और करीना की शादी । मीडिया के गलियारों में ये घटना लगातार सुर्खियां बटोरती रही । प्रश्न उठता है कि क्या वाकई ये इतने महत्व की घटना थी,जितनी की इसे तवज्जो दी गई । एक आदमी अधेड़ अवस्था में अपनी पहली पत्नी को छोड़कर दूसरी के साथ शादी कर रहा है । क्या करीना ने सैफ का बसा बसाया घर नहीं उजाड़ा? क्या उनका ये आचरण नैतिकता का हनन नहीं है ? अगर ये वाकया मानवता की सर्वोच्च घटना है तो फिर पशुता क्या है ? सोचिये क्या ये प्रश्न नहीं थे मीडियाकरों के पास उठाने के लिये ? अब बताइये कितनी निष्पक्ष और संवेदनशील है हमारी मीडिया ? कहां गये महिला अधिकारों का दम भरने वाली क्रांतिकारी महिलाएं ? दिलचस्प बात ये है कि ठीक इसी दिन किसी पारिवारिक विवाद को लेकर एक दंपत्ति के बीच हुई मारपीट की खबर को पत्रकारों ने नमक मिर्च लगाकर परोसा । इस खबर का शाीर्षक था ये पति नहीं शैतान है । अगर  वाकई लड़ भिड़ फिर साथ रहने वाला पति शैतान है तो बुढ़ापे में अपनी पत्नी को अकेला छोड़ने वाले सैफ अली खान को क्या कहा जाये ? मगर अफसोस पत्रकारों ने इस मुद्दे पर बात तो नहीं की अलबत्ता सैफीना जैसे शब्द गढ़कर पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों की धज्जीयां उड़ा डाली । घटना को एक अन्य नजरीये से भी देखना होगा सैफ और अमृता के बेटी सारा के नजरीये से । सोचिये कैसा लगा होगा उस बेटी को अपने अधेड़ बाप की बारात में शामिल होके । हमारे माननीय वरिष्ठ पत्रकार जरा अपने आप को उस लड़की के स्थान पर रख कर देखें तो शायद मामला उनकी भी समझ मंे आ जायेगा । इस घटना के कुछ दिनों पहले ही वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे जी का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होने खाप पंचायतों की जी भर के लानत मलानत की थी । अब सोचने वाली बात पंचायतों की थुक्का फजीहत तो आप सभी ने जी भर के कर ली लेकिन अमृता का घर उजाड़ने वाली बेबो को नसीहत देने का साहस कौन करेगा । सोचिये औरत की दुश्मन कौन ये पंचायतें या खुद औरत ? इस प्रसंग मंे अंतिम उदाहरण और रखना चाहूंगा हमारे माननीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जी ने हाल ही में एक नयी परिभाषा दी । उनके अनुसार बूढ़ी बीवियां त्याज्य हो जाती हैं । उनकी इस परिभाषा के जीवंत उदाहरण बने हमारे सैफू मियां,लेकिन उनके इस गहन शोध को विस्तार देने का कार्य किया तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों ने । सोचने कि बात है कभी पूनम पांडे तो कभी करीना तो कभी कोई और निरंतर अपने कुत्सित संदेश मीडिया के माध्यम से परोस रही हैं । ऐसे मंे मीडिया की भूमिका क्या है और क्या होनी चाहिये? कहीं मीडिया सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का उपकरण तो नहीं बन गया है ? सोचियेगा प्रश्न विचारणीय है ।           
                                            जय हिंद जय भारत
                                            सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

Friday, October 19, 2012

नैतिकता का पाठ और नारायण दत्त तिवारी

जी हां ये पढकर कुछ अटपटा सा नहीं लगा । जी हां वहीं नारायण दत्त तिवारी जो  अभी हाल ही में शेखर के जैविक पिता साबित हुए हैं । इस बात में साबित करने को कुछ और बचा भी नहीं है,क्योंकि इस मामल्¨ में न्यायालय की स्वीकारोक्ति पर्याप्त है । इन विषम परिस्थितियों में तिवारी जी से नैतिकता का पाठ पढना और रिश्तों का निर्वहन करना सीखना तो खासा हास्यास्पद ही लगता है । बहरहाल कुछ नेताओं को ऐसा लगता है । इनमें शामिल हैं पारिवारिक समाजवाद के प्रस्तुतकर्ता मुल्ला मुलायम जी । हैरत में मत पडि़येगा ये बातें इन्हीं महानुभाव के श्रीमुख से निकली हैं । हाल ही में प्रदेश की राजधानी में चल रहे एक स्मारिका के लोकार्पण के दौरान उन्होने तिवारी जी को  प्रदेश आगमन का न्यौता और जन्मदिन की बधाई दी । ये बातें यहां तक तो ठीक थी मगर इसके बाद लगता है कि कांग्रेसी उपकरण मुलायम जी जबान पर लगाम नहीं रख पाये । उन्होनें कहा कि तिवारी जी मेरे पुराने दोस्त हैं हमारी बहुत सी यादें एक दूसरे से जुड़ी हैं । उनके उत्तर प्रदेश में सक्रिय होने से प्रदेश के नेताओं को आदर्श पालन और रिश्तों का निर्वाह करने की सीख मिलेगी । अब बताइये बिल्ली से कबूतरों के पिंजरे की रखवाली की उम्मीद करना मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है ? सोचिये अगर यथार्थ में नारायण जी से प्रभावित होकर कुछ और नेताओं ने रिश्ते निभाना सीख लिया तो क्या होगा इस देश का और समाज का ।
खैर जो भी हो इनका ये जुमला सुनकर वाकई मजा आ गया । जहां तक इस प्रसंग से सीख लेने की बात है तो वो ये है कि देश में अच्छे लोगों को एक साथ खड़ा होने में भल्¨ ही गुरेज हो ल्¨किन इस तरह के लोग हमेशा एक दूसरे की दुम सहलाते मिल जाएंगे । अंत में एक मुहावरा पेशे खिदमत है, जैसे को तैसा मिले मिले नीच को नीच,पानी में पानी मिले मिले कीच में कीच ।
                                                                      जय हिंद जय भारत
सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

Tuesday, October 2, 2012

विचारों की सान पर गांधी का मूल्यांकन: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’



सुबह सवेरे एक गीत ने साथी मुबारक तुम्हे हो जश्न ये जीत का,पर इतना याद रहे एक साथी और भी था ने मुझे राम प्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियां याद दिला दी । शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा । सोचता हूं किस आस से लिखी होंगी ये पंक्तियां और कितने बेगैरत निकले हम ? विचारों के इस क्रम मेरी लेखनी से कुछ पंक्तियां फूट पड़ी,ध्यातव्य हो बस्तियों से दूर उजड़ा सा मकां होगा,वतन पे मरने वालों का नहीं बाकी निशां होगा । कुछ लोगों को शायद मेरी ये सोच गलत लगे या लोग मुझे सिरे से खारिज कर दें । आपके मानने न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता हकीकत यही है और देर सवेर आपको ये बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी । आज सुबह सवेरे लगभग सारे समाचार पत्र गांधी बाबा के जन्म दिवस  की सूचना दे रहे थे । खैर इस सूचना के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने या न होने का कोई फर्क नहीं पड़ता,क्योंकि दो अक्टूबर या 14 नवंबर के बारे में एक बच्चे को भी पता होता है । वजह है इन दिनों पर होने वाला राजकीय अवकाश । इन दिनों पर प्रायः हर स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयेाजन भी होता है । इन कार्यक्रमों के माध्यम से देश के भावी कर्णधारों को गांधी बाबा के महान त्याग एवं तपस्या से परिचित कराया जाता है । इन छोटे आयोजनों का वैसे तो विशेष महत्व नहीं होता लेकिन फिर भी बाल मस्तिष्क में गांधी वादी सिद्धांत के बीज पड़ जाते हैं । परिणामस्वरूप गांधी बाबा की मौत के 60 से अधिक वर्षों के बाद भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है ।
देश के इस दोहरे मापदंड को देखते हुए कई बार मैं ये सोचने को विवश हो जाता हूं क्या हमें प्रायोजित इतिहास पढ़ाया जा रहा है? क्या वाकई हमारा इतिहास ऐसा ही होना चाहिए ? यहां शब्दों पर ध्यान देने की बात है प्रायोजित इतिहास, इस शब्द का सीधा सा अर्थ कुछ लोगों द्वारा अपने परिवारों के महीमामंडन के उद्देश्य से लिखाया गया इतिहास । जी हां बिल्कुल ऐसा ही हुआ है,अन्यथा देश में आज भी गांधी नेहरू परिवार का वर्चस्व क्या प्रमाणित करता है? इस इतिहास में देश के अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों को हाशिये पर ढ़केला गया है । अगर ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं मनाया जाता भगत,आजाद,बिस्मिल का जन्म दिवस ? कारण स्पष्ट है ऐसा करने  से निश्चित तौर पर इन क्रांतिकारियों के विचारों को पुष्पित पल्लिवित होने का अवसर मिलेगा । स्मरण रहे कि गांधी दिवस से कुछ ही दिनों पूर्व ही 27 सितंबर को भगत सिंह का जन्म दिन था । यहां मेरा प्रश्न है व्यवस्था के ठेकेदारों से,क्यों नहीं मनाया जाता भगत का जन्म दिवस ? क्या उनका त्याग और बलिदान गांधी की तुलना में कम था ? अगर नहीं है तो आजाद भारत में क्रांतिकारियों की वैचारिक हत्या क्यों हो रही है ? इतिहासकारों का ये प्रायोजित इतिहास जहां सिर्फ एक पक्ष को बढ़ावा दिया गया ये देशद्रोह नहीं है? विचार करिये ,जहां तक वैश्विक इतिहास का प्रश्न है जो लिपिबद्ध है तो क्रांति की देवी को रक्त से अभिसिंचित किया जाता रहा है ? पढि़ये विश्व के अन्य देशों का इतिहास । जैसा कि गांधी बाबा ने एक संबोधन में राह से भटके हुए युवा कहा था,क्या सही है? जहां तक अहिंसा का प्रश्न है तो भगत सिंह गांधी की तुलना में कहीं ज्यादा अहिंसक थे । इसके एक नहीं अनेकों प्रमाण मिल जाएंगे । सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो वो निश्चित तौर पर गांधी से प्रखर विचारक थे । अहिंसा और ब्रह्म्चर्य के प्रयोगों से देश को आजादी दिलाने का दम भरने वाले गांधी बाबा जिन दिनों जेल में खाने की गुणवत्ता को लेकर अनशन कर रहे थे,उन दिनों जेल की कोठरी में बंद भगत सिंह अपने जीवन की आखिरी सांसे गिन रहे थे । क्या दुर्भाग्य था इस देश का जिन दिनों भारत का बुढ़ापा जेल में अच्छा भोजन न पाने की लड़ाई लड़ रहा था ठीक उन्ही दिनों भारत का युवा फांसी के फंदे को चूम रहा था । कई इतिहासकारों का ये मानना है कि अगर गंाधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी को टाला जा सकता था,लेकिन उन्होने भगत की कीमत पर अपना वर्चस्व बनाये रखने को ठीक समझा । ये और बात है कि बावजूद इसके भगत सिंह उनका सम्मान करते थे । फिर भी अपने और अन्य क्रांतिकारियों के लिए कांग्रेसियों के मन में व्याप्त पूर्वाग्रह से कहीं न कहीं उन्हे ठेस जरूर लगी थी । इस बात को प्रमाणित करती कुछ पंक्तियां ध्यातव्य हों.
यह कोई अच्छी बात नहीं हमारे आदर्शों पर कीचड़ उछाला जाता है । आजकल ये फैशन सा हो गया है अहिंसा के बारे अंधाधंुध और निरर्थक बातें की जाएं । महात्मा गांधाी महान हैं और हम उनके सम्मान पर कोई आंच नहीं लाने देना चाहते,लेकिन हम दृढ़ता से ये कहते है कि हम देश को स्वतंत्र कराने का ये ढ़ंग पूर्णतया नामंजूर करते हैं । हमारे लिए महात्मा असंभावनाओं के दार्शनिक हैं । अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है लेकिन इस रास्ते से हम आजादी कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते । हम पूछते हैं कि जब दुनिया का वातावरण हिंसा और गरीब की लूट से भरा हुआ है,तब देश को अहिंसा के रास्ते पर चलाने का क्या तुक है? हम पूरे जोर के साथ ये कहते हैं कि कौम के नौजवान कच्ची नींद के ऐसे सपनों से रिझाये नहीं जा सकते ।
उपरोक्त वक्तव्य को अगर पढ़े ंतो ये निश्चित तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि भगत सिंह के मन में गांधी के प्रति कहीं भी कोई दुराव नहीं था । रास्तों में अंतर होने के बावजूद वो गांधी के देश प्रेम का पूरा सम्मान करते थे । जहां तक गांधी का प्रश्न है तो उनका बर्ताव इसके ठीक उलट था। इसकी बानगी एक नहीं अनेकों बार देखने को मिली है । चाहे भगत सिंह कि फांसी का गंभीर विषय रहा हो या नेताजी के हाथों उनके समर्थित प्रत्याशी पट्टारामाभैया की पराजय का प्रश्न रहा हो,उन्होने विरोधी विचारों का कू्रर दमन किया है । जहां तक प्रश्न अहिंसा का था तो किस अहिंसा के पक्षधर थे गांधी, ऐसी अहिंसा जहां निर्दोष जनता ण् का अंग्रेजों द्वारा बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया गया । हिन्दुस्तानी आवाम की मौत हुई तो अहिंसा अगर एक अंग्रेज मारा गया तो आतंकवाद । ये कौन सा मापदंड देशप्रेम को आंकने का ।
गांधी की अहिंसा को याद करता हूं तो बहुत से प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं । ध्यान देने वाली बात है कि जिस अहिंसक आंदोलन के नाम पर लाला लाजपत राय को लाठियों से पीट कर मार डाला गया वैसा गलती से भी महात्मा जी के साथ क्यों नहीं हुआ । क्या वो अंग्रेजों के एजेंट थे ? सोचिये प्रश्न ऐसे भी हो सकते हैं । जहां तक चरीत्र का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर ये युवा का्रंतिकारी तथाकथित महात्मा से मीलों आगे थे । एक ओर जहां महात्मा जी को बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य परीक्षण की आवश्यकता पड़ती थी तो दूसरी ओर थे ये निष्काम युवा जिन्होने अपना यौवन क्रांति की बलीवेदी पर चढ़ा दिया । वास्तव में अगर सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना है तो हमें दोनों पक्षों की आवश्यकता होगी न कि सिर्फ एक प्रायोजित पक्ष की । अंततः
                    जब तलक जिंदा कलम है कम तुम्हे मरने ना देंगे ।
      
   क्रमशः नोटः विचार एवं सुझाव आमंत्रित हैं ।