Tuesday, December 4, 2012

कुछ तो शर्म करो केजरीवाल: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

अपने विवादास्पद खुलासों से आये दिन नेताओं की नींद उड़ा देने वाले केजरीवाल आज एक पार्टी के संस्थापक हो गये हैं । ऐसे में देश से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उन्हें अपना रूख भी स्पष्ट करना होगा । कुछ दिनों पूर्व अपने एक प्रकाशित लेख में मैनें केजरीवाल के मंसूबों की बात की थी । खैर मेरा वा ेलेख कई सेक्यूलर भाइयों को नागवार गुजरा । बहरहाल जहां तक मेरा प्रश्न है तो मैं ऐसी गुस्ताखियां और भी करूंगा । भाई लोग पत्रकारिता का मूल गुण धर्म यही होता है । शहद में लिपटे प्रश्न नहीं बल्कि देश के यथार्थ से जुड़े चुभते हुये सवाल जो सोचने पर मजबूर कर दें । ऐसा करना गलत भी नहीं है । यदि आप लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो लोकतंत्र की अवधारणा का मूल है स्वस्थ बहस । इसी अवधारणा के नाम पर बुखारी,अरूंधती राय जैसे लोग यदि देशद्रोही बयान दे सकते हैं तो क्या मैं अपनी बात नहीं रख सकता । बहरहाल यहां इतनी बातें रखने का प्रयोजन सिर्फ यही है कि अब वक्त आ गया है कि दूसरों पर कीचड़ उछालने वाले केजरीवाल जी अपने गिरेबां में झांक कर देखें ।
अतः केजरीवाल जी और उनके चाहने वालों से विनम्र अनुरोध है कि मेरे प्रश्नों को अन्यथा न लें और इनके समीचीन उत्तर देने का प्रयास करें । वैसे भी प्रश्न पूछने का कापीराइट अधिकार सिर्फ केजरीवाल जी के पास ही नहीं है । जहां तक मेरे परिचय का प्रश्न है तो मैं भी इस देश का आम आदमी हूं । हां हांलाकि मेरी टोपी पर मैं आम आदमी हूं नहीं लिखा है । लिखा भी कैसे जाता मेरे पास इतनी पूंजी भी तो नहीं कि केजरीवाल जी मुझे टोपी पहनाते । खैर अब बात प्रश्नों की जो निम्नलिखित हैं ।
1.    आप का ये भ्रष्टाचार वाला फार्मूला कहीं अमेरिका की देन तो नहीं है ?
आमजन को बता दूं कि माननीय केजरीवाल जी फिलहाल जिस एनजीओ कबीर से जुड़े हैं उसे अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन से सन 2005 में 1,72,000 अमेरिकी डालर और पुनः 2009 1,17,000 हजार अमेरिकी डालर दान में मिले हैं । इस कारण ही तमाम राजनीतिक दल केजरीवाल के अभियान को यूरोप और अमेरिका से प्रेरित बताते हैं ।
ज्ञात हो कि ब्रिक में शामिल चारों देशों ब्राजील,रूस,भारत,चीन ने वर्ष 2010 में विश्व बैंक से इतर अपना एक अलग बैंक खड़ा करने की घोषणा की । इसी के बाद से चारों देशों भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का जन्म हुआ । वैसे भी फोर्ड अथवा कोई भी अन्य विदेशी संस्था स्पांसर करने से पूर्व अपने हितों का ध्यान अवश्य रखती है । अब ये हित क्या है ये आप सोचीये?
2.    देश की बात करने के बावजूद भी चरमपंथियों और अलगाववादियों के पाले में बैठना क्या साबित करता है?
3.    क्या प्रशांत भूषण की तरह आप भी काश्मीर को देश का हिस्सा नहीं मानते?
4.    अगर मानते हैं तो आप ने इस मामले पर अपने देश के वजूद से जुड़े इस प्रश्न पर अपने विचार क्यों नहीं रखे?
5.    बांग्लादेशी घुसपैठ और मुस्लिम तुष्टिरण पर आपकी क्या राय है?
6.    भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लेकर पार्टी स्थापना तक का ये सफर क्या अन्ना के साथ विश्वासघात नहीं है ?
7.    क्या टोपी लगाने से कोई भी आम आदमी हो जाता है?
8.    मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 2010 में गठित लोकपाल समिति में आपने लोकपाल की पात्रता को मैगसेसे पुरस्कार से क्यों जोड़ा ?
9.    क्या आप मैगसेसे पुरस्कार को आम आदमी के लिये सुलभ मानते हैं ?
10.     अंततः लोकपाल पद क्या विदेशी पुरस्कारों से तय किये जाने चाहिये ?
प्रश्न और भी हैं लेकिन फिलहाल इतने ही । जवाब तो आपको आज नही ंतो कल देने ही पड़ेंगे क्योंकि टोपी पहनने और पहनाने दोनों ही प्रकियाओं में अविश्वास रखने वाले एक विशुद्ध आम आदमी का प्रश्न है । मैं तो सिर्फ यही कहूंगा कि अगली बार कीचड़ उछालने से पहले केजरीवाल को थोड़ी सी शर्म तो जरूर करनी चाहीये क्यांेकि कई सवालों को अब तक आप के जवाबों का इंतजार है । अंततः इन सारी बातों को देखकर कुछ पंक्तियां याद  रही हैं:
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं,
देखना है...................
ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्तां,
देखते की मुल्क सारा है टशन में थ्रिल में है,
हाथ की खादी बनाने का जमाना लद गया ,
आज तो चड्ढ़ी भी सिलती इंग्लिशों की मिल में है...........


Friday, November 30, 2012

राजनीति की निकृष्ट स्वरूप है व्यक्तिवादी विरोध: सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

कांग्रेस के लाख भ्रमजाल बिछाने के बावजूद लोगों के दिलोदिमाग से मोदी की विकास पुरूष वाली छवि नहीं मिटती । पूरे देश में इन दिनों नरेंद्र मोदी के विरूद्ध कांग्रेस प्रायोजित मीडिया वार चल रहा हो । विभिन्न न्यूज चैनलों पर चल रहे विज्ञापन पर गौर फरमाइयेगा । गुजरात कांग्रेस के नाम से चल रहे एक विज्ञापन में विभिन्न लिपे पुते चेहरों द्वारा गुजरात के विकास का पदार्फाश का दावा बड़ी बेशर्मी से किया जा रहा है । इस विज्ञापन में आम गुजरातियों के बयानों से ये साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि गुजरात का विकास सिर्फ कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों तक सीमित है । अब ये बताने की आवश्यकता नहीं है कि विभिन्न न्यूज चैनलों पर इस तरह के विज्ञापन को दिन रात चलाने के लिये कितना पैसा खर्च किया जा रहा है । स्मरण रहे कि भारतीय राजनीति में इस तरह का व्यक्तिवादी विरोध शायद ही कभी हुआ हो । यदि इन सब के बावजूद भी कांग्रेस कहीं पराजित हो जाए तो सोचीये क्या परिणाम होंगे । इस चर्चा के क्रम में एक बात का और उल्लेख करना चाहूंगा कि सब के बीच में नरेंद्र मोदी ने एक बार भी स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावेदार नहीं बताया है । गुजरात केंद्रित राजीनीति के बावजूद उन्हे पूरे देश की जनता द्वारा प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया गया । इस बात की प्रमाणिकता को कुछ दिनों पूर्व ही इन्हीं न्यूज चैनलों ने प्रमाणित किया था । अब न्यूज चैनलों का ये रवैया थूक कर चाटने से ज्यादा क्या है? इन सभी बातों को एक साथ लेकर देखें तो कांग्रेस को इस बार भी गुजरात में अपनी संभावना न के बराबर ही दिख रही है । यहां कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं और न्यूज चैनलों पर हो रहे दिन रात दावों पर मत जाइयेगा । ऐसे ही दावे बीते चुनावों मंे भी कांग्रेसी दिग्गजों ने किये थे ।
मोदी के इस बढ़ते कद को समझने के लिये पहले हमें उनके व्यक्तित्व को समझना होगा । इस बात को राजनैतिक कसौटी पर नहीं कसने की कोशिश बेमानी होगी । अतः दागी बनाने की प्रक्रिया में विभिन्न सियासी पार्टियों के सेक्यूलर सूरमाओं ने उन्हे गुजरात दंगे का दोषी बताया । हांलाकि ये बात आज तक किसी भी प्रकार प्रमाणित नहीं हो सकी है । इस मामले की गहराई ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि ये दंगा वास्तव में एक प्रतिक्रियात्मक घटना । अर्थात अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों के जिंदा जले शव को देखने के तुरंत बाद आम जन मानस की प्रतिक्रिया । ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोगों की प्रतिक्रिया इस विभत्स रूप में निकली । किंतुु सिर्फ मुख्यमंत्री होने के नाते मोदी को इस घटना का दोषी नहीं बनाया जा सकता । अगर वास्तव में मुख्यमंत्री प्रदेश में घटने वाली प्रत्येक घटना का जिम्मेवार होता है तो ये फार्मूला कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होना चाहिये । यथा मुंबई और असम समेत विभिन्न प्रदेशों में हुये दंगों के लिये भी मुख्यमंत्रियों को कटघरे में खड़ा होना पड़ेगा । गुजरात में दस वर्ष पूर्व घटित घटना के लिये यदि मोदी को आज भी कोसा जाता है तो तरूण गोगोई और पृथ्वीराज चव्हाण निर्दोष कैसे माने जा सकते हैं? कांग्रेस और देश के अन्य तथाकथित सेक्यूलरों का ये निकृष्ट रवैया क्या न्याय के दोहरे मापदंडों को नहीं दर्शाता?
राजनीति के वर्तमान तौर तरीकों को देखकर तो यही लगता है कि या तो आज के राजनेता मानसिक रूप से विक्षिप्त हो चुके हैं अथवा उनका लक्ष्य सस्ता मुद्दे उछालकर कुर्सी हथियाना मात्र रह गया है । बीते दिनों प्रसिद्ध मुस्लिम नेता और वाइंट कमेटी के अध्यक्ष सैयद शहाबुद्दीन ने एक विवादास्पद बयान दिया । उन्होने खासे हास्यास्पद ढ़ंग से वोट बैंक का लालीपाप दिखाकर मोदी को गुजरात दंगों के लिये माफी मांगने को कह डाला । बात यहां तक तो फिर भी ठीक थी लेकिन हद तो तब हुई जब हैदराबाद के सांसद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष अकबरूद्दीन ओवैसी ने कहा कि नरेंद्र मोदी को अपनी बाकी जिंदगी जेल में बितानी चाहिये । मोदी को यदि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो परिणाम भयानक होंगे । विचारणीय प्रश्न है इस तरह के राजनीतिक बयान क्या साबित करते हैं ? ये तो हद ही हो गई कोई माफी मंगवा रहा है तो कोई गंभीर परिणामों की धमकी दे रहा है । क्या हम वाकई लोकतंत्र में जी रहे हैं ? कहीं हमारी राजनीति तुष्टिकरण की राह पर चलकर कबीलाई संस्कृति का गुलाम तो नहीं हो गई है ? बयान और भी हैं जिनसे आप और हम सभी परिचित हैं । इन बयानों से सिर्फ एक बात साबित होती है कि मोदी विरोध में जुटे ये सारे राजनेता व्यक्तिगत तौर पर उनकी कुशल प्रशासक की छवि से डरते हैं । यही कारण है महंगाई,भ्रष्टाचार और देशद्रोह जैसे मुद्दों पर भले ही सभी अपनी ढ़पली अपना राग बजाते हों लेकिन मोदी के विरोध को लेकर सारे मंदबुद्धि सेक्यूलर एकमत हैं ।
बहरहाल बात खुलासों की हो दिग्विजय जी की चर्चा न हो तो बात कुछ अधूरी लगती है । आपको याद होगा दिग्गी राजा ने कुछ दिनों पूर्व मोदीजी की पत्नी को ढ़ूढ़ निकाला । ये करके शायद उन्हे लगा होगा कि उन्होने सदी की सबसे बड़ी खोज की है । अफसोस की बात है उनकी इस खोज को लोगों ने नकार दिया । सोचने वाली बात इन तमाम घटनाओं से यदि यशोदा बेन को कोई समस्या नहीं है तो नहीं है तो दिग्विजय बाबू इतने परेशान क्यों हैं? इन सारी बातों को सामने रखने का मेरा प्रयोजन सिर्फ इतना दर्शाना है कि भारतीय राजनीति अपने निकृष्ट स्तर पर पहुंच गई है । यहां उसे पत्रकारों का भी भरपूर समर्थन मिल रहा है फिर बात चाहे ओछे विज्ञापनों की हो या उटपटांग न्यूज पैकेज की । नरेंद्र मोदी को पतित बताने वालों से मेरे भी कुछ प्रश्न हैं:
1ः गोधरा में 25 महिलाओं और 15 बच्चों समेत 59 लोगों को जिंदा जला देने की घटना को क्या न्यायसंगत कहा जा सकता है ?
2 कश्मीर में तैनात सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाना क्या देशद्रोह नहीं है ?
3 देश की भावना के विपरीत शरीयत कानूनों की मांग कहां तक जायज है ?
4 गोधरा दंगों पर जहर उगलने वालों को क्या दस वर्षों से शांतिपूर्ण ढ़ंग से विकास के सोपान चढ़ता गुजरात नहीं दिखता ?
5 मंदबुद्धि सेक्यूलरों के इस आचरण से क्या भारतीय चुनाव पद्धति का अनादर नहीं होता ?
ऐसे और भी कई क्यों हैं जो आमजनमानस के जेहन में दर्ज हैं । मोदी को मुस्लिम विरोधी बताने वाले अक्सर ये भूल जाते हैं कि अन्य राज्यों की अपेक्षा गुजरात में मुसलमानों की प्रतिव्यक्ति आय सबसे ज्यादा है । बात अगर सरकारी नौकरियों की करें इसमें मुसलमानों की भागीदारी 9 प्रतिशत से ज्यादा है और तो और गुजरात पुलिस में भी मुसलमानों की संख्या अन्य प्रदेशों की तुलना में कहीं ज्यादा है । अंततः ये सारे आंकड़े सरकारी हैं जिसका सरोकार कहीं न कहीं सेक्यूलर कांग्रेस सरकार से जुड़ा है । ऐसे में अगर दुश्मन भी आपकी तारीफ करे तो ये तो मानना ही पड़ेगा कि गुजरात ने वाकई तरक्की की है ।

Friday, November 23, 2012

फांसी के पीछे की स्याह सियासत: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’



देश की अखंडता पर कुठाराघात करने वाले कसाब को इस दुनिया से रूखसत हुए 48 घंटे से भी ज्यादा हो गये । इसके बावजूद आमजन की चर्चाओं में वो आज भी जिंदा है । ये बात कहने से मेरा आशय है उसकी मौत पर छिड़ी सियासी चर्चाएं । स्मरण रहे कि आमजन के बीच होने वाली चर्चाओं को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलती,अतः आमजन के बीच चल रही बातें एक स्तर के बाद दम तोड़ देती हैं । अब जब की कसाब मर चुका है तो माजरा है उसकी मौत का श्रेय लूटने का । बड़े अफसोस की बात है कि कांग्रेसी नेता बयान देते वक्त आगे पीछे कुछ भी नहीं सोचते । उनकी ये गलतफहमी की जनता बेवकूफ है,कई बार ऐसे बयान भी दिलवा देती है जिससे उनके आपस के बयानों में ही विरोधाभास साफ झलकने लगता है । यथा महाराष्ट सरकार में राक्रांपा पार्टी के कोटे से गृहमंत्री की कुर्सी पर विराजमान आर आर पाटिल ने कहा कि वो इसकी तैयारी दो महीने पहले से कर रहे थे । इस मामले में जमीनी हकीकत जो अखबारों और अन्य  विश्वस्त सूत्रों से हमारे सामने आई वो ये है कि कसाब की दया याचिका प्रणब दा ने इसी महीने की 5 तारीख को नामंजूर की थी । विचारणीय प्रश्न है कि जो मुद्दा 5 नवंबर तक अधर में था उस पर कैसी तैयारी ? दूसरी बात या तो उन्हे भविष्य का पूर्वानुमान हो जाता है? तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि एक प्रदेश का गृहमंत्रालय संभालने वाले नेता की केंद्र के फैसलों में कितनी दखल होती है? बहुधा तो नहीं होती यदि वास्तव में ऐसा है तो ये खेदजनक बात है । जो मामला सर्वोच्च न्यायालय से होते हुए सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचा उस मामले में पाटिल साहब की क्या भूमिका रह जाती है? अतः प्रथम दृष्टया अगर देखें तो ये मामला साफतौर बयानबाजी से समां लूटने का ही लगता है । बहरहाल कांग्रेस में बयानों से सनसनी फैलाने वाले नेताआंे की एक पूरी कतार है । इस मामले में अगला बयान आया माननीय शिंदे साहब का तो उन्होने अपनी महत्ता दर्शाने में कोई कसर नहीं उठा रखी । उन्होने कहा कि इस बात की खबर सोनिया जी तो दूर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को नहीं थी । सोचिये उनके इस बयान से क्या संदेश क्या निकलते हैं ? मनमोहन जी का अपने मंत्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है ? अथवा केंद्र सरकार के मंत्रियों के बीच किसी भी बड़े मुद्दे पर निर्णय लेने से पूर्व आपसी चर्चा तक नहीं होती ? स्मरण रहे कि ये शिंदे साहब वही व्यक्ति हैं जिन्होने गृह मंत्रालय संभालने के तत्काल बाद कांग्रेस की परंपरा का निर्वाह करते हुए माननीय सोनिया जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी । व्यवहारिक तौर पर भी देखें कांग्रेस पार्टी का कोई भी निर्णय गांधी परिवार की बगैर सहमति के नहीं लिया जाता । इसी क्रम में कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं ने भी शब्दों की लफ्फाजी से गुरेज नहीं किया । अतः इन सभी बातों का सार तत्व बस इतना है कि इन्ही बयानों के माध्यम से कांग्रेस अपने इस मजबूरन लिये गये फैसले को बासी नहीं पड़ने देना चाहती ।
उपरोक्त पंक्तियों में प्रयोग किये गये शब्द मजबूरन लिये गये फैसले से मेरा आशय स्पष्ट है । एक ऐसा फैसला जिसको लिये बिना सत्ता का संचालन फिलहाल मनमोहन जी के लिये मुश्किल हो चला था । इस बात को कुछ दिनों पूर्व ही लिये गये मुलायम सिंह यादव के निर्णय से समझा जा सकता है । उन्होने  आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश की 55 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी । प्रत्याशियों की घोषणा के समय दिये अपने बयान में उन्होनें सपा कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन करते हुए कहा था कि देश में मध्यावधी चुनावों की पूरी संभावना है । यह भी संभव है कि आगामी चुनाव 2014 के स्थान पर 2013 में ही हो जाएं । ध्यातव्य हो कि सरकार को बाहर से समर्थन देकर स्थिर बनाये रखने वाले दल के प्रमुख नेता का ये बयान क्या प्रदर्शित करता है? दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की ही एक अन्य सियासी सूरमा मायावती के तेवर विगत कुछ दिनों से बदल रहे हैं । इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है उत्तर प्रदेश के सपा और बसपा जैसे दोनों ही दल सियासी मजबूरियों के चलते कांग्रेस समर्थित सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं । इन हालातों में इनमें से कोई भी दल कड़े तेवर दिखाता तो दूसरा अपने आप ही बगावत कर सरकार को गिरा देगा । इस वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए मनमोहन सरकार पर बढ़ते दबाव का सहज ही अंदाजा लगाय जा सकता है । महंगाई,घोटाले समेत विभिन्न मुद्दों में घिरी कांग्रेस को वापसी के लिये पलटवार करना मजबूरी बन गया था । अतः कसाब की फांसी ने कहीं न कहीं कांग्रेस को बड़ी राहत दे दी है । अर्थात उसे एक ऐसा मुद्दा मिल गया है जिसपे यदि सरकार जाती है तो उसे जनता की सहानुभूति मिलने की पूरी संभावना है ।
इस मामले के दूसरे पक्ष को देखें तो वो और भी प्रासंगिक है । गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव,इन चुनावों के पूर्व के कांग्रेसी इतिहास को उठाकर देखें तो कांग्रेस गुजरात में अपनी आखिरी संासें गिन रही है । अब प्रश्न है कांग्रेस को आगामी चुनावों में अपना अस्तित्व प्रदर्शित करने का । यहां सबसे मुख्य बात है नरेंद्र मोदी का बढ़ता कद । गुजरात के समीकरणों को अगर ध्यान से देखें तो यहां का राजनीतिक समीकरण कांग्रेस अथवा भाजपा बनाम नहीं रह गया । यहां का मामला नरेंद्र मोदी बनाम अन्य हो चुका है । इस बात को लाख दरकिनार करने का प्रयास किया जाय लेकिन गुजरात का बीते दस वर्षों का इतिहास तो यही साबित करता है । इस मुद्दे पर अमेरिका,ब्रिटेन समेत विभिन्न बड़े देशों की मुहर लग जाने से ये बात कांग्रेस के गले में फांस की तरह चुभ रही है । तब से अब में कुछ भी नहीं बदला है न तो कांग्रेस ने कोई बड़ा तीर मारा और न ही मोदी का नाम किसी घोटाले के साथ जुडा है । इस बात को कांग्रेस द्वारा विभिन्न न्यूज चैनलों पर चलाए रहे विज्ञापनों से भी समझी जा सकती है। अंततः कांग्रेस जिस बात से अति उत्साहित है वो है केशु भाई पटेल की बगावत । कांग्रेस इस मुद्दे को भुनाने में कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती । हांलाकि ये सब कर के भी कांग्रेस एक भारी भूल कर रही है कि फिलहाल मोदी के व्यक्तित्व को इस तरह की बगावतों से कोई फर्क नहीं पड़ता । फिर चाहे बात शंकर सिंह बाघेला की हो या संजय जोशी की अथवा अब केशुभाई पटेल की । नरेंद्र मोदी की इस अजेय छवि का संबंध कहीं न कहीं उनके देश प्रेम से जुड़े सरोकारों को भी जाता है । ऐसे में कसाब जैसे आतंकी को जिसे चार साल तक भली भांति पाला पोसा गया को अचानक फांसी देने का क्या तुक बनता है । कारण स्पष्ट है स्वयं को देशभक्त दल के रूप में जनता के बीच प्रस्तुत करना ।
कसाब को अचानक फांसी देने का एक कारण और भी हो सकता है । शतरंज के खेल में शह और मात के बीच राजा को बचाने के लिये कई बार प्यादों की बली भी दी जाती है । जहां तक कसाब का प्रश्न है तो वो पाकिस्तान से चलने से पूर्व ही इस तल्ख हकीकत से भली भांति परिचित था कि उसे मरना है । उसकी भूमिका निश्चित तौर पर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को खौफजदा करने से जुड़ी थी । यहां प्रश्न उठता है कि क्या हमारे राजनेता अपनी देश से जुड़ी जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर पाये ? जवाब हमेंशा ना में ही मिलेगा । कसाब की फांसी की घटना को भी देखीये तो ये भी मजबूरी में लिया गया निर्णय लगता है । अन्यथा क्या वजह है कि कसाब की फांसी का कोई भी आधिकारिक वीडियो सरकार द्वारा जारी नहीं किया गया ? वीडियो तो दूर की बात है भारत सरकार ने उसकी मृत फोटो तक जारी करने की जहमत नहीं उठाई । यहां सबसे बड़ी बात है जल्दबाजी में उसे यरवदा जेल में दफना देना । इन सारे तथ्यों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ये सरकार का दृढ़ता से लिया गया नहीं वरन मजबूरी में लिया गया निर्णय है । मामले को अंजाम तक पहुंचाने तक की गोपनीयता की बात तो समझ में आती है लेकिन उसके बाद की गोपनियता वाकई संदिग्ध है । किस बात से डरी हुई थी सरकार ?या ऐसे कौन से लोग हैं जिन्हे कसाब की मौत से कष्ट हुआ होगा? बताने की आवश्यकता नहीं है कि वे लोग कौन हैं । अब ये बात यहीं से अफजल गुरू तक पहुंच जाती है । स्मरण रहे कि संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरू की फांसी का मामला कसाब से तीन वर्ष पूर्व का है । अगर वैधानिक प्रक्रियाआंे के हिसाब से क्रमवार सजा देने की बात की जाय तो अफजल गुरू का क्रम निश्चित तौर पर कसाब से पहले ही आता । क्या वजह है अफजल के मामले को लटकाने की? ध्यान दीजियेगा कांग्रेस की राजनीति शुरूआत से ही वोटबैंक केंद्रित रही है । इस दल पर अक्सर ही तुष्टिकरण अथवा बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देने के आरोप भी लगते रहे हैं । कांग्रेस ऐसा कोई भी निर्णय नहीं ले सकती जिससे उसका परंपरागत वोट बैंक नाराज हो । आगामी लोकसभा में अपनी वर्तमान छवि को देखते हुए उसकी वापसी भी असंभव ही है । ऐसे में एक तीर से दो शिकार करना कांग्रेस की सियासी मजबूरी थी । कसाब पर कठोर निर्णय से एक ओर तो देशभक्त मतदाताओं में उल्लास है तो दूसरी ओर इस मामले को हवा देकर उसने अफजल गुरू को संास भी दे दी है । इस बात एक कांग्रेसी कद्दावर के बयान से बखूबी समझा जा सकता है जिसमें उन्होने कहा था कि अफजल की फांसी से सुलग उठेगी काश्मीर की घाटी । ये बात क्या साबित करती है क्या देश की सत्ता पर चरमपंथियों का अघोषित कब्जा है ? अतः मास्टर माइंड को बचाने के लिये निश्चित तौर पर  प्यादे की बली देना आवश्यक हो गया था । अंततः कांग्रेस के इस चरित्र पर दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां काबिलेगौर हैं:
         अब किसी को भी नजर आती नहीं कोई दरार,
           घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार ।

Thursday, November 22, 2012

क्या बाकियों के फंदे तैयार हैं: सिद्धाथ मिश्र‘स्वतंत्र’

मुंबई हमले केे दोषी कसाब की फांसी ने जाहिर तौर पर देशवासियों को सुकून दिया है । इस विषय में सबसे महत्पूर्ण बात यह है कि भारत सरकार द्वारा यह निर्णय मुंबई में हुये इस हमले की चैथी बरसी के ठीक पांच दिन पूर्व लिया गया । गौर करने वाली बात है कि सियासत और आमजनमास के विचारों में प्रायः विरोधभास पाये जाते हैं । इस मुद्दे पर भी यह  विरोधाभास स्पष्ट रूप से सामने आ ही गया । इस ऐतिहसिक हमले के खल पात्र कसाब की फांसी पर जहां एक ओर जनमानस ने संतोष व्यक्त किया तो दूसरी ओर राजनेताओं ने इस मुद्दे की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने से गुरेज नहीं किया । बहरहाल जो भी हो इस निर्णय से निकले संदेश निश्चित तौर पर स्वागत योग्य हैं । हांलाकि इस फैसले से एक ओर जहां आमजन में हर्ष है तो दूसरी ओर कई प्रश्न भी उठ खड़े हुये हैं ।
इस विषय मे सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या ये फैसला इस कतार में शामिल बाकियों के लिये चेतावनी है? अथवा कसाब से शुरू हुआ ये सफर कुख्यात आतंकी अफजल तक कब पहुंचेगा ? सबसे बड़ी बात ये है कि इस बड़े फैसले के बावजूद पाकिस्तान के दोगले रवैये में कोई अंतर आता नहीं दिखता । ये बात आवश्यक इसलिये भी है  िकइस हमले का मास्टर माइंड आज भी सरहद के उस पार सुरक्षित बैठा है । ज्ञात हो कि मुंबई पर हुये इस विभत्स हमले में कसाब की भूमिका मात्र एक मोहरे की ही थी । इस मोहरे को उसके अंजाम तक पहुंचाने में यदि चार साल लगे तो आकाओं का नंबर आने में कितने वर्ष और लगेंगे ? कसाब और निश्चित तौर पर मौत के खौफ से बेखौफ होकर ही भारत आए थे । बाकी नौ तो मौके पर ही मारे गये और जीवित कसाब को सजा देने में हमें नाकों चने चबाने पड़े । सबसे बड़ी बात ये है कि अगर उसकी फांसी को इतने गोपनीय ढ़ंग से अंजाम न दिया गया होता तो आज हालात कुछ दूसरे होते । देश में दंगे की आंशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है । ऐसे में ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि कसाब जैसे लोगों को संरक्षण देने का दोष कहीं न कहीं सेक्यूलर लोगों का भी है । हां इस पूरे मामले जो एक बात संतोषजनक है वो है कसाब की मौत और भारतीय न्याय प्रक्रिया के विपरीत इस मामले का शीघ्रता से निपाटारा ।
यहां एक और बात विचारणीय है हमने भले  ही कसाब को फांसी दे दी लेकिन कुटनीति की बिसात पर उसका अस्तित्व एक प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं था । एक ऐसा प्यादा जिसके जीने या मरने से खिलाड़ी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है । अगर हमने भारत की सरजमी पर रक्तपात मचाने वालों को सबक सिखाने की ठान ली है तो शीघ्र ही कुछ और कठोर निर्णय लेने होंगे । जहां तक भारतीय राजनीति के इतिहास का प्रश्न का ये सर्वथा इसके विपरीत रहा है । अर्थात भारत के राजनेताओं ने हमेशा ही वोटबैंक की राजनीति के चक्कर में निर्वीय समझौते किये हैं । ऐसे समझौते जिनसे निश्चित तौर पर भारत की वैश्विक छवि भी धूमिल हुई है । यथा चीन द्वारा कब्जा किये गये 20 हजार वर्ग किमी भूमि की वापसी के लिये कोई पहल नहीं करना अथवा संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजाल गुरू पर निर्णय न ले पाना । इसके विपरीत भारत के पड़ोसी पाकिस्तान की नीति इसके सर्वथा उलट है । भारत के लापरवाह रवैये के कारण ही हाफिज सईद जैसे कुख्यात आतंकी पाकिस्तान मे खुलेआम आग उगल रहे हैं । इन परिस्थितियों में पाकिस्तान से मदद की उम्मीद करना शेखचिल्ली के दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है ।
अतः अब वक्त है हमें अपनी रक्षा नीति की पुनः समीक्ष करने का । कसाब के मामले को ही ले लीजिये निचली अदालत समेत सर्वोच्च न्यायालय से कसाब की सजा की पुष्टि के बावजूद भी प्रतिभा पाटिल द्वारा मामले को लटकाये रखना क्या देश की भावनाओं के साथ मजाक नहीं था ? अगर था तो ये अंधेर कब तक चलेगा कि शहीदों के परिवार अपने मेडल लौटाते रहें और संविधान के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति कान में तेल डालकर सोते रहें । सबसे महत्वपूर्ण बात है कि कसाब की कड़ी में अभी भी लगभग सोलह लोगों के नाम और भी हैं । इन नामों में अफजल गुरू,और बलवंत सिंह राजनौरा जैसे कुख्यात लोगों के नाम भी हैं । जानकारों के अनुसार कसाब की फांसी इसलिये हो पायी क्योंकि केंद्र सरकार को कहीं से प्रतिकूल प्रतिक्रिया की आशंका नहीं थी । जबकि अन्य अभियुक्तों के मामले स्थिति बिल्कुल उलट है । इस बात को हम एक केंद्रिय मंत्री के बयान से भी समझ सकते हैं । अपने बयान में मंत्री महोदय ने कहा था कि अफजल गुरू को फांसी देने से सुलग उठेगी कश्मीर घाटी । सोचने वाली बात है कि घाटी के लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखकर हम देशद्रोहियों को पालते रहेंगे ? यदि किसी की भावनाएं देशहित के विरूद्ध हो तो भाड़ में जाए ऐसी भावनाएं । हम यदि आतंकवाद पर लगाम लगाने की इच्छा रखते हैं तो हमें वोटबैंक की राजनीति को दरकिनार करना होगा । अतः इस फैसले पर इतराने से पूर्व हमें एक बार ये जरूर सोच लेना चाहिये कि क्या बाकी आतंकियों के लिये फंदे तैयार हैं ?


Wednesday, November 21, 2012

सत्ता का सकारात्मक संदेश: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

आज की सुबह कई मायनों में अलग थी । सुबह सवेरे पुणे के निकट यरवदा जेल में  कसाब को फांसी लगने की सूचना ने कहीं न कहीं आम जन के मन में सत्ता के प्रति विश्वास की बहाली की है । ध्यातव्य हो ये वही कसाब है जो 26 नवंबर 2008 को मुंबई के दौरान एकमात्र पकड़ा गया जीवित आतंकी था । इस दुर्दांत हमले में 238 लोग घायल और 166 लोगों की मौत हो गयी थी । मुंबई पर हमले की चैथी बरसी के ठीक पांच दिन पूर्व कसाब को फांसी पर लटकाना वास्तव में एक सकारात्मक संदेश है । नब्बे के दशक से आतंकवाद झेल रहे भारत को ऐसे कदम बहुत पहले उठाने चाहीये थे । खैर देर आये दुरूस्त आये अंततः कसाब को अपने कुकर्मों की सजा मिल गई । इस अवसर पर हमें निश्चित तौर पर महामहीम प्रणब दा के प्रति आभारी होना चाहीये । ध्यान देने वाली बात है कि राष्टपति के पास दया याचिका जाना कोई नयी बात नहीं है । उनके पूर्व भी कई लोग इस कुर्सी पर विराजे लेकिन आतंकियों के मामले पर उनकी संदिग्ध चुप्पी ने निश्चित तौर पर इस पद की गरिमा कलंकित की है । ध्यान रहे कसाब का मामला प्रणब दा के पूर्व का है लेकिन पूर्व महामहीम को अपने विदेशी दौरों फुर्सत नहीं मिल सकी । अतः इस मामले का श्रेय प्रणब दा को जाता है । उनके इस निर्णय ने भारत के इस संवैधानिक पद की गरिमा को बढ़ा दिया है ।
26 नवंबर के कुख्यात आतंकी अजमल कसाब की फांसी से पूरे विश्व में सकारात्मक संदेश मिला है । इस संदेश से ये स्पष्ट है कि कभी आतंकियों के लिये साफ्ट टार्गेट माना जाने वाला भारत भी आतंकियों को कठोर दंड दे सकता है । असल में देखा जाय तो आतंक के प्रति ढ़ुलमुल रवैया अपनाने की वजह से भारत आतंकियों का मनपसंद शिकारगाह बन गया । इस में आतंकियों से कहीं ज्यादा गलती उन सेक्यूलर लोगों की है जो देशद्रोही के मानवाधिकारों की वकालत करते नहीं थकते । ऐसे लोगों से मेरा एक सीधा सवाल है कि क्या आतंक से पीडि़त लोगों के मानवाधिकार नहीं होते? यदि होते हैं तो सैकड़ों लोगों को बेदर्दी से मार डालने वाले आतंकियों के कैसे मानवाधिकार ? बहरहाल जो बातें बीत गई उन पर बात करने से विशेष लाभ नहीं होता । यहां विचारणीय प्रश्न है हमारी सुरक्षा व्यवस्था और न्यायपालिका के सुराख । अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था चाक चैबंद होती तो क्या कसाब और उसका दस्ता भारत में इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे पाता । और अगर हमारी न्यायपालिका पर सियासत हावी न होती तो कसाब कब का फांसी पर लटक चुका होता । इस सारी घटना से सबक सिर्फ इतना मिलता है कि हमें अपनी शासन व्यवस्था के ये दोनों सुराख बंद करने होंगे । ये करने के लिये हमें दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी । ये इच्छाशक्ति जो आज प्रणब दा ने दिखायी वो माननीया प्रतिभा जी भी दिखा सकती थी । किंतु उनके कार्यकाल को देखकर बहुधा ऐसा भ्रम हुआ किवे भारत का विदेश मंत्रालय संभाल रही हों ।
वस्तुतः अगर देखा जाय तो भारत मूलतः चर्चाओं का देश है । यहां चर्चाओं का बाजार हमेशा गर्म रहता है । अतः आज इस बड़े मुद्दे पर चर्चा तो लाजिमी है । कसाब की फांसी के साथ ही टीवी समेत विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चर्चा का बाजार गर्म रहा । किसी ने कहा कि कसाब फांसी के पूर्व ही डेंगू से मर गया तो किसी ने उसकी फांसी पर ही संदेह जताया । आपरेशन एक्स के नाम से अंजाम दी गयी इस गोपनीय कार्रवाई की हकीकत देर सवेर तो सामने आ ही जाएगी । गृहमंत्री समेत विभिन्न बड़े अधिकारियों के कैमरे के सामने दिये गये बयान को अगर सच माना जाय तो कसाब मर चुका है । सोचने वाली बात है कि कोई भी व्यक्ति कैमरे के सामने इतना बड़ा झूठ बोल सकता है? जवाब हमेशा ना में ही मिलेगा । तो बेवजह कसाब के जीवित होने की आशंका जताने से क्या प्रयोजन ?
सबसे बड़ी बात ये भी है कि कसाब के मरने या ना मरने की बात प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने नहीं उठाई । अगर नहीं उठाई तो इसका सीधा सा अर्थ उसे भी कसाब की मृत्यु का पूर्ण विश्वास है । ऐसे में एक अच्छे फैसले की निंदा का कोई प्रयोजन नहीं है । ये समय है प्रणब दा और आपरेशन एक्स से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को बधाई देने का । ये समय है लोकतांत्रिक विजयादशमी मनाने का । जहां तक भारतीय राजनीति का प्रश्न है तो वास्तव में ये दिग्भ्रमित और दो धड़ों में विभक्त है। इसका पहला धु्रव है तथाकथित सेक्यूलर तो दूसरे धु्रव पर हैं दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग । इनमें से सेक्यूलर आतंकियों के मानवाधिकार का रोना रोते हैं,तो दक्षिणपंथी अपनी विचारधारा का । गौर से देखा जाय तो दोनो का अपनी विचारधारा से कोई लेना देना नहीं रह गया है । यथा सेक्यूलरों को आतंकियों का दर्द तो दिखता है लेकिन सुरक्षाबल के जवानों की शहादत पर उनकी संवेदना मर जाती है । दूसरी ओर दक्षिणपंथी अपने दल को गंगाजल मान बैठे हैं अर्थात वो गलत हो ही नहीं सकते । इन दोनों के विस्तार को अगर देखें तो निश्चित तौर पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इन दोनों का प्रयोजन देशप्रेम से तो कत्तई नहीं है। अगर ऐसा होता तो देश की सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर दोनों के मत एक हो जाते । अतः लोकतंत्र के पहरूओं से मेरा विनम्र निवेदन है सत्ता के इस सकारात्मक संदेश का स्वागत करें । अंततः प्रणब दा का ये निर्णय मुझे टीएन शेषन की याद दिला गया । आपको याद होगा कि चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते है उन्होने बड़े बड़े राजनीतिक सुरमाओं को नाकेां चने चबवा दिये थे । संक्षेप में कहा जाए तो प्रणब दा के इस फैसले से बहुत सी उम्मीदें जगी हैं । आशा है कि वे भविष्य में इस तरह के सख्त निर्णय लेकर अपने पद को और भी गौरवान्वित करेंगे। कहने वाले कुछ भी कहें परंतु देश को राजेंद्र बाबू के बाद पहला ऐसा व्यक्ति मिला जिसने इस कुर्सी के प्रति अपनी उपयोगिता सिद्ध की है । अगर आपको मेरी ये बात गलत लगे भारतीय इतिहास में इस पद पर बैठै किसी अन्य व्यक्ति के ऐसे साहसिक निर्णय की मिसाल ढ़ूंढ़कर बताइये ।

Tuesday, November 20, 2012

स्ंतों की घटती स्वीकार्यता एक विवेचना: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

धर्म का मुख्य उद्देश्य है लोगों को सदाचारी  एवं सद्गुण संपन्न बनाना । वस्तुतः अपनी इन्ही आंतरिक विशेषताओं  के कारण धर्म की प्रासंगिकता प्रायः हर देश और समाज में एक समान  है । आपाधापी एवं सामाजिकता कटुता के तप्त मरूस्थल के बीच कल्पवृक्ष के रूप में विद्यमान है धर्म । अतः आज भी सांसारिक पक्ष से पीडि़त मनुष्य मंदिरों,मस्जिदों या चर्चों में शरण ढ़ूंढ़ता है । ध्यान देने वाली बात है कि अब मंदिरों मस्जिदों में भगवान नहीं मिलते । यहां अगर मिलते हैं तो भगवान और आम आदमी के बीच बैठे धर्म के बिचैलिये । वर्तमान परिप्रेक्ष्यों के आधार पर भगवान और भक्त के बीच बैठे इन्हीं बिचैलियों को संत कहा जाता है । अफसोस की बात तो यही है कि इन तथाकथित संतों का चरित्र संत शब्द के अर्थों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । हमारी सनातन मान्यताओं में सन्यास का अर्थ होता संसार से विरक्ति । यहां विरक्ति से आशय ये नहीं है कि वो कोई असामाजिक प्राणी है,यहां विरक्त होने का अर्थ है संसार की भौतिक संपदाओं से परे होना है ।
मान्यताओं के अनुसार मनुष्य के आध्यात्मिक विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा है भौतिक संसाधनों की वासना । यहां वासना से आशय है कभी भी न बुझने वाली प्यास है । ध्यातव्य है कि भौतिक जरूरतों  का अंततः कोई अंत नहीं होता । यथा साइकिल से बाइक और फिर कार । सांसारिक मनुष्य की वासनाओं का कोई अंत नहीं होता । अगर यही वासनाएं संत या मौलवी कहे जाने वाले तथाकथित सर्वमान्यों के चरित्र में पाई जायं तो इसे क्या कहा जायेगा ?ध्यान दीजीयेगा आज संतों को ऐसा लगता है की उनकी पहचान उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उनके संसाधनों से होती है । यथा वो टीवी पर कितनी बार आते हैं,कितनी लंबी गाड़ी में सफर करते हैं । इस बात को प्रमाणित करने के लिये मुझे अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है । निर्मल बाबा सरीखे ढ़ेरों ऐसे सन्यासी मिल जाएंगे जो समोसे से किस्मत बदलने का दावा करते हैं । सबसे जरूरी बात ये है कि ये सभी तथाकथित  संत स्वयं को जिस परंपरा का झंडाबरदार बताते हैं,उनका अपनी गुरू परंपरा से भी कोई लेना देना नहीं होता । कहने का आशय है कि प्रत्येक महंत या मौलवी अपने शुरूआती दिनों में किसी ना किसी गुरू के सानिध्य में ज्ञान प्राप्त किया है । यहीं असली विरोधाभास खड़ा होता है ,मेरे या आप सब के जानने में लगभग सभी प्राचीन गुरूओ ं का जीवन त्यागमय रहा है । वे अपने सामान्य आवागमन के लिये पजेरो या सफारी के परतंत्र नहीं थे । शायद यही वजह रही कि वे मानव जीवन से जुड़ी समस्याओं को बखूबी समझते थे । ऐसे में उनके प्रति लोगों का झुकाव स्वाभाविक था ।
संत जीवन को समझने के लिये कबीरदास के ये दोहे समझने आवश्यक हैं ।
चाह गई चिंता गई मनवा बेपरवाह,जिनको कुछ नहीं चाहीये वो शाहन के शाह ।
सदा दिवाली संत घर , जो गुड़ गेहूं होय
इन दोनों पंक्तियों में एक संत के जीवन का समस्त सार तत्व समाहित है । इस बात को स्पष्ट करने के लिये मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा । विश्व विजय पर निकलने से पूर्व सिकंदर अपने गुरू डायनोसिस से मिलने गया । उस वक्त वो एक गुफा में साधना कर रहे थे । सिकंदर उनके सामने पहुंचा तो उन्हेाने पूछ लिया कि तुम्हारी भावी योजना क्या है । सिकंदर ने कहा महाराज मैं विश्व विजय अभियान पर निकल रहा हूं । मेरी लक्ष्य पूरे विश्व पर एकत्र राज्य करना है । सिकंदर की ये बातें सुनकर उन्होने पूछा कि इससे क्या लाभ होगा । सिकंदर ने कहा महाराज मुझे प्रसन्नता होगी । सिकंदर से इस जवाब पर उन्होने कहा कि इसका विश्व विजय में क्या  संबंध है ? मैं तो स्वयं पर विजय पाकर ही प्रसन्नता पा गया हूं ।
यहां इस कथा को रखने का प्रसंग सिर्फ इतना ही है व्यक्ति की प्रसन्न्ता स्वयं उसमें अन्तर्निहीत होती है । वास्तव में मनुष्य की दुर्दशा की प्रमुख वजह है उसकी स्वयं की दुर्बलता । अब अगर ऐसे ही हालात स्वयं को ईश्वर का प्रवक्ता बताने वालों के भी हैं तो उन्हे सिद्ध तो कत्तई नहीं कहा जा सकता ? इस बात को समझाते हुये कबीर दास ने कहा था कि:
नहाये धोये का भया जो मन मैल न जाय,मीन सदा ज लमे रहे धोये बास न जाय
अर्थात व्यक्ति की वेशभूषा नहीं वरन उसकी चारित्रिक सुदृढ़ता उसके आत्म विकास की परिचायक होती है । अगर आपकी आत्मा शुद्ध नहीं है तो भगवा या धवल वस्त्र धारण करने से आप सन्यासी नहीं हो सकते । अगर गौर से देखा जाय तो आज कल ढ़ोगियों ने भगवा वस्त्र को सन्यासी का यूनीफार्म बना डाला है । हंसी तो तब आती है जब स्वयं एसी गाडि़यों में सफर करने वाले ये सन्यासी अपने प्रवचनों में त्यागमय जीवन शैली अपनाने को कहते हैं । एक ऐसी जीवन शैली जिससे उनका स्वयं दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं । अतः संक्षेप में कहा जाय तो धर्म के ये ठेकेदार आज धर्म की फें्रचाइजी चला रहे हैं । जिसने जितना धन दिया वो उतना बड़ा धार्मिक । फिर चाहे वो धन काला हो या सफेद इनका प्रयोजन तो सिर्फ धन से है । अब बताइये कि ऐसे व्यक्तियों का क्या ईश्वर से साक्षात्कार हो सकता है । अफसोस होता है रोजना न्यूज चैनलों पे ढ़ोंगियों  के नये खुलासे देखकर । चोरी,तस्करी,बलात्कार जैसे संगीन अपराधों संलग्न लोगों को क्या सन्यासी कहा जा सकता है?
यहां ये बातें करने से मेरा ये आशय कत्तई नहीं कि मैं सन्यास की परंपरा का विरोधी हूं । मेरा विरोध इस परंपरा में आयी कुरीतियों से है । स्मरण आदि गुरू शंकराचार्य ने धर्म के रक्षार्थ पूरे भारत वर्ष में चार शंकराचार्य नियुक्त किये थे । आज के परिप्रेक्ष्य में देखीये तो शंकराचार्यों की संख्या कितनी है । वास्तव में भारत में धर्म देश हित से भी जुड़ा था । चाणक्य जैसे गुरू ने चंद्रगुप्त का निर्माण किया था । मुगलकाल में शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास को कौन भुला सकता है । इस तरह के ओजस्वी सन्यासियों की परंपरा से भरा पड़ा है हमारा इतिहास । इसी परंपरा की आखिरी कड़ी थे स्वामी विवेकानंद । एक गुलाम देश के नागरिक की हैसियत से तमाम कष्टों को सहते हुये भी उन्हे पूरे विश्व के समक्ष भारत को गौरवान्वित किया । आज कहां है ऐसे सन्यासी? ऐसे सन्यासी देखे हैं आपने जिन्हे थैलियों से नहीं भक्त के भाव से प्रयोजन है ?अब तो सन्यासी बहुधा घोटालेबाजों के पाले में खेलने से भी बाज नहीं आते । अपने बेचने की धुन में राम से लेकर गंगा तक क्या क्या नहीं बेचा इन्होने । अत: आज के हालात को देखते हुये ये कहा जा सकता है कि संतों की सामाजिक स्वीकार्यता में जबरदस्त कमी  आई है । इसकी जिम्मेदारी निश्चित तौर पर आम जन से कहीं ज्यादा तथाकथित संतों पर है ।

Monday, November 19, 2012

वैज्ञानिक एवं धार्मिक आस्था का महापर्व है छठ पूजा: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

लोकआस्था का महापर्व छठ प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास,शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से षष्ठी तिथि के बीच मनाया जाता है । शायद का ये संसार का पहला ऐसा पर्व है जहां उगते सूर्य के बजाय डूबते मार्तंड को अध्र्य दिया जाता है । अन्यथा सामाजिक मान्यताओं के अनुसार तो समाज उगते सूर्य को ही प्रणाम करता है । ऐसी ही कई अन्य अद्भुत संदेशों को स्वयं में समाये ये महापर्व प्रतिवर्ष भारत समेत जावा,मारिशस,त्रिनिदाद सुमात्रा जैसे कई देशों में मनाया जाता है । इस अवसर पर महिलाएं विशेष रूप से भुवन भाष्कर सूर्य से उनके सदृश तेजस्वी पुत्र पाने की कामना करती हैं । अर्थात इस पर्व के मूल में है सुहागिन स्त्रियों द्वारा षष्ठी माता से अपने पुत्र के लिये मंगल की कामना । इस बात को छठ पर्व के अवसर पर गाये जाने वाले  विभिन्न गीतों से भी समझा जा सकता है ।
छठ महापर्व की महत्ता को समझने के लिये हमें विभिन्न ऐतिहासिक संदर्भों का सूक्ष्मता से अवलोकन करना होगा । देवी भागवत के मतानुसार सृष्टि की रचनात्मक एवं क्रियात्मक शक्ति जिन्हे समस्त समस्त सृष्टि का उत्स भी कहा जा सकता है स्वयं सर्वेश्वरी आद्या शक्ति मां दुर्गा हैं । मां के समस्त स्वरूपों के विभाजन में छः मूल रूप हैं इन्हे राधा,मां दुर्गा,मां महालक्ष्मी,मां महाकाली,मां सरस्वती एवं मां चामुण्डा । मां के इन समस्त स्वरूपों को समझने के उपरांत वस्तुतः सृष्टि का कोई भी गूढ़ रहस्य समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती । देवी के इन समस्त स्वरूपों में रचनात्मक एवं क्रियात्मक कार्यों का संपादन कराने का श्रेय  उपशक्तियों को जाता है । महामाया दुर्गा की इन्ही उपशक्तियों के बहुविध नामों में सर्वप्रमुख नाम है मां षष्ठी का । अतएव संतान की मंगल कामना से प्रेरित होकर स्त्रियां इस महापर्व को मनाती हैं ।
मता षष्ठी का मुख्य कार्य है संपूर्ण मानव संतति की रक्षा करना । अतः मां षष्ठी का प्रथम पूजन आज भी सनातन धर्मियों द्वारा तब होता है,जब कोई नवजात छः दिन का होता है । अर्थात शिशु की छठी मनाने के मूल में भी मां षष्ठी की पूजा ही छुपी है । चार दिनों तक चलने वाले इस महापर्व की शुरूआत भैया दूज के तीसरे दिन होती है । सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन को नहा खाय कहा जाता है । इस दिन श्रद्धालु स्त्रियां गंगा नदी में स्नान के उपरांत वहां से लाये पवित्र जल से घर की शुद्धि करती हैं ततपश्चात पश्चात कद्दू की सब्जी के साथ शुद्ध भोजन ग्रहण करती हैं । इस मान्यता के पीछे भले ही गूढ़ हो लेकिन एक सामान्य सा संदेश है लोगों का प्रकृति से जुड़ाव । ध्यातव्य हो आपाधापी के वर्ष के सारे दिन स्त्रियां भले ही नदियांे से दूर रहती हों पर इस एक दिन उन्हे नदियांे की शरण में जाना ही पड़ता है । दूसरे तरीके से देखा जाय तो पूरे विश्व की प्यास बुझाने वाली ये नदियां वास्तव में मातृ स्वरूपा हैं । अतः लोगों को मातृ शक्ति से जोड़े रखने के लिये इस पर्व की पूजा नदियों के तट पर ही की जाती है।
स्मरण रहे कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण मूल रूप से पांच तत्वों से ही हुआ है । इन पंचतत्वों के प्रधान हैं सूर्य देव । सौरमंडल की समस्त गतिविधियों के नियंता हैं अतः षष्ठी पर्व को सूर्य उपासना के साथ सनातन परंपरा में संबद्ध कर दिया गया । पौराणिक रूप से अगर देखा जाये सूर्य पूजन से संयुक्त षष्ठी का सर्वप्रथम साक्ष्य अंगराज कर्ण द्वारा किये गये पूजन के रूप में होता है । चूंकि छठीं शताब्दी में अंग प्रदेश को मगध में मिला लिया गया था अतः इस पूजा के सर्वप्रथम साक्ष्य मगध में ही मिलते हैं । मगध का आशय यहां वर्तमान बिहार से है । बिहार में आज भी ये पर्व सबसे बड़े पर्व के रूप में ख्यातिलब्ध है । इस पूजा के कारण ही मगध प्रदेश प्राचीन काल में पूरे भारत वर्ष को संचालित करता था । आज भी अगर देखा जाय तो भारत की वर्तमान राजनीतिक दशा एवं दिशा इन सूर्य उपासक राज्यों पर केंद्रित है । अर्थात भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश एवं बिहार बड़ी धूरी बने हुए हैं । इन सबका श्रेय जाता है भगवान भुवन भाष्कर को । भारत समेत विश्व की अनेक सभ्यताओं में सूर्य को शक्ति का प्रतीक माना गया है ।
जहां तक इस पर्व की वैज्ञानिक मान्यताओं का प्रश्न है तो वो बिल्कुल स्पष्ट है । वैज्ञानिक एवं ज्योतिष शास्त्र के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो षष्टी एक विशेष खगोलीय अवसर है । इस अवसर पर सूर्य पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध में कंेद्रित होता है ।ऐसे में सूर्य की दूषित किरणों का सीधा प्रभाव मानव के शरीर पर पड़ता है । ध्यान दे ंतो शाम एवं सुबह के समय सूर्य की ये बेधक किरणें श्रद्धालुजन को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती । उपरोक्त आधारांे पर अगर देखा जाय तो इस व्रत के पारन एवं पूजन में इन वैज्ञानिक महत्व की बातों को भी समाहित किया गया है । संक्षेप मंे कहा जाय तो अपनी इसी विशिष्टता के कारण ही इस पर्व की वैज्ञानिक महत्ता को भी नकारा नहीं जा सकता ।
वस्तुतः छठ विश्व के प्राचीनतम पर्वों में से एक है । रामायण काल मे मां सीता,महाभारत काल में मां कुंती द्वारा इस व्रत को किये जाने के साक्ष्य हमारे पुराणों में मिलते हैं । इन ओजस्वी माताओं के यशस्वी पुत्रों की गौरव गाथा से हमारा इतिहास भरा पड़ा है । अतः अपने पुत्रों के यशवर्द्धन मंगलकामना से अभिप्रेरित होकर माताएं प्रतिवर्ष इस दुरूह व्रत को करती हैं । संक्षेप में अगर कहा जाये तो आमजन को प्रकृति,आस्था एवं वैज्ञानिक आधारों से जोड़ने वाला महापर्व है छठ ।

Friday, November 16, 2012

दागी बागी और परिवार,वाह रे समाजवादी सरकार: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

सूबे में समाजवादी पार्टी के युवा  नेतृत्व में चल रही सरकार से भले ही समाजवादियों को अक्सर ही फील गुड होता रहता है । इस बात की बानगी चैक चैराहों पर घूमते घामते सपा के कार्यकर्ताओं के तेवर से जानी जा सकती है । उत्साह से भरे सपाइयों के सुर कल तब बिगड़ गये जब माननीय मुलायम जी ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिये अपने प्रत्याशियेां के नामों की घोषणा की ।ऐसा होना लाजिमी भी था क्योंकि उनकी इस सूची को देखकर तो यही लगता है कि उनके शब्दकोष में फिलहाल के समाजवाद शब्द के ध्वंसावशेष भी नहीं बचे हैं । अर्थात समाजवाद की उनकी नयी नवेली व्याख्या फिलहाल सत्य और समाजवाद से कोसों दूर है । कल घोषित हुई 55 उम्मीदवारों के सूची में दागियों बागियों और मुलायम समेत सपा के बड़े नेताओं के परिवारों का दबदबा साफ दिखाई दिया । अब वाकई अगर यही समाजवाद है तो समाजवाद की ये व्याख्या वाकई पुरनिये समाजवादियों की समझ से भी परे हैं ।
कल की घोषित प्रत्याशियों की सूची में मुलायम परिवार से डिंपल यादव,धर्मेंद्र यादव,अक्षय यादव शामिल हैं । हांलाकि आने वाली सूची में मुलायम जी के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव का नाम जुड़ने की पूरी संभावना है । इसी तरह सपा के कुख्यात विधायक विजय मिश्र की सुपुत्री सीमा मिश्रा को भदोंही से,पंचायती राज्यमंत्री कमाल अख्तर की पत्नी हुमेरा को अमरोहा से,कृषि मंत्री आनंद सिंह के पुत्र कीर्तिवर्धन सिंह को गोंडा से और उद्यान मंत्री राजकिशोर सिंह के भाई बृज किशोर सिंह को बस्ती से टिकट दिया गया है । इस फेहरिस्त में अभी और भी विवादित एवं परिवारिक जनों के शामिल होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता । हांलाकि पार्टी प्रवक्ता और महासचिव रामगोपाल यादव ने सूची जारी करते हुये कहा कि अपने अधिकृत उम्मीदवारों की सूची सबसे पहले जारी करके सपा ने अन्य दलों पर बढ़त बना ली है । अब उनके इस अति आत्मविश्वास को क्या कहा जाये । बहरहाल सपा के इस प्रकार के टिकट बंटवारे कार्यकर्ताओं का मनोबल अवश्य गिरा है । अंततः सपा के इस नव समाजवाद को देखते हुये यही कहा जा सकता है कि दागी बागी और परिवार,वाह रे समाजवादी सरकार ।

Sunday, November 11, 2012

राम के नाम पर राजनीति बंद हो: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

विजयादशमी पर्व मनाकर हम प्रकाश पर्व दीपावली मनाने की ओर बढ़ चले हैं । प्रकाश पर्व दीपावली अर्थात असत्य पर सत्य की विजय एवं समस्त आसुरी शक्तियों का संपूर्ण शमन कर अयोध्या लौटे प्रभु श्रीराम की अगवानी का पर्व । प्रभु के अयोध्या आगमन पर नगरवासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया । ये परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है,प्रभु के आगमन में दीपों के प्रयोग के कारण ये पर्व दीपावली के रूप में जाना गया । इस बात को अगर वैदिक सूक्तियों में ढ़ूंढ़ने की कोशिश करें तो पर्व इन पंक्तियों में परिलक्षित होता है ।
असतो मा सद्गमय,तमसो मा ज्योतिर्गमय,मृत्यो मामृत ंगमय
अर्थात हे प्रभु मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो,अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चलो तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो । इस प्रसंग को यदि हम दीपावली की कसौटी पर रखकर देखें तो इसके उद्देश्य और भी स्पष्ट हो जाएंगे । यथा इस पर्व के मूल में है सत्यमेव जयते अर्थात धर्म की अधर्म पर विजय । राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक मात्र है कि आसुरी शक्तियां चाहे कितनी भी प्रबल हों अंततः वे सत्यनिष्ठ व्यक्ति से पराजित होती हैं । दूसरी पंक्तियों की बात करें तो वो तम से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती हैं । तम अर्थात अंधकार ये अंधकार सिर्फ रात का प्रतीक मात्र नहीं है । तम प्रतीक है हमारी समस्त चारित्रिक दुर्बलताओं का । जिनमें झूठ,ईष्र्या,असत्य,सभी प्रकृति के अनाचार समाहित हैं । इस बात को अगर आसान शब्दों में देखें तो अपराध अक्सर रात में सिर उठाता है अर्थात जब समाज तम या अंधेरे से घिरा हो । इसी तम के शमन की इच्छा से अयोध्यावासियों ने प्रतीकों के रूप में दीप जलाकर राम के नगर आगमन पर रात को दीपों के उजियारे से भर दिया था । तीसरी पंक्तियों की बात करें अर्थात मुझे मृत्यू से अमरता की ओर उन्मुख करो । यहां अमरता से आशय हर काल में जीवित रहने से नहीं है । इन पंक्तियों का संदेश स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने सदाचार से अपने मन के संपूर्ण विकारों का शमन कर डालता है,वही अजेय व्यक्ति अमर हो जाता है । अमर अर्थात वह हर काल में कथाओं और किंवदंतियों के रूप में समाज में मौजूद रहेगा । अब ध्यान दीजियेगा कि कलयुग में इस पर्व को मनाने का आशय सिर्फ इतना है कि हम हमारा ये समाज कहीं न कहीं आज भी राम के अस्तित्व को स्वीकार करता है । हमारे वेद पुराणों और उपनिषदों में वर्णित अमरता का अर्थ इससे इतर कुछ और नहीं है ।
स्मरण रहे कि इन सभी मान्यताओं को अपने जीवन में समाहित करने के कारण ही हम दशरथ पुत्र राम को मर्यादापुरूषोत्तम प्रभु श्री राम कहते हैं । ये उपाधि प्राप्त करने के लिये उन्हें अपना संपूर्ण जीवन मानवता के कल्याण में गुजारा । आज के परिप्रेक्ष्यों में अगर देखें तो इस प्रकार का निरपेक्ष जीवन बिताना अब असंभव हो चुका है । मेरे कहने का अर्थ सिर्फ इतना कि व्यक्ति अपनी खुद की समस्याओं से इतना घिरा है कि उसे दूसरों के दुःख से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है । यह भी धु्रव सत्य है कि हर युग की जीवन शैली अलग होती है । ये युग वास्तव में आत्मकेंद्रित व्यक्तियांे का युग है । आत्मकेंद्रित अर्थात किसी भी कीमत पर निज स्वार्थों की पूर्ति । इसी भावना के वशीभूत होकर लोगों ने राम का राजनीतिकरण शुरू किया । इस बात का श्रेय निश्चित तौर पर भाजपा को ही जाता है । आपको याद होगा राम मंदिर आंदोलन और इसका हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । राम का लेकर उत्तर प्रदेश समेत केंद्र की सत्ता हथियाने के बाद भाजपा ने अपने शासन के वर्षों में एक बार भी राम का नाम लेना उचित नहीं समझा । अंततः बिसरा दिये गये श्रीराम । इसका सीधा सा अर्थ है कि भाजपा के लिये राम का नाम वास्तव में एक राजनीतिक मुहावरे से ज्यादा कुछ नहीं था । एक ऐसा मुहावरा जिसका उपयोग सिर्फ चुनावी जनसभाओं में जनता के मनोभावों को छूकर समर्थन प्राप्त करने से ज्यादा कुछ नहीं है । आपको याद होगा कि राम मंदिर निमार्ण पूरे देश से लोगों ने अपनी सामथ्र्य भर पैसे चंदे या दान के रूप विभिन्न हिंदू वादी संगठनों को दिये थे । कहां गये वो पैसे ? उन पैसों का क्या उपयोग हुआ? यदि उपयोग मंदिर निर्माण में नही ंतो किसके पास हैं वो पैसे ?अंतिम प्रश्न देश के आमजन की भावनाओं के साथ इस तरह का विश्वासघात कहां तक जायज है ?
अभी और भी कहे और अनकहे सवाल हैं,जो आमजन के जेहन में दर्ज हैं । ये बातें यहां रखने का मेरा प्रयोजन सिर्फ इतना ही है कि राम भले ही भारत की गौरवपूर्ण अतीत का प्रतीक हों लेकिन राजनीति में उनका उपयोग सिर्फ सत्ता प्रात्त करने तक सीमित है । ऐसे लोग क्या राम का नाम लेने के अधिकारी हैं?ध्यान दीजियेगा कि ये हिंदू धर्म की उदारता ही कही जायेगी वो रोजाना ही राम पर प्रश्नचिन्ह सहन कर लेते हैं । अभी हाल ही में भाजपा के वरिष्ठ नेता राम जेठमलानी ने राम को बुरा पति बताया । उनका मानना था कि राम ने बहकावे में आकर सीता को घर से निकाल दिया । उनके इस बयान से उनके दर्शन और राम के प्रति उनकी समझ को बखूबी समझा जा सकता है । ऐसे सभी लोगों से मेरा अनुरोध है कि वे सिर्फ एक बार अपने पूर्वाग्रहों का त्याग कर रामायण को पढ़ें उन्हे उनके इस तरह के सभी कुतर्कों के जवाब मिल जाएंगे । यदि वे ये भी नहीं कर सकते तो आसान शब्दों में तुलसीदासजी द्वारा रचित रामचरित मानस का अध्ययन आप सभी की समस्त समस्याओं का निराकरण हो जायेगा । यदि फिर भी नहीं होती तो आपकी मनोदशा को गोस्वामी जी ने कुछ यूं बताया है:
जाकी रही भावना जैसी,हरि मूरत देखी तिन तैसी
अर्थात राम का व्यक्तित्व तो एक ही था लेकिन रावण और विभीषण के स्तर पर अंतर आ जाता है । राम पर उठने वाले इस तरह के प्रत्येक प्रश्न वास्तव में आपके मानसिक स्तर के द्योतक हैं । खैर बयान एक और प्रतिक्रियाएं अनेक अभी रात में वरिष्ठ महिला पत्रकार ने न्यूज चैनल के दरबार मेें बैठकर राम को कोसना शुरू कर दिया । उनका कहना था राम का ये फैसला उनकी सामंती मानसिकता को दर्शाता है । मेरा प्रश्न है आपके ये सतही कटाक्ष किस सतही मानसिकता को दर्शाता है?राम का तो पूरा जीवन तो एक विचारधारा एवं पत्नी के प्रति एकनिष्ठ रहा है । क्या आप अपने एकनिष्ठ जीवन का दावा कर सकती हैं? ईमानदारी से सोचियेगा कि कहीं आप फिजा या मधुमिता की राह पर नहीं चल पड़ी हैं ? विचारणीय प्रश्न है हिंदू धर्म के आधार पुरूष राम पर जिस तरह के कटाक्ष किये जा रहे हैं क्या वैसा आप अन्य धर्मों के महापुरूषों के साथ कर सकते हैं? यदि नहीं कर सकते तो हिंदू धर्म की सहिष्णुता का फायदा मत उठाइये नहीं तो वास्तव में राम का एक रूप उग्र भी है जो समस्त विधर्मियों का नाश करने में पूर्णतः सक्षम है । ये तो कथा वाचकों का चमत्कार है कि वो हमें सिर्फ राम के प्रेम और विरह की कथाएं सुनाते आ रहे हैं । रामचरित मानस में प्रभु श्रीराम के मुख से वर्णित एक सूक्ति वाक्य है ‘भय बिन होई ना प्रीति ’।यहां इतनी बातों को यहां रखने का प्रयोजन सिर्फ इतना है कि आने वाले दो दिनों के बाद ही प्रकाश पर्व दीपावली है । अतः आइये इस दीपावली पर राम के राजनीतिकरण की बजाय उनके उन्नत चरित्र को समझने की कोशिश करें ।
अंततः होइहैं वो ही जो राम रचि राखा,को करि तर्क बढ़ावहीं साखा ।

Friday, November 9, 2012

चीन की चाटुकारिता राजनैतिक भूल: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

भारत ने अभी हाल ही में 1962 में हुये भारत चीन युद्ध की 50 वीं वर्षगांठ पर विशेष स्मृति दिवस मनाया । वास्तव में ये सरकार का एक प्रशंसनीय और स्वागत योग्य कदम है जिसके प्रति किसी को भी कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये । इस अवसर पर विदेश मंत्री सहित सेनाध्यक्षों ने कई बार आज के सैन्य परिप्रेक्ष्यों पर चर्चा की । जिसकी सार यही था कि भारतीय सेनाएं आज किसी भी देश के हमले का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है । क्या उस समय  देश की सेनाएं अक्षम थीं जो भारत को करारी पराजय का सामना करना पड़ा ? आज हमारे पास ऐसे कौन से संसाधन आ गये जो हम चीन को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हो गये हैं ?ं वास्तव में इतिहास का कोई भी युद्ध उठा कर देख लें युद्ध में संसाधनों से ज्यादा इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है । भारत की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए तो कहीं से भी नहीं लगता कि इस सरकार के किसी भी नेता में ऐसी इच्छाशक्ति है । अगर होती तो शायद हम ये वर्षगांठ तटस्था स्थानों की बजाय ठीक उसी स्थान पर मनाते जहां ये युद्ध हुआ था । ऐसी परिस्थितियों में ये कदम भारत चीन युद्ध के शहीद जवानों के लिये सच्ची श्रद्धांजली होती । अगर हम ये नहीं कर सके तो फिर शब्दों की लफ्फाजी से क्या फायदा । अफसोस कि बात है कि हमारे राजनेताओं ने इस युद्ध के बाद अपने छिने हुए भूभाग को वापस पाने की कोई कार्रवाई नहीं की । संबंध चाहे किसी प्रकार के हों इनके निर्वाह में दोनों तरफ से सहयोग की आवश्यकता होती है । अगर कोई एक पक्ष नुकसान सहते हुये संबंध बहाली की इच्छा रखता है तो ये निरी मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः भारतीय राजनीति प्रारंभ से ही इसी व्यामोह का शिकार रही है । इसी के फलस्वरूप अक्साई चीन समेत भारत के 72 हजार वर्ग किमी भूभाग पर कब्जे के बाद चीन अरूणाचल पर भी अपना अपना अधिकार जताकर भारत की समस्याओं में इजाफा करता ही रहा है । चीन का ये रवैया क्या दर्शाता है? स्पष्ट है कि विस्तारवाद की नीतियों में भरोसा रखने वाला चीन कम से भारत से किसी भी प्रकार के मैत्री संबंध का इच्छुक नहीं है । ऐसे में चीन के सम्मुख भारत का बिना शर्त समर्पण क्या दर्शाता है?
वर्तमान की हर समस्या का सूत्र हमारे अतीत में छुपा रहता है । इसी प्रकार भारत चीन की वर्तमान समस्या को समझने के लिये हमें अतीत को जानना होगा। चीन 1949में कम्यूनिस्ट शासित देश के रूप में अस्तित्व में आया उस दौर में चीन को मान्यता देने वाला पहला देश था भारत । ऐसे में चीन का ये कदम भारत के प्रति ये कृतघ्नता के अलावा क्या कुछ और है ? उस समय पं नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे ।  पं नेहरू की विदेश नीति रूस से प्रभावित थी और चीन रूस के शिष्य के तौर पर वैश्विक पटल पर उभरा । ऐसे में चीन के प्रति नेहरू जी के अंधे प्रेम को आसानी से समझा जा सकता है । इसी प्रेम का परिणाम था हिंदी चीनी भाई भाई का नारा । एक ओर नेहरू भारत चीन मैत्री का दम भर रहे थे तो दूसरी ओर चीन भारत पर हमले की कुत्सित योजना बनाने में व्यस्त था । चीन के प्रति नेहरू के प्रेम को एक दूसरे नजरीये से देखें । चीन 1949 में जब कम्यूनिस्ट देश बना तो अमेरिका ने उसे यूनाइटेड नेशंस की सदस्यता से निष्काषित कर दिया । इसके तुरंत बाद अमेरिका ने भारत को वीटो पावर के साथ यूएन में शामिल होने का न्यौता दिया । इस न्यौते को पं नेहरू ने ये कहकर ठुकरा दिया कि ये स्थान हमारे मित्र देश चीन का है । उनके इस भयावह फैसले का दुष्परिणाम आज आजादी के 65 वर्षों बाद भी भुगतना पड़ रहा है । जिस चीन निष्काशन के विरोध में नेहरू जी ने यूएन में शामिल होने से इनकार कर दिया था वो ही चीन आज भी बेशर्मी से इस वीटो पावर का उपयोग भारत के विरोध में करता है । ये तो सिर्फ एक ही भूल है उनकी दूसरी भूल थी वी के कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाना । मेनन साहब कोई बड़े जनाधार वाले नेता नहीं थे उन्हे ये पद नेहरू जी के प्रति वफादरी के लिये दिया गया था ।अतः उन्होने कभी भी पद के साथ न्याय नहीं किया । वे हमेशा विदेश भ्रमण में व्यस्त रहे । अर्थात मंत्री रहते हुये उन्होने राजकीय संसाधनों पर अपने सारे शौक पूरे किये । अब जिस व्यक्ति का समय विदेशों के दौरे पर ज्यादा गुजरे तो उसे देश की समस्याएं कब समझ आती ।आंखों पर साम्यवाद का चश्मा चढ़ाये कृष्णा ने 1960 के लोकसभा सत्र में सीमा से सेना हटाने,सैन्य कारखाने बंद करने और सैन्य बजट में कटौती का तुगलकी फरमान जारी कर दिया । अपने इस फैसले की जो वजह उन्होने बतायी वो भी हास्यास्पद थी । उन्होने कहा कि अब चीन और पाकिस्तान हमारे मित्र हैं तो ऐसे में हमें सेना कि क्या आवश्यकता है ? उनके इस तुगलकी फैसले से चीन की बांछे छिल गई और उसने 19़62 में भारत पर हमला कर दिया । ध्यान देने वाली बात है कि रक्षा मंत्री के दिवास्वप्न के कारण भारतीय सेनाएं इस हमले के लिये तैयार नहीं थी । अंजाम युद्ध में भारत की करारी पराजय के रूप में हमारे सामने है ।
वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों के आधार पर देखें तो हमारी रक्षा नीति चीन के सम्मुख नतमस्तक है । इसी का फायदा उठाकर चीन रोजाना सीमाआंे का अतिक्रमण करता है और अरूणाचल पर दावा ठोकता है । इस युद्ध के बाद भारत ने सामरिक मोर्चे पर भले की कोई उल्लेखनीय उन्नति नहीं लेकिन चीन ने भारत के चारों ओर किलेबंदी कर ली है । पूर्व में अरूणाचल प्रदेश तो पश्चिम में जम्मू काश्मीर तक 4000 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर रोजाना चीन की सैन्य गतिविधियां बढ़ती ही जा रही हैं ।चीन का ये कुत्सित अतिक्रमण सिर्फ थल सीमाओं तक नहीं वरन जल सीमाओं में भी जारी है । फिर बात चाहे हिंद महासागर के तटवर्ती देशों में चीन द्वारा नौसैनिक अड्डों के निर्माण की हो अथवा दक्षिणी चीन सागर में भारत के विरोध की । चीन के इस क्रियाकलाप से एक बात साफ हो जाती है वो भारत को स्थल और दोनों सीमाओं में चारों ओर से घेरने की कोशिश में लगा है । इस बात को पुराने संदर्भों से जोड़कर अगर देखें तो यही लगता है कि शायद भारत एक और युद्ध के मुहाने पर खड़ा है । अगर वास्तव में हम चीन से बेहतर संबंधों के इच्छुक तो हमें स्वयं अपना सम्मान करना भी सीखना होगा । हमारा वो सम्मान कैलाश मानसरोवर के रूप में आज भी चीन के पास गिरवी पड़ा है । स्मरण है कि 1962 की हार भी भारतीय सेना की हार नहीं वरन भारतीय राजनीति की हार थी । अतः चीन में होने वाले बड़े राजीनीतिक परिवर्तनों को देखते हुये ये वक्त वास्तव में चीन की चाटूकारिता करने के बजाय बड़े फैसले लेने का है ।

Thursday, November 1, 2012

राह से भटक गये हैं केजरीवाल: सिद्धार्थ मिश्र

अन्ना आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल सत्ता के गलियारों में आज अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज करा चुके हैं । लगभग दो साल चला उनका ये संघर्ष अपनी अंतिम परिणीती को प्राप्त कर चुका है । अर्थात स्वयं को एक राजनेता के रूप में पहचान दिलाने का । हांलाकि उनके इस सफर में कई पुराने साथी छूट भी गये और कई नये लोग उनसे जुड़े भी । महंगाई,भ्रष्टाचार और निर्विय शासन व्यवस्था से आजिज आकर लोगों ने धीरे धीरे ही सही पर सत्ता परिवर्तन का मन बना लिया है । ऐसे में अरविंद जी के हालिया प्रयासों और बेचैनी को साफ समझा जा सकता है । उनकी पूरी कोशिश रहेगी आगामी लोकसभा चुनावों में स्वयं को एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करने की । अगर चीजों पर थोड़ा ध्यान दे ंतो उनकी ये मांग नाजायज भी नहीं लगती,लेकिन यहीं पर उन्हे एक और चीज समझनी होगी कि परिवर्तन अचानक नहीं होता । कम से कम भारतीय लोकतंत्र का अब तक का इतिहास तो ऐसा ही रहा है । मूलभूत समस्या इस बात की नहीं है कि आप समस्याओं को गिनाने में कितने सक्षम हैं, प्रश्न ये है कि क्या आप के पास इन समस्याओं के समाधान है? ऐसे में आगे बढ़ने से पहले अपने गिरेबां में झांकने की भी आवश्यकता पड़ेगी । अफसोस इसी बात का है कि वो इस तुच्छ से काम के लिये वक्त नहीं निकाल पाते ।
जहां तक केजरीवाल जी के अब तक सफर का प्रश्न है तो अब हालात बिल्कुल ही अलहदा हैं । यथा अपने इस आंदोलन की शुरूआत उन्होने अन्ना की छत्र छाया में की थी जो निश्चित तौर पर पर अब उनके साथ नहीं है । ऐसे में बिना बुजुर्गों का ये सफर उन्हे और भी सतर्कता से तय करना होगा । इस बात को अन्ना हजारे के हालिया बयान से भी समझा जा सकता है । अपने बयान में अन्ना ने केजरीवाल को संयम बरतने की सलाह दी है । उन्होने कहा कि अरविंद किसी एक मामले को अंजाम तक पहंुचाये बिना दूसरों पर हाथ ना डालें । यहां एक गौरतलब बात और है जो अन्ना ने कही,उन्होने कहा कि मैं मुंबई में दिसंबर 2011 के अनशन के खिलाफ था लेकिन टीम के दबाव के आगे मुझे झुकना पड़ा । इस अनशन का अंजाम भी आज किसी से छुपा नहीं है जो दूसरे ही दिन भंग हो गया था । ऐसे में माननीय अरविंद जी की नीयत पर संदेह होना लाजिमी ही है । अन्ना के अस्वस्थ होने के बावजूद भी उन्हे अनशन पर बिठाना कहां तक जायज था? अतः दूसरों पर आरोप लगाने से पूर्व केजरीवाल को एक बार ये सोचना चाहीये कि ऐसे कई सवाल उनकी प्रतिक्षा में हैं । ऐसे ही कुछ सवाल कांग्रेस के वफादार दिग्विजय सिंह ने भी उनके सामने रखे थे,जिनका जवाब वो अब तक नहीं दे पाये हैं ।
अपनी उपलब्धियों के बारे में केजरीवाल जी भले कुछ भी सोचते हों लेकिन वास्तव में वो अभी भी किसी उपलब्धि के आसपास नहीं हैं । अगर वो मीडिया कवरेज को उपलब्धि मानते हैं तो वो सर्वथा गलत है,क्योंकि मीडिया की अंतरिम तलाश चटपटी खबरें ही हैं । फिर वो चाहे पूनम पांडे की नग्न आकांक्षाओं का प्रदर्शन हो कसाब की बिरयानी पे आने वाले खर्च का ब्यौरा हो । बहरहाल उनकी इन फुलझडि़यों छोड़ने की आदत के कारण उनकी गणना हिट एण्ड रन की श्रेणी में होने लगी है । अभी एक मामला पे कोई कार्रवाई हुई भी नहीं कि तब तक आपने दूसरा पटाखा छोड़ दिया । ऐसे में आम आदमी किसी भी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता । ऐसे में उसे अपना समर्थक मान बैठना केजरीवाल जी की भारी भूल ही कही जा सकती है ।
अगर आपको आम आदमी की बात करनी है तो पहले आम आदमी से मिलिये । ये किसी भी लोकप्रिय नेता के प्रारंभिक लक्षण हैं । अपने इर्द गिर्द मैं आम आदमी हूं कि टोपी लगाने वालों को आम आदमी मानना वास्तव में दिवास्वप्न के अलावा कुछ भी नहीं है । आपके आस पास टोपी लगाकर नारे लगाने वाले ये लोग आपको मोटा चंदा तो दे सकते हैं लेकिन जनादेश नहीं दिला सकते । एसी कारेां में बैठकर दिल्ली के महंगे रेस्त्रां में रोज खुलासे करने में क्या पैसे खर्च नहीं होते? कहां से आते हैं ये पैसे ?कौन देता है और क्यों देता? ये पैसे काले हैं या सफेद कभी सोचा है आपने ? जवाब अगर ईमानदारी से दिया जाये तो ना ही होगा । इन आधारों पर अगर देखें तो किस पारदर्शिता की बात करते हैं अरविंद जी ? ये सारी बातें अभी भी समझ से परे हैं ।
अगर अरविंद जी वाकई आम आदमी की राजनीति करना चाहते हैं तो उन्हे आम आदमी से मिलना पड़ेगा । वो आम आदमी जिसकी पहुंच से दिल्ली अभी दूर है,जो भारत के छोटे शहरों,कस्बों अथवा सुदूर गांव गिरांव में बसता है । ये तो रही अरविंद जी की अब तक की उपलब्धियों का ब्यौरा,मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती । ये कहानी का एक चैथाई हिस्सा भी नहीं है । अरविंद जी भले ही खुद को बड़ा देशभक्त मानते हों लेकिन देश से जुड़े किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर अपनी राय नहीं रखते । अगर रखते हैं तो अनुच्छेद 370,कश्मीर समस्या,बांग्लादेशी घुसपैठ,नक्सली वारदातेां पर उनकी राय क्या है ? उनकी राय में सेक्यूलर होने की परिभाषा क्या है ?अथवा कसाब की फांसी के मुद्दे पर पर वो कोई उग्र राय क्यों नहीं रखते ? ऐसी बातें करने से उन्हें गुरेज क्यों हैं? क्या ये देश की समस्याएं नहीं हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिनका उन्होने आज तक कोई भी जवाब नहीं दिया है । अब जरा उनकी टीम की भी बात हो जाये,इन्हीं की टीम के प्रशांत भूषण जी ने बीते वर्ष कश्मीर मुद्दे पर अलगाववादियों का समर्थन किया था । इसी मुद्दे से गुस्से में आकर एक आम आदमी इंदर वर्मा ने उनकी पिटाइ की थी । ये वाकया क्या भूल गये हैं केजरीवाल जी ? आम आदमी का एक रूप ये भी होता है । इस मुद्दे पर अरविंद जी का समर्थन क्या प्रशांत भूषण के साथ है ? अगर नहीं है तो वो उनकी टीम में क्यों हैं? हाल ही में प्रशांत भूषण पर लगे भूमि घोटालों के विषय में उनका क्या सोचना है ? टीम के एक अन्य विश्वस्त चेहरे किरण बेदी की बात करें तो उन पर भी एनजीओ की आड़ में पैसे की हेर फेर के आरोप लगे हैं जिसका कोई संतोषजनक जवाब वो नहीं दे पाई थीं । ऐसे ही आरोप इनकी टीम के अन्य चेहरों  पर भी हैं । ऐसे मातहतों को साथ में रखकर नैतिकता की बात करना शब्दों की लफ्फाजी के अलावा और क्या है ? अतः केजरीवालजी को अगली बार आरोप लगाने से पहले अपने खुद के बारे में सोचना चाहिये । अरविंद जी की राजनीति के लक्ष्य चाहे जो भी हों फिलहाल वो लक्ष्य से भटक गये हैं ।

Tuesday, October 30, 2012

झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

शीर्षक पढ़कर हैरान होने की जरूरत नहीं है । वास्तव में ये वर्तमान राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का सही आकलन है । माननीय मनमोहन जी के हालिया मंत्रीमंडल में किये गये फेरबदल पर नजर डालें तो पाएंगे कि आज के राजनीतिक सरोकार नैतिकता के विलोम होते हैं । वर्तमान सरकार द्वारा किये गये अब तक के सब से बड़े उलटफेर में  सात केबीनेट मंत्रियों सहित 22 मंत्रियो की कुर्सियों की अदला बदला हो गयी । भ्रष्टाचार,महंगाई सहित कई संगीन आरोपों से जूझ रही सरकार के ये कदम किस ओर इशारा करते हैं । बहरहाल इस फेरबदल को विगत आठ वर्षों से मौन मोहन,अंडर एचीवर समेत विभिन्न उलाहनों से जूझ रहे प्रधानमंत्री की चुप्पी तोड़ने के तौर पर भी देखा जाना चाहिये । ध्यातव्य हो कि मनमोहन ने ऐसे समय अपनी खामोशी तोड़ी जब आम आदमी सरकार के प्रति अपना विश्वास पूरी तौर पर खो चुका है । तथ्यों का अगर और ध्यान से निरीक्षण किया जाये तो ये फेरबदल वास्तव में जनता का ध्यान भ्रष्टाचार और घोटालों से हटाकर अन्यत्र लगाने के लिये उठाया गया कदम ही है । ऐसा ही कदम उन्होने पूर्व  में एफडीआई की स्वीकृति और पेटोलियम पदार्थों के दाम में वृद्धि लाकर किया था । इसका नतीजा भी सभी के सामने है । कोल गेट मामले में सरकार की खिंचाई कर रहे लोगों ने महंगाई और घरेलू बजट पर चर्चा शुरू कर दी ।
उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर देखें तो ऐसा अवश्य लगता है कि इस सरकार का रुख लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह निरंकुश हो गया है । अर्थात जनता जर्नादन मेरे ठेंगे पर, आपको बुरा लगता है तो लगता रहे हम अपने फैसले करने को पूरी तरह आजाद हैं । वास्तव में कांग्रेस का यही विद्रोही तेवर जनता के सिरदर्द का सबब बना हुआ है । गौरतलब है कि वर्तमान में राबर्ट वढ़ेरा के मामले पर घिरी सरकार ने ये फेरबदल के कदम उठाकर लोगों का ध्यान एक बार फिर दूसरी ओर मोड़ दिया है । वस्तुतः चर्चा का विषय अभी रार्बट को मानकों की अनदेखी कर क्लीनचिट देना या उनके बचाव में समस्त मंत्रियों के उतरने पर होनी चाहिये थी । इन मामलों में कमाल का है मनमोहन जी का मैनेजमेंट,तभी तो अपने शासन काल में उन्होने इतने बड़े घोटालों का सृजन किया । पहले घोटाले फिर खुलासे और अंततः तुगलकी फैसलों से चर्चा का रुख बदलना । वास्तव में क्या यही होते हैं प्रधान मंत्री के दायित्व ? उस पर कांग्रेसियों का तुर्रा कि प्रधानमंत्री ईमानदार हैं । भाड़ में जाये ऐसी ईमानदारी जिसकी ओट में लोकतंत्र पे कालिख पोती जाय ।
विचारणीय प्रश्न है कि हालिया हुए इस फेरबदल से लोकतंत्र का कितना भला होगा ? जवाब हमेशा ना में मिलेगा वास्तव में इस तरह के फेरबदल के पीछे प्रधानमंत्री की मंशा कुछ और थी । प्रथम दृष्टया इस फेरबदल के द्वारा प्रथम परिवार के प्रति वफादारी दिखाने वालों को पुरस्कृत किया गया है । ध्यान दीजीयेगा केजरीवाल जी के राबर्ट वाले खुलासे के बाद मनीष तिवारी और सलमान खुर्शिद की भूमिका । अंततः उन्हे वफादारी का पुरस्कार भी मिला । भ्रष्टाचार की मांग को लेकर गडकरी की थुक्का फजीहत और नैतिकता की दुहाई देने वाले कांगेसी नेता खुर्शिद जी या श्रीप्रकाश जी के मामले में नैतिकता क्यों नहीं दिखाते ? वास्तव में ये कांग्रेसी दोमुहेपन की पराकाष्ठा है । ये लोग एक ओर तो गडकरी को नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने की बात करते हैं तो दूसरी ओर खुर्शिद जैसे दागियों का संरक्षण भी करते हैं । इस मामले में काबिलेगौर बात ये भी है कि हवाला मामले में नाम आने के बाद आडवाणी जी द्वारा नैतिकता के आधार पर दिये गये इस्तिफे से भी सबक ले सकते हैं । इस फेरबदल में बात सिर्फ संरक्षण की ही नहीं है,वरन हालिया भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे खुर्शिद को तरक्की भी दे दी गयी । खैर ये इस तरह का पहला मामला नहीं है इसके पूर्व भी असफल मंत्री सुशील शिंदे को इस तरह का प्रमोशन दिया गया है । अब विचारणीय प्रश्न है कि इस फेरबदल के मायने क्या हैं ? ये निर्णय भ्रष्टाचार और दागियों से निजात पाने के लिये नहीं लिया गया क्योंकि अगर सुबोधकांत सहाय को हटाया गया तो श्री प्रकाश जायसवाल और पी चिदंबरम जैसों का अपने पदों पर बना रहना क्या दर्शाता है ?
मनमोहन जी की चुप्पी इस तरह टूटने का आभास किसी को भी नहीं था । अपने हालिया तुगलकी फैसलों में जहां उन्होने ठीक ठाक काम रहे मंत्रियों को दंडित किया तो आरोपियों को मलाई काटने के लिये बड़े पद भी दे डाले । उनके इस निर्णय को एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री के निर्णय के तौर याद नहीं किया जा सकता । इस मामले में सरकार की सबसे ज्यादा निंदा हुई है जयपाल रेड्डी को हटाने से । जानकारों के अनुसार सरकार ने ये फैसला रिलायंस के दबाव में लिया है । खैर उनकी जगह आये मोइली जी ने आते ही तेल के दामों में वृद्धि के आसार दिये तो दूसरी ओर मनमोहन जी के बेहद करीबी माने जाने वाले पवन बंसल जी ने रेल मंत्रालय संभालते ही रेल भाड़ों में वृ़िद्ध की बात कही । अब इन मंत्रियों की अल्प बुद्धि से महंगाई का निराकरण होता तो नहीं दिखता । जहां तक महंगाई से निपटने का प्रश्न है तो ये सीधे सीधे वित्त और कृषि मंत्रालय से जुड़ा मामला है लेकिन अफसोस है कि ये मंत्रालय अब भी पुराने निजामों द्वारा संचालित होंगे । अतः सरकार के इस निर्णय को जनहित से जोड़कर तो नहीं देखा जा सकता । हां इस निर्णय में सरकार के चुनावी स्वार्थ अवश्य छिपे हैं । यथा बीते चुनावों के प्रदर्शन के आधार पर आंध्र प्रदेश के 11 सांसदों को मंत्रीमंडल में स्थान मिलना । ये वास्तव में अपने आप में एक अनोखी घटना है । इसे जगन रेड्डी के बगावत को कुचलने के कदम के तौर पर समझा जा सकता तो गुजरात के सांसद को मंत्रीमंडल में शामिल करने की मुख्य वजह है गुजरात का आगामी विधानसभा चुनाव । इसी प्रकार की सोच चंद्रेश कुमारी को मंत्रीमंडल में शामिल करने के पीछे भी है । सरकार उनके कांगड़ा कनेक्शन का फायदा आगामी हिमाचल विधान सभा चुनावों मंे उठाने को आतुर है । उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अगर देखें तो सरकार का ये निर्णय वास्तव मंे मनमोहन जी की कुशल मैनेजमेंट क्षमता का एक और प्रमाण है । अन्यथा क्या वजह हो सकती है बिहार,मध्य प्रदेश,झारखंड,ओडि़सा समेत विभिन्न पूर्वोत्तर राज्यों की अनदेखी की? अंततः अगर निष्कर्षों की बात की जाये तो ये मनमोहन जी की ये कोशिश सरकार की गिरती साख को बचाने का एक और नाकाम कदम ही माना जायेगा । यदि सरकार के जनता के प्रति संदेश की बात करें तो ये सिर्फ इतना है कि झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला ।

Saturday, October 27, 2012

भाजपा को अकेले ही चलना होगा: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

भाजपा की वर्तमान दशा को देखते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर का एक गीत याद आ गया ।‘जोद़ी तोर डाक शुने कोई ना अशे तोबे एकला चलो रे’ अर्थात जब लोग तुम्हारी आवाज को अनसुना कर दे ंतो तुम अकेले चलो ।राजनीति के ताजा घटनाक्रम को अगर ध्यान से देखा जाये तो ये पंक्तियां वास्तव में भाजपा के लिये और भी प्रासंगिक हो उठती हैं । आज के हालात वस्तुतः भाजपा के लिये अकेला चलने का संदेश दे रहे हैं । इस पार्टी के पुराने इतिहास को देखते हुये ये सही भी है । भाजपा के दिग्गज नेता स्व दीन दयाल उपाध्याय की एक पुस्तक ‘पालीटिकल डायरी’ पढ़ रहा था । इस पुस्तक में उन्होने साफ तौर पर कहा कि  जन सरोकारों और देश के मुद्दों से अनभिज्ञ होकर सरकार चलाने के बजाय हम ताउम्र विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे । वस्तुतः इन्ही वाक्यों से पार्टी के वैचारिक उर्वरता को परखा भी जा सकता है । इस मुद्दे की उपेक्षा कर वाजपेयी सरकार का हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । राम मंदिर के नाम पर सत्ता में आने के बाद पार्टी का राम के प्रति किया गया विश्वासघात भी आम जन से छुपा नहीं है । ऐसी रीढ़विहीन और मौकापरस्त राजनीति की बजाय अगर वाजपेयीजी ने पूर्ण बहुमत ना होने की बात कहकर त्याग पत्र दे दिया होता तो शायद आज पार्टी के हालात कुछ और होते । ध्यान दीजीयेगा अपने शासनकाल के पूरे पांच वर्षों में अटल जी ममता,जयललिता और रामविलास पासवान जैसे सतही लोगों के रहमोकरम के मोहताज बने रहे । इसके परिणामस्वरूप भाजपा के हिंदू मतदाता ने भाजपा के प्रति अपना विश्वास खो दिया । इस प्रसंग को पार्टी के राजनीतिक वनवास की मुख्य वजह भी कहा जा सकता है ।
आज जब मैं ये बातें लिख रहा हूं तो मेरे मन में कहीं भी भाजपा या अटलजी के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है । वस्तुतः मैं अटल जी का औसत भाजपाइयों से बड़ा प्रशंसक हूं । अपने आप को उनका प्रशंसक कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है,ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है मुझे इस देश के सेक्यूलर लोगों की जमात से बाहर कर दिया जायेगा । कर दिया जाये लेकिन अगर लोग राहुल,मनमोहन या सोनिया जी के प्रशंसक हो सकते है तो अटल जी तो वास्तव में ऐसे कई सतही लोगों से काफी बड़ी शख्सियत हैं । फिर भी मुझे अफसोस है अटल जी के पांच वर्षों के कार्यकाल से और यही अफसोस भाजपा के पतन की मुख्य वजह बना ।ध्यान दीजियेगा हिंदू मैरीज एक्ट की बात आई तो सभी ने एकमत से उसमें परिवर्तन कर डाले लेकिन जहां इस तरह की बात मुस्लिमों के संदर्भ मे आई तो देश की प्रायः प्रत्येक पार्टी ने उनकी शरियत के सम्मान में देशद्रोही फैसले लेने में भी गुरेज नहीं दिखाया । इन्हीं सारे दोतरफा फैसलों से आजिज आकर लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया मगर अफसोस इस सरकार से भी उन्हे कोई लाभ नहीं मिला । ऐसे में भाजपा के मतों का बिखरना लाजिमी था । ऐसा हुआ भी बीते दो दशकों में भाजपा का केंद्र समेत उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया । इन दुर्दिनों का अंत अगर यहीं हो गया होता तो फिर भी ठीक था लेकिन अब तो हालात ऐसे हैं कि छुटभैये भी भाजपा को आंखे दिखाने से गुरेज नहीं करते ।
लोगों का ये गुस्सा जायज भी है । आखिर नैतिकता की उम्मीद किससे की जाये? लोकतंत्र की नाजायज औलादों से नैतिकता की उम्मीद तो बेमानी होगी, इन हालातों में लोगों ने भाजपा को देश हित के संरक्षक के तौर सत्ता सौंपी तो मामला उल्टा पड़ गया । अब सोचता हूं कि अटल जी ने किस मजबूरी में पांच वर्षों तक ओजहीन संरक्षक के तौर पर सत्ता का संचालन किया? ऐसे में एक शेर याद आ गया पेशे खिदमत है:
कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी,कोई यूं ही बेवफा नहीं होता
जी हां ऐसी ही कुछ मजबूरियां अटल जी ने भी पाली थी । पहली कुर्सी का नशा,वास्तव में ये धरती का सबसे बड़ा नशा होता है जो आप की नैतिकता और संघर्ष करने की क्षमता को कुंद कर देता है । इस बात को आप मनमोहन जी के हालिया बयान से भी समझ सकते हैं‘मेरे नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने से इस पद का अपमान होता है’। शायद ऐसी कोई वजह उन्होने भी ढूंढ़ी हो । दूसरी वजह सेक्यूलर जमात में शामिल होना ।शायद आपके स्मृति पटल में वाजपेयी की जालीदार टोपी वाली कोई तस्वीर संचित हो । ऐसा करने की प्रमुख वजह थी खुद को सेक्यूलरों की जमात में स्वीकार्यता दिलाना । तीसरी सबसे बड़ी वजह रही कार्यकर्ताओं की उपेक्षा । ध्यान दीजीयेगा कार्यकर्ताओं का जितना अपमान इस दल में होता है उतना किसी भी दल में देखने को नहीं मिलेगा । चैथी वजह अच्छे नेताओं का तिरस्कार, ये प्रथा आज भी बदस्तूर कायम है । इस बात को समझने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है विगत उप्र के चुनावों को देख लीजिये मतदान के बाद तक पार्टी अपने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम तक घोषित नहीं कर सकी थी । नतीजा साफ है सूबे में सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार । मतदाता संशयग्रस्त दल का चुनाव क्यों करेगा ? यही हालात आने वाले लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में भी हैं । पार्टी अपने  प्रत्याशी के चयन को लेकर भ्रमित बनी हुई है ।
उपरोक्त सारे मुद्दों को ध्यान में रखते हुये एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस भ्रमित नीति के सहारे भाजपा का केंद्र की सत्ता में काबीज होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है । ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के पास विकल्पों की कमी है । आज पूरे देश के फलक पर नरेंद्र मोदी का नाम धु्रव तारे की तरह चमक रहा है । हां ये अलग बात है कि सेक्यूलर उससे एकमत नहीं हैं,और अगर भाजपा के इतिहास को देखें तो सेक्यूलर कब उसके हिमायती रहे हैं ? इन परिस्थितियों तथाकथित सेक्यूलरों की नाराजगी या खुशी से पार्टी की सेहत पर कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा ।रही बात मुस्लिम मतदाताओं की तो वो वाजपेयी जी के तमाम रोजे इफ्तार की पार्टियों के बावजूद भी नहीं रीझे और आज भी नहीं रीझेंगे । ऐसे में इनकी परवाह कैसी । जहां तक एनडीए कुनबे का प्रश्न नितिश कुमार जैसे क्षेत्रिय नेता जब आप पर प्रहार कर कुनबे का अपमान करने की हिमाकत कर सकते हैं तो फिर इस कुनबे की रक्षा का क्या औचित्य? अंततः अगर भाजपा को सत्ता में वापसी करनी है तो उसे हवाओं का रुख भांपते हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार  घोषित करना ही होगा । यदि ये दांव चल गया तो सत्ता आपकी अगर नहीं चला तो ज्यादा से ज्यादा आप विपक्ष में होगे । ये कोई बुरी बात नहीं है,और वास्तव में आपके पूर्वजों के इन्हीं सिद्धांतों ने आपको देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने का गौरव दिया है ।इस मामले में पार्टी के पुरनियों को भी अपने क्षुद्र स्वार्थों से पार पाना होगा । जहां तक भारतीय व्यवस्था का प्रश्न है तो वास्तव में युवाओं के सिर पर ही सेहरा बंधता रहा है । बुढ़ापे में सेहरा बांधने का उदाहरण मनमोहन जी की सरकार से लिया जा सकता है । फैसला तो भाजपा को करना है सिद्धांतों के साथ राजनीति या सिद्धांत विहीन छद्म सेक्यूलरिज्म ।