Monday, August 27, 2012

हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोषी

लगातार कई दिन से हो रहे हंगामे और षोर षराबे ने संसद के काम को बुरी तरह प्रभावित किया । कोलगेट कांड में मुख्य अभियुक्त बन गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सफाई देने में हाथ पांव फूल गए । इस दौरान प्रधानमंत्री ने कई बार बात करने की कोषिष भी पर विपक्ष है कि मानता नहीं । माननीय मनमोहन जी का मानना है कि कैग की रिपोर्ट पूर्णतः गलत है । अब सवाल ये उठता है कि अगर ये रिपोर्ट गलत है तो फिर सही क्या प्रधानमंत्री और सत्ता पक्ष के नेताओं का अलोकतांत्रिक रवैया? कौन भूल सकता कांग्रेस के राज्य सभा सांसद राजीव षुक्ला की सदन की दिन भर के लिए रोक देने की मांग । सवाल फिर उठता है कि जो सत्ता पक्ष मामले के पहले दिन सदन की कार्रवाई रोक देने से आहलादित हो रहा था , वो ही पक्ष अब सदन चलने को लेकर इतना व्यग्र क्यों है ? जवाब साफ है देष भर में हो रही अपनी थुक्का फजीहत को ध्यान में रखते हुए सरकार अब इस पूरे प्रकरण का ठीकरा विपक्ष के सर पे फोड़ने की ठान ली है । प्रष्न फिर उठता है कि क्या इस तरह से भोेला भोला बनकर प्रधानमंत्री क्या जनता का मन मोहने में फिर कामयाब हो पाएंगे ? जवाब स्पश्ट है नहीं लगातार हो रहे इस तरह के घोटालों से जनता पूरी तरह आजिज आ चुकी है । अंततः इस पूरे प्रकरण का खामियाजा कहीं न कहीं आम जनता को ही भुगतना पड़ता है । इस बात को साबित करते हैं विभिन्न चैनलों द्वारा कराए गए सर्वे । इन सभी आंकड़ों पर यदि गौर करें तो पाएंगे देष की जनता इस कुषासन से पूरी तरह त्रस्त हो चुकी है । इन परिस्थितियों में अगर मध्यावधी चुनाव भी हुए तो आम जन के बीच मतदान का प्रमुख मुद्दा है भ्रश्टाचार । जहां तक भ्रश्टाचार का प्रष्न है तो कांग्रेसनीत यूपीए गठबंधन भ्रश्टाचार की खान साबित हुआ है ।
बहरहाल इन बातों को दरकिनार कर बात करते हैं हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन जी की । बीते सोमवार को मनमोहन जी के संसद में दिये गये बयान पर गौर करें ।
हजारेां जवाबों से अच्छी है मेरी खामोषी,
ना जाने कितने सवालों की आबरू रख ली ।
गौर करें तो अपने षासन के विगत आठ सालों में प्रधानमंत्री अपने सारे संबोधन अंग्रेजी भाशा में देना पसंद करते रहे हैं । आज अचानक क्या हो गया जो अंग्रेजी पसंद प्रधानमंत्री का दर्द हिंदी में बयां हुआ ? हैरत में ना पडि़ये इस तरह का वाकया एक बार और भी हुआ है वो भी तब जब सरकार न्यूक्लियर डील के समर्थन में अपनी आखिरी सांसे गिन रही थी । प्रधानमंत्री के वो षब्द भी पेषे खिदमत हैं । गौर करिए
देहू षिवा वर मोही इहे षुभ करमन ते कबहूं ना टरौं,
डरौं अर सेा जब जाई लड़ौं निष्चय कर अपनी जीत करौं ।
खैर इन षब्दों ने अचानक चमत्कार कर दिखाया और उसे मुलायम समेत कई विपक्षी पार्टियों का समर्थन मिल गया और अंततः सरकार बच गई । तो क्या इस बार भी मनमोहन जी हिंदी का सहारा लेकर अपनी खोई लोकप्रियता वापस पाना चाहते हैं ? मगर अफसोस हालात  इस बार पहले से ज्यादा बेकाबू हैं और इन षब्दों का कोई विषेश फायदा उन्हे होने से रहा । ये षब्द और कुछ नहीं एक थके हारे योद्धा की विवषता को प्रदर्षित करते हैं । यहां विवषता षब्द वास्तव में समीचीन होगा क्योंकि लगभग सारे मंत्री उनके प्रतिकूल कार्य एवं बयानबाजी करते रहे हैं । कौन भूल सकता कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह के वाणी व्यायाम को जिसने कहीं न कहीं कई बार प्रधानमंत्री को संासत में डाला । आजकल इस भूमिका का निर्वाह बेनी प्रसाद वर्मा कर रहे हैं । अभी हाल ही उन्होने अपने विवादित बयान से लोकप्रियता बटोरी । माननीय वर्मा का कहना था कि उन्हे महंगाई के बढ़ने से मजा आता है । अब जरा सोचिये ये मनमोहन जी के आर्थिक सुधारों की पहल को आईना दिखाने का काम नहीं है ? अब अगर मंत्री ही इस बात को स्वीकार करने लगें कि महंगाई बढ़ी है तो मनमोहन जी की मुसीबतों में इजाफा नहीं होगा । अब हमारे अर्थषास्त्र के विद्वान मनमोहन चाहे हजारों बार कहें कि वो महंगाई पर नियंत्रण को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं कौन भरोसा करेगा उनकी इन बचकानी बातों का । वैस्ेा भी अक्सर ही मीडिया उन पर डमी प्रधानमंत्री होने का आरोप लगाता है । ऐसे आरोप से क्या साबित होता है ? सीधी सी बात है कि सत्ता की डोर मनमोहन के हाथ में न होकर किसी और के हाथ में है । इंडिया अगेंस्ट करप्षन के प्रणेता अन्ना जी ने कई बार ये बात कही है प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन जी एक ईमानदार आदमी हैं । ये कथन मनमोहन जी के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं थे । प्रधामनंत्री जी ने इस बात की खुषी मना पाते इससे पहले ही वे कई विवादों में घिर गए हैं । इन विवादों से निष्चित तौर पर उनकी लोकप्रियता और ईमानदार छवि को गहरा आघात लगा है । इसका प्रमाण है आज तक और नेल्सन द्वारा कराया गया सर्वेक्षण । इस सर्वेक्षण में छः प्रतिषत से भी कम लोग उन्हे दोबारा उन्हे प्रधानमंत्री के पद पर वापस देखना चाहते हैं । स्मरण रहे कि पूर्व में सरकार पर कई घोटालों के आरोप सिद्ध होने के बाद भी बहुसंख्य लोग उन्हे बतौर प्रधानमंत्री पसंद करते थे । आखिर उस ईमानदारी के मायने ही क्या जो अपने मातहतों को घपले घोटाले से रोक सकें? क्या करेंगे ऐसे विद्वान का जो देष को हजारों करोड़ के घोटालों की सौगात दे ? खैर मनमोहन जी के हालात आज बेगानी षादी में अब्दुल्ला दीवाने से ज्यादा नहीं है । वजह है 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव इन चुनावों में कांग्रेस की बतौर प्रधानमंत्री पहली पसंद हैं राहुल । अचानक तख्ता पलट की बजाए षातिर राजनीतिज्ञ सोनिया की ये चाल मनमोहन जी समझ नहीं पाए । अब कैग रिपोर्ट में भीशण घपला सामने आने के मनमोहन जी की रही सही लोकप्रियता भी जाती दिख रही है । हो भी क्यों न तत्काल कोल ब्लाक आवंटन में मनमोहन जी ने बतौर केंद्रिय कोयला मंत्री मुख्य भूमिका निभाई है । विपक्ष की मांग भी अपनी जगह जायज है कि, आखिर जिस कैग रिपोर्ट के बाद राजा को कुर्सी गंवानी पड़ी और जेल भी जाना पड़ा उसी कैग रिपोर्ट की सत्यता से मनमोहन जी कैसे इनकार कर सकते हैं ? इन विपरीत परिस्थितियों में मनमोहन जी के पास सिर्फ एक ही रास्ता बचा है और वो नैतिकता के आधार पर त्याग पत्र । अन्यथा इतिहास में उन्हें बतौर नायक तो याद नहीं ही किया जाएगा । विचार करें कि राश्टमंडल खेल,टू जी घोटाला, आदर्ष सोसायटी घोटाला,जीएम आर डायल समूह द्वारा एयरपोर्ट विकास के नाम घोटाला और हालिया कोल गेट कांड के बाद क्या मनमोहन जी खुद को ईमानदार कह सकते हैं । यह भी भली भंाती विदित है कि मनमोहन जी ने भले ही ये घोटाले न किये हों पर दबाने का भरसक प्रयत्न तो किया है । इन हालातों में कौन भरोसा करेगा मनमोहन जी की बातों और खामोषी का । मनमोहन जी को अब ये समझना ही होगा कि अब षब्दों की मोहिनी से काम नहीं चलेगा । वैसे भी बेआबरू होकर पदच्युत होने से ससम्मान विदाई बेहतर है । अंततः
अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार,
षब्द नंगे हो गए षोहरत भी गाली हो गई ।
                                                         सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

निरूत्तर है उत्तर प्रदेष

पूरे देष में जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़े प्रदेष के रूप में पहचान रखने वाले उत्तर प्रदेष के दिन बहुरने का नाम नहीं ले रहे हैं । अपनी बड़ी जनसंख्या और सर्वाधिक लोकसभा सीटों के कारण राजनीतिक केंद्र कहा जाने वाला ये प्रदेष आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है । हालात ये है कि बिजली,पानी,षिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी व्यवस्थाएं भी चरमरा गई हैं । विगत बसपा सरकार की तुगलकी नीतियों से आजिज जनता ने सपा को चुनकर अपनी मुसीबतों में इजाफा कर लिया है । ये बातें किसी विद्वेश के आधार पर नहीं बल्कि प्रमाणों के आइने में और भी स्पश्ट रूप से परिलक्षित होती हैं ।
उम्र के लिहाज से देखें तो 60 वर्श के बाद की अवस्था को परिपक्वता की कसौटी कह सकते हैं । अमूूमन ज्यादातर लोग इस अवस्था तक पहुंचते पहुंचते मानसिक रूप से दक्ष माने जाने लगते हैं । इस बात को अगर प्रदेष के वर्तमान परिप्रेक्ष्य से जोड़कर देखें तो हालात कुछ और नजर आते हैं । लोकतांत्रिक तरीके से षासित होने के साठ वर्शों के बाद भी प्रदेष की राजनीति विकास केंद्रित नजर नहीं आती । इस बात की सत्यता को अगर परखना हो तो चुनाव सबसे उपयुक्त समय होता है । बीते दिनों सम्पन्न प्रदेष के विधानसभा चुनावों में प्रायः सभी दलों के चुनावी घोशणा पत्रों ने ये बात साबित कर दी है कि ,सूबे की राजनीति विकास केंद्रित न होकर धर्म,जाति और आरक्षण से प्रेरित है । चुनावों में बड़ी सफलता अर्जित करने वाली समाजवादी पार्टी के चुनावी एजेंडे पर गौर करें तेा ये बात और भी स्पश्ट रूप से समझ आ जाएगी । उदाहरण के तौर पर सपा के चुनावी घोशणा पत्र के प्रमुख बिन्दुओं पर नजर डालें ।
1: युवाओं को टैबलेट और लैपटाप देने का वादा ।
2: बेरोजगारों के लिए बेरोजगारी भत्ते का प्रावधान ।
3: मुस्लिम बेटियों को अलग से कन्याधन देने कर प्रावधान ।
4: प्रदेष पुलिस मंे मुसलामानों के लिए 18 फीसदी आरक्षण
उपरोक्त वायदों पर अगर गौर करें तेा इनमें से षायद ही किसी वायदे का प्रदेष के विकास से सरोकार है । तुश्टिकरण और अलगाववाद की राजनीति के कारण ही प्रदेष का चहुंमुखी पतन हो रहा है । अन्यथा क्या वजह है प्रदेष की दुर्दषा की ? जरा सोचिये जिस प्रदेष नेे देष को आधा दर्जन प्रधानमंत्री दिये हों क्या उस प्रदेष की ऐसी दुर्दषा लाजिमी है ?
खैर बीती बातों पर अधिक चर्चा की आवष्यकता नहीं है । विचारणीय प्रष्न है कि एक ओर प्रदेष में बिजली,सड़क पानी जैसी बुनियादी आवष्यकताओं की व्यवस्था नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री बेरोजगारी भत्ता देने की बात करते हैं । क्या ये षेखचिल्ली का दिवास्वप्न नहीं है ? जरा सोचिये सूबे के युवा को लाचार बनाकर किस काम का है बेरोजगारी भत्ता । अगर प्रदेष के लिए कुछ करना चाहते हैं तो कम से कम बुनियादी जरूरतें पूरी करने का प्रयास करें । अगर इससे कुछ पैसा बच जाता है तो आगे भी अपने मनभावन मंसूबे पूरे किये जा सकते हैं । अंततः प्रदेष का आंतरिक माहौल की वहां पूंजीपतियों को पूंजी निवेष के लिए प्रेरित करता है । पूंजी निवेष का सीधा सा अर्थ है प्रदेष में रोजगार साधनों का विस्तार । युवाओं को यदि रोजगार मिलने लगेगा तो उनकी क्रय षक्ति बढ़ जाएगी,जिसका सीधा लाभ प्रदेष के बाजार पर देखने को मिलेगा । बाजार की आय से निष्चित तौर पर प्रदेष की आय बढ़ेगी और उसे कदम कदम पर दिल्ली का मुंह निहारने की आवष्यकता नहीं रह जाएगी । इसके अलावा तकनीकी षिक्षा,खेल और खिलाडि़यों को प्रोत्साहन जैसे अनेकों कार्य है जों वर्शों से सरकार की नजरे इनायत का इंतजार कर रहे हैं । मगर अफसोस बीते कई वर्शों से प्रदेष रचनात्मक कार्यों के बजाए विध्वंसक गतिविधियों का गढ़ बना हुआ है ।
इस दिषा में बहुत दूर जाकर प्रेरणा लेने की आवष्यकता नहीं है,अपने इर्द गिर्द बसे बिहार और मध्य प्रदेष  से भी प्रेरणा ली जा सकती है । विकास यात्रा में बहुत पिछड़े माने जाने वाले मध्य प्रदेष और बिहार ने बीते दस सालों मंे जो उन्नती की है उसके नतीजे अब सामने हैं । सड़क बिजली और पानी कहने को सामान्य सी बात है जिसका रोना प्रायः हर आम आदमी रोता है । फिर भी सरकार चला रहे समाजवादी युवा को ये बातें कौन समझाए । यहां समाजवाद का प्रयोग करने का विषेश प्रयोजन है, क्योंकि षायद सपा का समाज परिवार से ही पूरा हो जाता है । जरा याद करें अखिलेष जी के मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद रिक्त हुई लोकसभा सीट पर संपन्न हुए उपचुनाव । इन चुनावों मंे दो बातें खुलकर सामने आईं पहली तो विपक्ष का दयनीय समर्पण और दूसरी बात मुख्यमंत्री का डिंपल के पक्ष मंे सभा का संबोधन । सोचने वाली बात है लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित होने वाली डिंपल की लोकप्रियता का ग्राफ कुछ ही दिनों मंे अपने चरम पर कैसे पहंुच गया । उनकी विषेश सामाजिक स्वीकार्यता के मायने क्या हैं ? सीधी सी बात है मंच से प्रदेष के मुख्यमंत्री का आष्वासन विकास होगा । अक्सर देखा जाता है विकास का मुद्दा अक्सर ही केंद्र और प्रदेष सरकार के मनमुटाव के बीच पिस जाता है । बतौर मुख्यमंत्री क्या अखिलेष को ऐसी किसी भी चुनावी सभा में जाना चाहिए था ? प्रदेष ऐसे धुर परिवारवादी मुख्यमंत्री से विकास की क्या अपेक्षाएं रख सकता है ? जवाब आपको हमें और प्रदेष के समस्त मतदाताओं को ढ़ूंढ़ना होगा ।
समाजवाद की साइकिल पर सवार युवा को मुख्यमंत्री भवन तक पहुंचाने में षायद प्रदेष के हर वर्ग के लोगों का योगदान रहा है । लोगों में हर्श था कि षायद अखिलेष प्रदेष को उत्तम प्रदेष में तब्दील कर दें । जनता की ये उम्मीदें उनके षपथ ग्रहण समारोह के बाद ही काफूर हो गई । वजह साफ थी अखिलेष को छोड़कर उनके मंत्रीमंडल में लगभग कोई नया चेहरा देखने को नहीं मिला । इन चेहरेां में राजा भईया,आजम खां और षिवपाल सिंह के विषेश येागदान को कौन भुला सकता है ? अंततः जिसका डर था हुआ भी वही सपा सरकार में बाहुबलियों की बांछे छिल गईं । विजय मिश्र,मुख्तार अंसारी जैसे नेता खुलेआम भोज के नाम पर मलाई काटने लगे तो अमरमणी त्रिपाठी चिकित्सा के नाम पर खुलेआम यहां वहां विचरने लगे । ऐसे मंत्रियों से घिरे नेता से विकास की क्या उम्मीद की जा सकती है । हुआ भी ठीक यही,कभी मुख्यमंत्री ने बिजली व्यवस्था को सुधारने के नाम पर दुकानें षाम सात बजे तक बंद करने का तुगलकी फरमान जारी किया तर्क था प्रदेष बिजली बोर्ड की दयनीय दषा तो दूसरी ओर विधायकों को विधायक निधि से बीस लाख रूपये मूल्य की लक्जरी गाडि़यों खरीदने की छूट । हांलाकि विपक्ष के विरोध के बाद प्रदेष सरकार को ये दोनो फैसले वापस लेने पड़े । बात यहीं थम जाती तो फिर भी गनीमत थी लेकिन मं़त्रीगण हैं कि मानते नहीं । अभी हाल ही में माननीय मंत्री षिवपाल जी ने बैठक में अधिकारियों को थोड़ी थोड़ी चोरी करने की हिदायत भी दे डाली । हालात तब और बिगड़ गए जब मीडिया ने ये फुटेज बार बार रिपीट कर दिखाये । बाद में मंत्री जी ने सफाई भी दी मीडिया ने कंटेट को तोड़ मरोड़ कर जारी किया है । इतनी फजीहत के बाद प्रदेष के मतदाताओं की समझ में ये बात आ गई है उन्होने भस्मासुर को मनोवांछित वर दे दिया है । इन सभी प्रकरणों मंे हो रही प्रदेष की दुर्दषा से सचमुच निरूत्तर है उत्तर प्रदेष । सूबे के इस हाल को देखते हुए मुझे चंद पंक्तियां याद आ रही हैं जो पेषे खिदमत हैं: बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा जहां हर षाख पे उल्लू बैठा है ।
                                         सिद्धार्थ मिश्र‘ स्वतंत्र’

Saturday, August 25, 2012

असम हिंसा के मायने तलाषने होंगे

  • यूं तो देष में हिंसा आगजनी और रक्तपात कोई नयी बात नहीं है । इसके बावजूद असम के कोकराझार में हालिया हुई हिंसा की वजह और उद्देष्य देष के अन्य भागों में हुई हिंसक गतिविधियों से सर्वथा भिन्न हैं । बहरहाल हिंसा कहीं भी हो और कोई ये बात सर्वथा निंदनीय कही जाएगी । असम हिंसा की मुख्य वजह बांग्लादेष से लगातार हो रही घुसपैठ । इस घुसपैठ को कहीं न कहीं भारतीय राजनीति के समर्थन से इनकार नहीं किया जा सकता । इस बात में कोई दो राय नहीं कि ये समर्थन कोई और नहीं कांगेस ही कर रही है । वोट बैंक और तुश्टिकरण को सत्ता की कुंजी मानकर कांग्रेस के ये फैसले देष हित के सर्वथा विपरीत हैं । इसका खामियाजा पूरे देष समेत विभिन्न कांग्रेसी नेताओं ने भी भुगता है । कौन भूल सकता है इंदिरा गांधी व राजीव गांधी हत्याकांड को । गौरतलब है कि राजीव गांधी हत्याकांड में प्रमुख भूमिका निभाने वाले संगठन लिट्टे का पालन पोशण और प्रषिक्षण भी स्व राजीव गांधी के सानिध्य में हुआ था । वजह थी तमिलनाडू में अपनी खोई राजनीतिक जमीन तैयार करना । कुछ ऐसी की गतिविधियां आसाम में भी चल रही हैं । आंकड़ों के अनुसार देष में लगभग दो करोड़ बांग्लादेषी घुसपैठिये कब्जा जमाये बैठे हैं । सोचने वाली बात जो देष जायज रूप से भारत की नागरिकता मांग रहे पाकिस्तान से आये हिन्दुओं की मांग को अनसुना कर देता है वो देष इन देषद्रोहीयों के साथ हमदर्दी क्यों रखता है । वजह साफ है मुस्लिम वोटों का एकीकरण और सत्ता में बने रहने का तुच्छ स्वार्थ ।

मूल प्रष्न देष के भविश्य का है । लगातार बढ़ रही जनसंख्या से आजिज हिन्दुस्तान में जहां उसके मूल निवासियों का भविश्य अधर में है,इन परिस्थितियों में इन बिन बुलाये मेहमानों की प्रासंगिकता कहां तक रह जाती है? इन सारी चीजों के बीच जो सबसे जटिल प्रष्न है वो कि क्या हिन्दुस्तान के सच्चे नागरिक बन सकते हैं? जवाब हैं नहीं बांग्लादेष से आये ये घुसपैठिये स्वभावत: संविधान के बजाय षरियत से संचालित होते हैं । ऐसे में इन्हे पनाह देना क्या देष के हितों से खिलवाड़ करना नहीं है ? लेकिन अफसोस सत्ता के दोगले चरित्र का लाभ उठाकर ये पूर्णतया देष के इस भाग में काबिज हो गये हैं । हैरत की बात ये भी है कि इनमें से अधिकांष के पास राषनकार्ड और मतदाता पहचान पत्र भी है । ऐसे में अब इनकी सही पहचान करके वापस लौटाना निष्चित तौर पर दुरूह कार्य हो गया है । आसाम में धीरे धीरे ही सही अचानक इतनी बड़ी संख्या में आवक से सामाजिक ताना बाना पूर्णतया छिन्न भिन्न हो गया है । सूबे की राजनीति में सरकार बनाने में इन घुसपैठियों की प्रमुख भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है । जहां तक इन्हे वापस भेजने का प्रष्न है तो बांगलादेष की प्रधानमंत्री षेख हसीना ने स्पश्ट रूप से घोशणा कर दी है कि भारत में एक भी बांग्लादेषी अवैध रूप से नहीं रह रहा है । आए दिन देष के विभिन्न भागों में हो रहे धमाकों और हिंसा में इन्ही बांग्लादेषियों के संलिप्त होने की खबरें सुखियां बनी हुई हैं। विचारणीय प्रष्न है तालिबानी मानसिकता से प्रेरित ये लोग जब पूरे देष को आक्रांत बनाए हुए हैं तो आसाम में इन्होने क्या गुल खिलाये होंगे । वर्तमान परिदृष्य में जब पूरा विष्व इस्लामी आतंकवाद से परेषान है तो भी सत्ता स्वार्थ में उलझी कांग्रेस को भगवा आतंकवाद ही नजर आता है । विष्व के तमाम षक्ति संपन्न देष, उदाहरण के तौर पर रूस चेचेन्या से,म्यांमार बांग्लादेष से,चीन सिक्यांग से,अमेरिका तालिबान से इस्लाम प्रायोजित आतंकवाद से परेषान है तो भी कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन को भगवा आतंकवाद ही हिंसा का कारण नजर आता है । ऐसी विशाक्त परिस्थितियों में जब हम स्वतः अपने निरीह नागरिकों को आतंकी घोशित कर रहे हैं तो हम किस मुंह से इस्लामिक आतंकवाद की समस्या पर विष्व का ध्यान आकृश्ट करा पाएंगे ।

अब जरा आंकड़ों के आइने में असम समस्या की बात करते हैं । आसाम हिंसा को भले ही हिन्दु व मुस्लिम समुदायों के बीच संघर्श बताया जा रहा हो लेकिन हकीकत इसके सर्वथा विपरीत है । पूरे देष में अल्पसंख्यक हितों के नाम देष का षोशण करने वालों के अलावा अल्पसंख्यक और भी  हैं । इनमें से अधिकांष असम में हैं, अगर गौर करें तो पाएंगे तो असम मूलतः जनजातियों का प्रदेष है । गौर फरमाइएगा असम में रहने वाली जनजातियों में नागा 15 लाख,मीजो 10 लाख से भी कम,मणिपुर के आदिवासी 10 लाख से भी कम,खासिस और गोरोस 10 लाख के आस पास तथा बोडो जिन्हे उपद्रवी बताया जा रहा है उनकी जनसंख्या 15 लाख है । अगर इन सभी जनजातियों की पूरी जनसंख्या का योग कर लिया जाए तो इनकी संख्या एक करोड़ भी नहीं हो पाती । ऐसे में असम में निवास करने वाली जनजातियां क्या अल्पसंख्यक होने की दावेदार नहीं हैं ? इसके बावजूद इनके हितों की तिलांजली देकर सरकार ने अवैध रूप से जो घुसपैठ का समर्थन किया है ये हिंसा वास्तव में उसी का परिणाम है । जनसंख्या की वृद्धि के साथ साथ संसाधनों मंे वृद्धि तो हुई और जो संसाधन उपलब्ध भी थे उनका भी अधिकांष हिस्सा इन बांग्लादेषियों ने कब्जाना षुरू कर दिया । इसके परिणामस्वरूप लोगों मंे भीशण असंतोश पनपने लगा । इसकी अंतिम परिणीती है ये हिंसा जो प्रायोजित तो बांग्लादेषियों ने की पर इसका जवाब बोडो जनजातियों ने प्रतिहिंसा से दिया । जहां तक इन जनजातियां के हिन्दू होने का प्रष्न है तो ये बात सिवा कोरी गप के कुछ भी नहीं है । इनमें से अधिकांष जनजातियां अपने मूलस्थान और विषिश्टताओं के अनुरूप संचालित होती हैं । इसके बाद षेश बची जनसंख्या का अधिकांष हिस्सा ईसाई धर्मावलंबी हेै,तत्पष्चात स्थान आता है हिन्दुओं का जो मुट्ठी भर से ज्यादा नहीं हैं । ऐसे में इस घटना का जिम्मेदार हिन्दुओं को बताना तो सिर्फ निरी मुर्खता ही कही जाएगी । सरकार के तमाम बयानों के बावजूद उत्तर पूर्व के लोगों का देष के विभिन्न हिस्सों से पलायन करना क्या साबित करता है ? जवाब है सरकार का निकम्मापन और तुच्छ मानसिकता । ऐसे परिस्थितियों से कब तक दो चार होता रहेगा एक देष भक्त हिन्दुस्तानी? ऐसे किसी भी सवाल का जवाब षायद केंद्र सरकार के पास भी उपलब्ध नहीं हैं । मैं किसी धर्म मजहब या वाद की पैरवी नहीं कर रहा,मेरा मानना है कि देष में देषहित से बड़ा कोई हित नहीं होता। इतनी सी बात कब समझेंगे ये तथाकथित नेता । खैर ये समझें या ना समझें समझना जनता का है,क्योंकि जनता के इन बातों के समझने के बाद उसे योग्य नेता चुनने में सहायता मिल जाएगी । अंततः नजर एटवी की इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए देष के बिगड़े सूरतेहाल पर: ‘हादसे इतने है वतन में अपने, कि लहू से छपके भी अखबार निकल सकते हैं ’।
                                       सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’
         

Friday, August 24, 2012

क्या हिन्दुओं के मानवाधिकार नहीं होते ?


                        
षीर्शक वाकई चैंकाने वाला है, लेकिन सत्य है । भारत की वर्तमान दषा और दिषा तो कम से यही सिद्ध करती है । जैसा कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री अपने विभिन्न संबोधनों में कई बार कह चुके है ‘समस्त अल्पसंख्यकों का हमारे सभी राजकीय संसाधनों का पहला अधिकार है ।’ खैर यहां प्रष्न उनके कहने का नहीं है । इस तुगलकी व्यवस्था की बानगी हम विभिन्न षासन प्रदत्त व्यवस्थाओं में स्पश्ट देख सकते हैं । उदाहरण के तौर मुस्लिमों को धार्मिक यात्रा के नाम पर दी जाने वाली सब्सिडी का उदाहरण पूरे विष्व में अनोखा है । दूसरा उदाहरण है कष्मीर में लागू अनुच्छेद 370 जो धर्म के आधार पर एक देष दो संविधान का सबसे घटिया उदाहरण है । ध्यान दें तो पाएंगे कि विष्व में ऐसे तुश्टिकरण के जघन्य अपराध अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेंगे । घटियापन के ये ओछे उदाहरण यहीं समाप्त नहीं होते आमजन जीवन में षरियत पर आधारित  व्यवस्था के नाम पर अक्सर ही तिरंगे का अपमान, हिंसा और रक्तपात जैसे अपराधों से रूबरू होते रहते हैं । विचारणीय प्रष्न है कि अगर अफजल गुरु,अजमल कसाब जैसे हत्यारों के मानवाधिकार हो सकते हैं तो काष्मीर से लेकर सिंध तक उत्पीडि़त हो रहे हिंदुओं के क्यों नहीं ? पाक से षरणार्थी बन कर हिन्दुस्थान में नागरिकता की मांग कर रहे हिन्दु अगर बाहरी हैं तों ये आतंकी क्या इस देष के गौरव हैं ? देष की अखंडता और संप्रभुता पर कुठाराघात करने वाले इन आतंकियों का ये सत्कार कब तक ? क्या देष के आमजन से वसूला जाने वाला कर इन कुत्सित हत्यारों की बिरयानी पर खर्च नहीं होता? अंततः अगर एक लोकतंात्रिक पद्धति पर चलने वाले देष का न्याय यही है तो फिर अन्याय किसे कहते हैं?

उपरोक्त अनेकों प्रष्न हैं जो प्रायः सभी देष भक्तों के विचार पटल पर अंकित होते जा रहे हैं । हैरत होती इस नपुंसक व्यवस्था को देखकर क्या यही मूल्य षहीदों की कुर्बानी का । अगर सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे इस कुत्सित व्यवस्था के बीज हमारी दासता के हजारों सालों में ही बोए गए थे । इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता देष की संपन्नता और संस्कृति पर ग्रहण लगाने इन विदेषी आक्रमणकारियों के भारत आगमन का उद्देष्य मैत्री भाव बढ़ाना तो कत्तई नहीं था । इसके अनेकों उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं । मंदिरों को तोड़ना,धन संपदा समेत नारियों का षील भंग एवं नृषंस हत्याएं करने वाले इस उन्मादी समुदाय का खौफ आज तक हमारी लचर षासन व्यवस्था में विद्यमान हैं । खौफ षव्द सर्वथा जायज अन्यथा क्या वजह है इतिहास में हुए अनेकों दंगों और हिंसा को तो भुला दिया गया लेकिन गुजरात के गोधरा दंगों में मोदी को अपराधी सिद्ध करने के प्रयास साल दर साल बदस्तूर जारी हैं । वास्तव में ये डर ही है सत्ता खोने का डर और अपने इसी डर से आक्रांत होकर कांग्रेसियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी देषहितों की तिलांजली दी । सल्तनत या मुगलकाल में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार से प्रायः सभी परिचित होंगे । इस दिषा में कुछ उल्लेखनीय चीजों को यहां रखना मैं सर्वथा आवष्यक समझता हूं । उस काल के बर्बर षासकों का सीधा सिद्धांत था ‘कुराण या कृपाण’ अर्थात या तो मतांतरित होकर इस्लाम धर्म को स्वीकार करना अथवा कृपाण के प्रहार से अपने प्राण गंवाना । यहां एक और व्यवस्था थी वो थी षासकों द्वारा निर्धारित जजिया कर देकर जिम्मी हो जाना । यही व्यवस्था पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हो रहे जघन्य अपराधों की मूल वजह है । बहरहाल इस दिषा में काफी सोचने के बाद भी कुछ बातें मैं समझ नहीं पाया हूं । इतिहास में अकबर को महान कहा गया है । इस बात को अगर स्वीकार कर लें तो अकबर के षत्रु महाराणा प्रताप को क्या कहेंगे? महान व्यक्ति की महानता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति की क्या पहचान होती है? बहरहाल ये हम सभी के सोचने का विशय है ।
अगर आधुनिक इतिहास को गौर से पढ़े ंतो पाएंगे तो देष की इस दुर्दषा के जिम्मेदार कोई और नहीं हमारे तथाकथित महात्मा गांधी ही हैंे। पूर्व में जो कुछ भी हुआ उसको भुलाकर हिन्दू मुस्लिम की खाईं जब पट रही थी तो 1919 में मुस्लिम लीग की स्थापना में उनके अभूतपूर्व योगदान से कोई इनकार नहीं कर सकता । जहां तक जिन्ना का प्रष्न है तो वो उस काल तक पूर्णतया देषभक्त था । उसने इस खतरे के प्रति श्रद्धेय गांधी जी को सचेत भी किया था । अंततः मुस्लिम नेताओं में बढ़ते गांधी के वर्चस्व को देखते हुए उसने धार्मिक आधार पर देष के विभाजन की मांग रखी । इस संदर्भ में जिन्ना के ऐतिहासिक षब्द इस प्रकार हैं । ‘एक देष में हिन्दु और मुसलमानों का साथ रहना संभव नहीं हैं,क्योंकि हिन्दु गाय की पूजा करते हैं और मुसलमान गाय को खाते हैं । ’ खैर जिन्ना,ब्रिटिषराज और कांग्रेस के घटियापन से देष का धार्मिक विभाजन हुआ। इस विभाजन के साथ ही साथ महात्मा गांधी की विष्वसनीयता भी संदिग्ध हो गई थी, क्योंकि विभाजन के कुछ दिन पूर्व ही उन्होने कहा था कि ‘देष का विभाजन मेरी लाष पर होगा ’। इस विभाजन के बाद भी वो न सिर्फ जीवित थे बल्कि उनके सामान्य जीवन में भी इस बात का कोई अफसोस नहीं दिखता था । बहरहाल धार्मिक विभाजन की ये घटनाएं हमें यत्र तत्र सर्वत्र देखने को मिलती हैं । उदाहरण के तौर पर सांप्रदायिक समाधान के लिए ग्रीस व बुल्गारिया तथा ग्रीस व तुर्की के बीच हुई जनसंख्या की अदला बदली की घटना । भविश्य में षांति और सौहार्द क्या इस तरह की व्यवस्था हमारे यहां नहीं हो सकती थी । इन चीजों केा यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये हमारे तात्कालीन राजनेताओं की भयंकर रणनीतिक भूल मानी जाएगी जिसका ख्वामियाजा विवष हिंदुओं को हिन्दुस्तान व पाकिस्तान दोनों देषों में भुगतना पड़ रहा है । इस तर्क तो यदि आंकड़ों के नजरिये से देखें  तो ये बात और अच्छे से समझ में आ जाएगी । सन 1951 में हुई भारतीय जनगणना के अनुसार भारत में मुस्लिम जनसंख्या 10.43 प्रतिषत तो हिन्दु जनसंख्या 87.24 प्रतिषत थी तो वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान में हिन्दू आबादी 22 प्रतिषत थी । इसके ठीक 50 वर्श बाद 2001 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में मुस्लिम आबादी 13.42 प्रतिषत हो गई लेकिन पाकिस्तान में इसके विपरीत पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या में जबरदस्त गिरावट आई और वो घटकर मात्र 1.8 प्रतिषत ही रह गई । प्रष्न ये है कि ये आंकड़े क्या साबित करते हैं? इन आंकड़ों को पेष करने का मेरा सीधा सा उद्देष्य है ये दिखाना है आजादी के 65 वर्शोेै बाद भी दोनों देषों में हिन्दुओं की स्थिति निराषाजनक है । भारत में अल्पसंख्यकों को संविधान से भी बड़ा दर्जा मिला तो पाकिस्तान में हिन्दुओं की दषा कुत्तों से भी बद्तर है । एक ओर पाकिस्तान में रोजाना हिन्दू लड़कियों को अगवा कर उनका धर्म परिवर्तन कराया जा रहा तो दूसरी ओर हिन्दुस्तान अल्पसंख्यकों का रोना रोकर हिन्दू हितों की तिलांजली दी रही है। समझने वाली बात सरहद के इस ओर और उस ओर दोनों तरफ कोई ठगा गया तो वो हिन्दु ही हैं । ये सब जानकर भी हम कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाते? वजह साफ है हमारा जातिगत विभाजन जिसका लाभ उठाकर 50 वर्शों से हमें बेवकूफ बनाया जा रहा हैं । अंततः
‘अब तक जिसका खून न खौला खून नहीं वो पानी है,
जो देष के काम न आए वो बेकार जवानी है’                  
                                            सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’      
 

Wednesday, August 22, 2012

क्या प्रधानमंत्री का पद संविधान से बड़ा होता है?


         
अपने दूसरे कार्यकाल के आने तक केन्द्र के प्रायः सभी मंत्री अपनी विष्वसनीयता खो चुके हैं । आमजन की रही सही आषा प्रधानमंत्री के कैग रिपोर्ट की लपेट में आने से खो चुकी है । इसमें दो राय नहीं भ्रश्टाचार का दलदल बन चुके संप्रग गठबंधन की आखिरी उम्मीदें साफ सुथरी छवि वाले मनमोहन सिंह से जुड़ी हैं । ऐसे में कोयला ब्लाक आवंटन में अनियमितता प्रकरण में प्रधानमंत्री की संलिप्तता सिद्ध होने के बाद कांग्रेस की मुष्किलें और बढ़ गई हैं । बीते दिनों सामने आई कैग रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न परियोजनाओं और विकास के नाम पर देष के लगभग तीन लाख बयासी हजार करोड़ रूपये भ्रश्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं । इस तरह की रिपोर्ट के चुनाव पूर्व आने का सीधा असर कहीं न कहीं सरकार के मनोबल पर भी पड़ता दिख रहा है । षायद इसी तरह की रिपोर्ट और आर्थिक अनियमितताओं का पूर्वानुमान करके कई विपक्षी दलों ने कार्यकर्ताओं को समय पूर्व चुनावों के लिए कमर कसने की हिदायतें भी देनी षुरु कर दी हैं ।
खैर चुनावों और अन्य राजनीतिक समीकरणों पर बात करने से पूर्व कोल आवंटन की अनियमितताओं पर चर्चा करना अधिक समीचीन होगा । अगर स्थितियों को सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे तो देष में बड़े घोटालों की ये परिपाटी 1997 के बाद षुरू हुई जब आर्थिक उदारीकरण की नीति ने हमारे देष में दस्तक दी । इसमें ज्यादा लूट हुई प्राकृतिक संसाधनों की, जिनमें खदान,खनिज,प्राकृतिक संसाधन एवं जमीन एवं स्पेक्टम प्रमुख हैं । अगर गौर करें तो ये स्पश्ट हो जाएगा कि ये समस्त प्राकृतिक संसाधन देष के विकास की बुनियादी आवष्यकता हैं। फिर चाहे सुकना सैन्य जमीन घोटाला,आदर्ष हाउसिंग सोसाइटी घोटाला हो या हाल ही में प्रकाष में आया जीएमआर डायल को दिल्ली एयर पोर्ट के विकास के नाम पर लूटने की खुली छूट देने का मामला हो । ठीक इसी तरह से टू जी स्पेक्टम और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में केंद्र सरकार की खुली बंदरबांट का नजारा देखने को मिला । इन मामलों ने निष्चित तौर पर विकास की गति को अवरुद्ध किया है । इन्हीं आर्थिक मामलों के कारण ही देष का आर्थिक संतुलन बिल्कुल बिगड़ता जा रहा है । वास्तव में ये सोच कर हैरानी होती है कितनी बेषर्मी से अंजाम दिये जाते हैं ऐसे घोटाले । अभी ताजा कोल ब्लाक आवंटन के मामले को देखें तो पाएंगे आवंटित की गई सभी 57 खदानें ज्यादातर ऐसे समूहों को सौंपी गई हैं,जिनका नाम भी हमने नहीं सुना है । इन खदानों से 51 हजार करोड़ रुपयों का लगभग 17 अरब टन कोयला 141 निजी कंपनियों को मनमाने ढ़ंग से सौंपा गया है ।
जैसा कि निष्चित था इस मामले के प्रकाष में आने पर सरकार को जबरदस्त थुक्का फजीहत का सामना करना पड़ा है । विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री के इस्तिफे की मांग पर अड़ना अगर न्यायसंगत नहीं है,तो प्रधानमंत्री समेत सभी वरिश्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा दिये गये बयान भी वस्तुतः स्वार्थ लोलुप ही प्रतीत होते हैं । जरा गौर करें  प्रधानमंत्री के बयान पर ये आवंटन तात्कालिन राजस्थान,छत्तिसगढ़ समेत विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सहमति से किये गये थे । मगर सवाल ये उठता र्है कि तात्कालीन कोयला मंत्री और माननीय प्रधानमंत्री क्या वास्तव में विपक्ष के मुख्य मंत्रियोंका इतना सम्मान करते हैं ? क्या कोल ब्लाक आवंटन मुख्यमंत्रीयों की सहमति से होता है? केंद्रिय स्तर के फैसलों को विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री और विपक्ष कहां तक प्रभावित करते हैं? क्या प्रधानमंत्री का पद संविधान से बड़ा होता है? कैग की रिपोर्ट के बाद यदि ए राजा को सजा दी सकती है तो मनमोहन जी को क्यों नहीं?
इन सारे सवालों का सीधा जवाब है नहीं । इन सारी धांधली के अंजाम तक आने की मुख्य वजह है देष में इन प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में पारदर्षी आवंटन नीति का न होना । सोचने वाली बात है कि जो प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय का भी मुखर विरोध करने की हिम्मत रखते हैं वो विपक्ष के आगे घुटने क्यों टेकेंगे? ध्यातव्य हो देष में देष में अनाज भंडारण की अक्षमता के कारण प्रतिवर्श हो रही अनाज की बर्बादी को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ये अनाज गरीबों में निःषुल्क बांटने के निर्देष दिये । इस पर तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए हमारे इन्ही ईमानदार प्रधानमंत्री ने हलफनामा दाखिल कर ये कहा था कि, कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप न करे न्यायपालिका । विचारणीय प्रष्न है जो प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय को हदें बता सकते हैं वो अचानक विपक्ष के परामर्षों को इतनी तवज्जो कैसंे देने लगे? विपक्ष की एल आई सी विघटन,एफडीआई पर रोक,आतंकियों की फांसी,महाराश्ट की तर्ज पर गुजरात में मकोका कानून लागू करने जैसे गंभीर मुद्दों पर तो सरकार ने विपक्ष की कभी नहीं सुनी । आज इस मामले पर विपक्ष को घसीटने से सरकार की जवाबदेही किसी भी तरीके से कम नहीं हो जाती । पूरा देष जानता है कि गोधरा मामले पर कोर्ट से क्लीनचिट मिलने के बावजूद भी सरकार आज सीबीआई से मामले की जांच करा रही है । उपरोक्त सारे उदाहरणों से एक बात तो साफ हो जाती है कि सरकार वास्तव में विपक्ष या आम जनता किसी की भी नहीं सुनती । ऐसे में झूठे बहाने बनाने के बजाय सरकार को जिम्मेदार लोगों पर तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करनी होगी । खैर मामला यहीं तक सिमट जाता तो भी ठीक था लेकिन सरकार इस मुद्दे पर सदन में बहस की भी इच्छुक नहीं दिखती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब सामने आया जब वरिश्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा सांसद राजीव षुक्ला ने प्रष्नकाल के दौरान उपसभापति के आसन के पास जाकर उनसे कहा सदन की कार्यवाही दिन भर के लिए स्थगित कर दें । हुआ भी ठीक यही तो इन परिस्थितियों में विपक्ष कहां तक दोशी है? अब तक बेईमान सरकार के ईमानदार प्रधानमंत्री के तौर पर पहचाने जाने वाले मनमोहन जी के लिए मुझे गालिब की ये पंक्तियां सर्वाधिक मुफिद लग रही हैंः
                  निकलना खुंद से आदम का सुनते आए है लेकिन
                   बहोत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
देखा जाए तो ये सही भी है आने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस में राहुल बतौर प्रधानमंत्री के उम्मीदवार षामिल होंगे । इन परिस्थितियों में मनमोहन जी की विदाई तो तय ही है लेकिन इतनी दुखांत विदाई कि कल्पना षायद मनमोहन जी ने भी नहीं की होगी ।


Monday, August 20, 2012

लोकतंत्र में युवराज एक भद्दा मजाक


                   
‘कांग्रेस कौन कुमति तोहे लागी’ लोकतंत्र और आम आदमी के हित संवर्धन का दम भरने वाली कांग्रेस आरंभ से ही कुमति का षिकार रही है। इसकी बानगी गाहे बगाहे कांग्रेसी नेता देते रहे हैं। फिलहाल यहां चर्चा का विशय कांग्रेस का अलोकतांत्रिक रवैया है। बीते कई दिनों से अखबारों में युवराज के कांग्रेस के उद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने पर चर्चा हो रही है। इस चर्चा को कोई और नहीं कांग्रेस के वरिश्ठ और पुरनिए नेता ही हवा दे रहे हैं। समाचार पत्रों में अक्सर सुर्खियां बटोरते हैं युवराज। कौन हैं ये युवराज? ये युवराज कोई और नहीं राहुल गांधी ही हैं । खैर यहां ये चर्चा करने के पीछे मेरा कोई व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं है । अभी इसी सप्ताह के आरंभ में हमने  स्वतंत्रता की 65 वीं वर्शगांठ मनाई है । इस आयु को अगर मानव के जीवन से भी जोड़कर देखें तो ये आयुवर्ग प्रौढ़ता का परिचायक है । जहां तक भारतीय लोकतंत्र का प्रष्न है तो उसे भी आयु के इस सोपान पर मानसिक दक्षता का परिचय देना ही  होगा । अतः अब ये प्रष्न विचारणीय है कि क्या लोकतंत्र में आज भी युवराज की आवष्यकता है? किसी व्यक्ति विषेश को युवराज की उपमा देना मीडिया की मानसिक दासता नहीं है? आजादी के 65 वर्शों के बाद भी क्या हम राजतंत्र को ढ़ो रहे हैं?

बीते वर्श उप्र के विधान सभा चुनावों के दौरान लगभग सभी समाचार पत्रों ने इस तथाकथित युवराज की षान में कसीदे पढ़े । इसकी एक बानगी थी युवराज केा भायी चटनी रोटी ये षीर्शक है उस तस्वीर का जिसमें राहुल को झांसी के एक दलित परिवार में रोटी खाते हुए दिखाया गया है । इस तस्वीर को प्रकाषित किया था , हिन्दी समाचार पत्रों में प्रथम स्थान का दम भरने वाले एक ख्यातिलब्ध समाचार पत्र ने । यहां प्रष्न तस्वीर का नहीं है, प्रष्न है समाचार पत्र के वैचारिक स्तर का । इसमे सिर्फ एक समाचार पत्र का दोश क्यों दें, प्रायः सभी समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में इस तरह के षीर्शक आते ही रहते हैं । यानी हमारी पत्रकार बिरादरी ने उन्हे ‘युवराज ’ स्वीकार कर लिया है। क्या ये परंपरा आज भी कुलीनतंत्र का एहसास नहीं कराती ?
अनेकों ऐसे प्रष्न हैं जो अचानक उठ खड़े होते हैं, इस तरह की खबरों को देखकर । जिसका सिर्फ एक ही अर्थ है कि हम आज भी राजतंत्र में जी रहे हैं, क्योंकि उस काल की तरह आज भी ताजपोषी की प्रथा बदस्तूर जारी है । तथाकथित बुद्धिजीवी आज भी पलक पांवड़े बिछाकर युवराज के राज्याभिशेक का जष्न मनाने को लालायित दिखते हैं ।
बहरहाल अगर गहन विवेचना न की जाए तो युवराज का षाब्दिक अर्थ होता है भावी राजा, अर्थात राजा का पुत्र । अगर इस परिभाशा को आज के संदर्भों में देखें तो हम पाएंगे कि राजतंत्र आज भी जिंदा है । न सिर्फ जिंदा है, बल्कि पहले से भी अधिक मजबूत हो गया है । इस परंपरा का ज्वलंत प्रमाण है कांग्रेस का गांधी परिवार । दषकों से इस परिवार की निरंकुष पीढि़यां न सिर्फ पार्टी पे बल्कि समूचे देष पर राज कर रही हैं ।
इस परंपरा की षुरुआत हुई पं जवाहर लाल नेहरु के प्रधानमंत्री बनने से । आजादी के बाद हांलाकि कई विकल्प थे महात्मा गांधी के पास जो षायद नेहरु से लाखों दर्जे बेहतर थे । किंतु उन्होने न जाने किस मनोभाव से प्रेरित होकर सत्ता की बागडोर पं नेहरु को थमा दी । इसके बाद तो ये परंपरा स्व इंदिरा व राजीव से होते हुए आज राहल तक आ पहुंची है । अगर गांधी परिवार के अन्य नामों पर गौर करेें तो षायद वे भारतीयता की थोड़ी बहुत समझ अवष्य रखते थे । मगर जहां तक राहुल का प्रष्न है तो क्षवि आज भी अमूल बेबी की है । उनकी विषेश योग्यता दलित के घर खाना खाने और रात बिताने तक ही सीमित है । ऐसे कई प्रसंग हैं जहां उन्होने चैपालें लगाकर लोगों की समस्याएं सुनी पर नतीेजा वही ढ़ाक के तीन पात ही निकला । अंततः राज्य सरकार के असहयोग का रोना रोकर उन्होने गरीब परिवारों को भाग्य भरोसे छोड़ दिया । अगर वास्तव में वे कुछ करना चाहते हैं तो,उसकी षुरुआत वे अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी से करें । कांग्रेस का परंपरागत गढ़ माने जाने वाला उनका ये संसदीय क्षेत्र आज भी विकास के नजरिये पिछड़ा ही है । जहां तक प्रष्न सोनिया गांधी का है तोे निःसंदेह उन्होने अध्यक्ष पद संभालने के बाद कांग्रेस में एक नई जान डाल दी है । कांग्रेस पार्टी  के अंदर उनके इषारे के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता । पार्टी में उनके प्रभुत्व को गृह मंत्री षिवराज षिंदे के हालिया बयान से जाना जा सकता है । अपने बयान में षिंदे ने सोनिया जी को जिस तरह से महिमामंडित किया वो वास्तव में काबिलेगौर था । वैसे इस तरह के बयान देने की परंपरा कांग्रेस के लिए नई नहीं है । इसके पूर्व भी मप्र के राज्यपाल षिव नरेष यादव ने अपने जनपद में आयोजित उनके खुद के अभिनंदन समारोह में सरेआम सोनिया जी का आभार व्यक्त किया था । अपने बयान में उन्होने कहा था कि सोनिया जी की सिफारिष से मुझ जैसा अदना कार्यकर्ता राज्यपाल बन पाया । एक राज्यपाल के मुंह से निकले ये षब्द क्या साबित करते हैं? क्या कारण है उन्हे अपने अभिनंदन समारोह में सरेआम सोनिया गांधी की चरण वंदना करनी पड़ी? ये सारी बातें इस ओर साफ इषारा करती हैं कि आजादी के बाद आज भी देष में राजतंत्र कायम है । मनमोहन सिंह पर आए दिन डमी प्रधानमंत्री होने के आरोप लगते रहे हैं । इन बातों में सत्यता चाहे जो भी हो पर एक बात स्पश्ट है कि सत्ता की बागडोर आज भी गांधी परिवार ही संभाल रहा है । ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां गांधी परिवार देष के कानून व संविधान से भी बड़ा नजर आता है । किसी जमाने में स्वदेषी के प्रबल पक्षधर गांधी परिवार की वर्तमान पीढ़ी आज स्वदेष और स्वदेषी का बहिश्कार करने पर आमादा है । क्या वजह है कांग्रेस अध्यक्षा द्वारा उपचार के नाम पर विदेषों में करोड़ों रुपये फूंकने का ? क्या उनका हमारी चिकित्सा सेवाओं से विष्वास उठ गया है ? या वो कौन सा लाइलाज रोग था जिसका इलाज भारत में संभव नहीं है?
ऐसे अनेकों प्रष्न र्हैं जो अब तक अनुत्तरित हैं । हैरत की बात है कि ये माननीय सोनिया जी ने इस बाबत कुछ भी बताना उचित नहीं समझा । खैर इस घटना से संबंधित एक वाकया याद आ रहा है । पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब घुटनों की तकलीफ से पीडि़त थे,तो वे भी विदेष जा सकते थे । किंत ु उन्होने मुंबई के एक अस्पताल में षल्य चिकित्सा कराके ये साबित कर दिया कि उन्हे अपने देष की चिकित्सा सेवाओं पर पूरा भरोसा है । उच्च स्तर के लोगों के जीवन से जुड़ी ये छोटी से छोटी घटनाएं आम आदमी के लिए उदाहरण का काम करती हैं । जो भी हो इस प्रसंग का यहां जिक्र करने से मेरा आषय इन दोनों के बीच तुलना करने का नहीं है । ये सभी का व्यक्तिगत विशय है कि वो अपनी चिकित्सा कहां कराता है, किंतु देष के बड़े नेताओं का ये आचरण निष्चित तौर पर आमजन के बीच जबरदस्त प्रभाव रखता है ।
 ब्हरहाल इसके अलावा दर्जनों ऐसे प्रसंग हैं जो ये साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि कांग्रेस लोकतं़त्र में तो कत्तई भरोसा नहीं रखती । फिर चाहे वो सोनिया का सत्ता में अदृष्य दखल हो अथवा स्व इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल हो । जहां तक उत्तरदायित्व का प्रष्न है तो इस कुप्रथा को जीवंत बनाए रखने में गांधी परिवार से ज्यादा जिम्मेदार हैं उनके पिछलग्गू । कौन भूल सकता है कांग्रेसी नेता सिद्धार्थ षंकर रे की ये टिप्पणी  ‘इंडिया इज इंदिरा एण्ड इंदिरा इज इंडिया’ या आज के परिवेष में दस जनपथ की लगातार परिक्रमा करने वाने तथाकथित नेताओं राहुल को भावी प्रधानमंत्री बताना । क्या मजबूरी है दिग्विजय,बेनी प्रसाद वर्मा सरीखे वरिश्ठ नेताओं द्वारा गांधी परिवार की चापलूसी करने की?
वास्तव में कुछ घटिया और चापलूस श्रेणी के नेताओं ने ही कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को तहस नहस कर डाला है । इनकी अफलातूनी हरकतें किसी भी सामान्य व्यक्ति को बरगला सकती हैं । ध्यान देने वाली बात ये भी है कि ऐसे ही चाटुकारों के घृणित षोध एवं अध्ययन के आधार पर ही राहुल संघ की तुलना देषद्रोही संगठन सिमी से कर बैठते हैं ।
कांग्रेस ही क्यों देष में कई ऐसे राजनीतिक परिवार हैं,जो स्वस्थ राजनीति के स्थान पर राजतंत्र की झंडा बरदारी करते नजर आते हैं । इनमें काष्मीर का अब्दुल्ला परिवार पीढि़यों से सत्ता सुख भोगता चला आ रहा है । हरियाणा का हुड्डा परिवार या समाजवाद के नाम पर वंषवाद की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव जैसे अनेकों उदाहरण आज भी मौजूद हैं ।
उपरोक्त सार े साक्ष्य ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हम आज भी आजाद भारत में गुलाम नागरिक से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं । मेरे विचारों में लोकतंत्र की सर्वश्रेश्ठ पुश्टि दुश्यंत कुमार की इन पंक्तियों में परिलक्षित होती हैः
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं ,
मेरी कोषिष है कि ये सूरत बदलनी चाहिए,
मेरे सीने में नही ंतो तेरे सीने में सही ,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
ये सही भी है कि योग्यता किसी परिवार या वंष विषेश की गुलाम नहीं होती । हमारे संविधान में वर्णित लोकतंत्र तभी साकार हो पाएगा जब हम इस राजतंत्र से मुक्त हो जाएंगे ।अंततः लोकतंत्र में लोक सर्वोपरी हैं, उसके बाद ही कहीं तंत्र की बारी आती है । लोकतंत्र का नव विहान तब होगा जब सत्ता कुछ परिवारों के तथाकथित युवराजों के नियंत्रण से मुक्त हो जाएगी ।ेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे
                                                                                         ‘स्वतंत्र’