Thursday, December 25, 2014

"भारतीयरत्नों" को भारत रत्न-- सिद्धार्थ मिश्र "स्वतंत्र"


भारत मे हमेशा से ही विद्वानों को सम्मानित करने की परम्परा रही है।चंद्रगुप्त विक्रमदित्य से काल से लेकर अब तक  भारत मे सदा ही मनीषियों का सम्मान होता रहा है। सम्मान करने की इस परम्परा मे निसन्देह ही सम्मानित किए जा रहे व्यक्ति की असाधारण उपलब्धियों को आधार माना जाता है। कुछ ऐसी ही प्रक्रिया का अनुसरण भारत रत्न चुनने मे भी होता है। विदित हो की १९५४ मे अस्तित्व मे अया भारत रत्न सम्मान भारत का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान है। यह सम्मान किसी भी मानवीय प्रयासो के छेत्र मे असाधारण सेवा,सर्वोच्च स्तर के प्रदर्शन के लिये दिया जाता है। जिसके लिये किसी भी सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही दो असाधारण विभूतियों को उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिये इस वर्ष भारत रत्न के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।सौभाग्य से इस सम्मान की घोसना उनके जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर की गयी है.प्रख्यात शिक्षाविद,समाजसुधारक,वकील एवम स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत करने का निर्णय निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। इन दोनों विभूतियों को उनके जन्मदिवस के अवसर पर सम्मानित करने के निर्णय के दूरगामी एवम  प्रतिकात्मक महत्व भी है।
इस पुरस्कार के लिये मालवीय जी का चयन बहुत विलम्ब से हुआ,इस बात की पीडा उनके परिजनों समेत पूर राष्ट्र को अवश्य है,किन्तु आखिरकार सम्मान के लिये चयन एक राहत की बात है। २५ दीसम्बर १८६१ को प्रयाग मे जन्मे मालवीय जी एकाधिक बार कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष भी रहे.और वो भी उन दिनों मे जब कॉंग्रेस सेफ्टी वॉल्व की भूमिका मे रहकर राय बहादुरों का सम्मान और  भारतीय हितों के चिंतन की दोहरी भूमिका अदा करनी थी . जो उस समय एक असंभव कार्य था। ऐसे विषम काल मे महामना ने १८८६ के द्वितीय अधिवेशन मे कोंग्रेस की इस दोहरी भूमिका को पहली बार कटघरे मे खडा किया। ये उनके उस अधिवेशन मे दिये वक्तव्य का प्रताप  ही था जिसने उन्हे १९०९,१९१८,१९३२ और १९३३ मे चार बार राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित कराया। उनकी वाणी की तरह ही उनकी लेखनी ने भी कई ओजस्वी अध्ययों को रचा। अगर महात्मा गांधी के शब्दों मे कहा जाये तो,उन्ही के शब्दों मे-मालवीय की के दर्शन मैने सन १८९० मे विलायत मे "इंडिया" पत्र मे किए थे.उनकी वही छवि मैं आज भी देख रहा हूँ।आज मालवीय जी के साथ देशभक्ति मे कौन मुकाबला कर सकता है?मालवीय जी ने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके बहुत बड़ा काम किया है। इसमे कोई सन्देह नहीं की मालवीय जी भारत भूषण हैं .मैने मालवीय जी से बड़ा देशभक्त किसी को नहीं मानता.मैं सदा ही उनकी पूजा करता हूँ।मालवीय जी से बड़ा धर्मात्मा मैने नहीं देखा.जीवित भारतियों मे मुझे उनसे ज्यादा भारत की सेवा करने वाला कोई दिखाई नहीं देता। 
महात्मा गाँधी के इन शब्दों के बाद कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अविरल गंगा प्रवाह के लिये  गंगा सभा की स्थापना हो या भारत मे शिक्षा के विकास के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की उपलब्धि हो।मालवीय जी का पूरा जीवन ऐसी असाधारण उपलब्धियों से भरा हुआ है। दूसरी ओर अगर अटल जी को रेखांकित करना हो तो वे भी एक असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी है। पत्रकार,कवि,नेता और प्रधानमंत्री के रूप मे अनेकों गौरवपूर्ण पल राष्ट्र को समर्पित किये हैं।
काल के अनुसार ये दोनो महानुभाव समकालीन भले न हों,किन्तु दोनो मे बहुत सी साम्यतायें हैं।यथा दोनो का जन्म २५ दिसंबर को हुआ।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर जहां मालवीय जी ने देश को शिक्षा की ओर अग्रसर किया तो वाजपेयी ने राष्ट्र को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाया। मालवीय जी ने यदि पुर जीवन शिक्षक,पत्रकार और नेता के रूप मे जीवन भर हिन्दी के विकास को प्रोत्साहन दिया तो अटल जी संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन मे हिन्दी मे उद्बोधन देकर पूरे विश्व मे हिन्दी का परचम लहराया। मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी इस सम्मान से सम्मानित होने वाले क्रमशः ४४ और ४५ व्यक्ति हैं। भाजपा के साथ ही साथ दूसरे दलों ने भी सरकार के इस निर्णय का स्वागत किया है। हांलाकि मालवीय जी को सम्मानित करने का निर्णय सरकार के अविस्मरणीय निर्णय के रूप मे याद किया जायेगा। पिछली सभी सरकारों मे कॉंग्रेस ने हमेशा ही मालवीय जी की अनदेखी जो की है।हास्यास्पद बात जब की सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से पुरस्कृत करने मे कोई विलंब नहीं हुआ तो मालवीय जी को कैसे भुला दिया गया?

ऐसे मे इन दोनो विभूतियों /भारतरत्नों को भारत रत्न से विभूषित करना मात्र इनका ही बल्कि पूरे राष्ट्र के लिये सम्मान का विषय है। अंत मे ये शेर और बात खत्म-
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन मे दीदावर पैदा। 



Wednesday, December 24, 2014

सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है?-- सिद्धार्थ मिश्र"स्वतंत्र"

सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है?-- सिद्धार्थ मिश्र"स्वतंत्र"
सियासी समझबूझ भी कमाल की चीज़ है।अंतिम पलों मे परिणाम परिवर्तित हो जाते हैं।इसकी बानगी आज समाचार पत्रों मे देखने को मिली.अमर उजाला मे प्रकाशित एक खबर के अनुसार कुर्सी की दौड़ मे उमर अब्दुल्ला बने गेम चेंजर। गौरतलब है की चुनावी परिणाम भले ही उमर साहब के अनूकूल न रहे हों,पर वे भी अनुभवी सियासतदान हैं,खंडित जनादेश के बीच निर्दलीय और छोटे दलों को साधकर भाजपा का सरकार बनाने का दावा सबसे बड़े दल के रूप मे उभरी  पी.डी.पी के माथे पर शिकन डाल रहा है। इस मौके का लाभ उमर साहब क्यो न उठाएं,तो उन्होने एक दोतरफा सियासी दांव खेल दिया। वे एक ओर पी.डी.पी को सरकार बनाने के लिये समर्थन से भी इंकार नहीं कर रहे तो दूसरी ओर भाजपा से भी संपर्क बनके चल रहे हैं।ऐसे मे मेहबूबा मुफ्ती की नींद उड़नी लाजिमी ही है। आज शायद मुफ्ती महोदया को एक बात समझ आ गयी की सियासत मे कुछ भी मुफ्त नहीं होता। जैसा की भाजपा के अमित जी ने कहा था की वे सारे रास्ते खुले रख रहे हैं,उनके इस कथन का सही निहितार्थ समझा उमर साहब ने। उन्होने भी दरवाजे खोल दिये,इन दरवाजों का एक सिरा केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुचता है,तो दूसरा सिरा प्रदेश की सियासत मे प्रभावी स्थान दिला सकता।अब यही तो सियासत की विशेषता है,मेहबूबा जीत के भी नहीं जीती,उमर हार के भी नहीं हारे।राजनीति ऐसे ही बाज़ीगरों का अखाडा है। मैं क्या कहूँ,बस इतना कहूंगा ,
रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर...
सांस रोककर आप भी इस सियासी नाटक का भरपूर आनंद लीजिये,सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है>?