Thursday, December 25, 2014

"भारतीयरत्नों" को भारत रत्न-- सिद्धार्थ मिश्र "स्वतंत्र"


भारत मे हमेशा से ही विद्वानों को सम्मानित करने की परम्परा रही है।चंद्रगुप्त विक्रमदित्य से काल से लेकर अब तक  भारत मे सदा ही मनीषियों का सम्मान होता रहा है। सम्मान करने की इस परम्परा मे निसन्देह ही सम्मानित किए जा रहे व्यक्ति की असाधारण उपलब्धियों को आधार माना जाता है। कुछ ऐसी ही प्रक्रिया का अनुसरण भारत रत्न चुनने मे भी होता है। विदित हो की १९५४ मे अस्तित्व मे अया भारत रत्न सम्मान भारत का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान है। यह सम्मान किसी भी मानवीय प्रयासो के छेत्र मे असाधारण सेवा,सर्वोच्च स्तर के प्रदर्शन के लिये दिया जाता है। जिसके लिये किसी भी सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही दो असाधारण विभूतियों को उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिये इस वर्ष भारत रत्न के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।सौभाग्य से इस सम्मान की घोसना उनके जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर की गयी है.प्रख्यात शिक्षाविद,समाजसुधारक,वकील एवम स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत करने का निर्णय निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। इन दोनों विभूतियों को उनके जन्मदिवस के अवसर पर सम्मानित करने के निर्णय के दूरगामी एवम  प्रतिकात्मक महत्व भी है।
इस पुरस्कार के लिये मालवीय जी का चयन बहुत विलम्ब से हुआ,इस बात की पीडा उनके परिजनों समेत पूर राष्ट्र को अवश्य है,किन्तु आखिरकार सम्मान के लिये चयन एक राहत की बात है। २५ दीसम्बर १८६१ को प्रयाग मे जन्मे मालवीय जी एकाधिक बार कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष भी रहे.और वो भी उन दिनों मे जब कॉंग्रेस सेफ्टी वॉल्व की भूमिका मे रहकर राय बहादुरों का सम्मान और  भारतीय हितों के चिंतन की दोहरी भूमिका अदा करनी थी . जो उस समय एक असंभव कार्य था। ऐसे विषम काल मे महामना ने १८८६ के द्वितीय अधिवेशन मे कोंग्रेस की इस दोहरी भूमिका को पहली बार कटघरे मे खडा किया। ये उनके उस अधिवेशन मे दिये वक्तव्य का प्रताप  ही था जिसने उन्हे १९०९,१९१८,१९३२ और १९३३ मे चार बार राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित कराया। उनकी वाणी की तरह ही उनकी लेखनी ने भी कई ओजस्वी अध्ययों को रचा। अगर महात्मा गांधी के शब्दों मे कहा जाये तो,उन्ही के शब्दों मे-मालवीय की के दर्शन मैने सन १८९० मे विलायत मे "इंडिया" पत्र मे किए थे.उनकी वही छवि मैं आज भी देख रहा हूँ।आज मालवीय जी के साथ देशभक्ति मे कौन मुकाबला कर सकता है?मालवीय जी ने हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके बहुत बड़ा काम किया है। इसमे कोई सन्देह नहीं की मालवीय जी भारत भूषण हैं .मैने मालवीय जी से बड़ा देशभक्त किसी को नहीं मानता.मैं सदा ही उनकी पूजा करता हूँ।मालवीय जी से बड़ा धर्मात्मा मैने नहीं देखा.जीवित भारतियों मे मुझे उनसे ज्यादा भारत की सेवा करने वाला कोई दिखाई नहीं देता। 
महात्मा गाँधी के इन शब्दों के बाद कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अविरल गंगा प्रवाह के लिये  गंगा सभा की स्थापना हो या भारत मे शिक्षा के विकास के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की उपलब्धि हो।मालवीय जी का पूरा जीवन ऐसी असाधारण उपलब्धियों से भरा हुआ है। दूसरी ओर अगर अटल जी को रेखांकित करना हो तो वे भी एक असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी है। पत्रकार,कवि,नेता और प्रधानमंत्री के रूप मे अनेकों गौरवपूर्ण पल राष्ट्र को समर्पित किये हैं।
काल के अनुसार ये दोनो महानुभाव समकालीन भले न हों,किन्तु दोनो मे बहुत सी साम्यतायें हैं।यथा दोनो का जन्म २५ दिसंबर को हुआ।बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर जहां मालवीय जी ने देश को शिक्षा की ओर अग्रसर किया तो वाजपेयी ने राष्ट्र को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाया। मालवीय जी ने यदि पुर जीवन शिक्षक,पत्रकार और नेता के रूप मे जीवन भर हिन्दी के विकास को प्रोत्साहन दिया तो अटल जी संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन मे हिन्दी मे उद्बोधन देकर पूरे विश्व मे हिन्दी का परचम लहराया। मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी इस सम्मान से सम्मानित होने वाले क्रमशः ४४ और ४५ व्यक्ति हैं। भाजपा के साथ ही साथ दूसरे दलों ने भी सरकार के इस निर्णय का स्वागत किया है। हांलाकि मालवीय जी को सम्मानित करने का निर्णय सरकार के अविस्मरणीय निर्णय के रूप मे याद किया जायेगा। पिछली सभी सरकारों मे कॉंग्रेस ने हमेशा ही मालवीय जी की अनदेखी जो की है।हास्यास्पद बात जब की सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से पुरस्कृत करने मे कोई विलंब नहीं हुआ तो मालवीय जी को कैसे भुला दिया गया?

ऐसे मे इन दोनो विभूतियों /भारतरत्नों को भारत रत्न से विभूषित करना मात्र इनका ही बल्कि पूरे राष्ट्र के लिये सम्मान का विषय है। अंत मे ये शेर और बात खत्म-
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन मे दीदावर पैदा। 



Wednesday, December 24, 2014

सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है?-- सिद्धार्थ मिश्र"स्वतंत्र"

सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है?-- सिद्धार्थ मिश्र"स्वतंत्र"
सियासी समझबूझ भी कमाल की चीज़ है।अंतिम पलों मे परिणाम परिवर्तित हो जाते हैं।इसकी बानगी आज समाचार पत्रों मे देखने को मिली.अमर उजाला मे प्रकाशित एक खबर के अनुसार कुर्सी की दौड़ मे उमर अब्दुल्ला बने गेम चेंजर। गौरतलब है की चुनावी परिणाम भले ही उमर साहब के अनूकूल न रहे हों,पर वे भी अनुभवी सियासतदान हैं,खंडित जनादेश के बीच निर्दलीय और छोटे दलों को साधकर भाजपा का सरकार बनाने का दावा सबसे बड़े दल के रूप मे उभरी  पी.डी.पी के माथे पर शिकन डाल रहा है। इस मौके का लाभ उमर साहब क्यो न उठाएं,तो उन्होने एक दोतरफा सियासी दांव खेल दिया। वे एक ओर पी.डी.पी को सरकार बनाने के लिये समर्थन से भी इंकार नहीं कर रहे तो दूसरी ओर भाजपा से भी संपर्क बनके चल रहे हैं।ऐसे मे मेहबूबा मुफ्ती की नींद उड़नी लाजिमी ही है। आज शायद मुफ्ती महोदया को एक बात समझ आ गयी की सियासत मे कुछ भी मुफ्त नहीं होता। जैसा की भाजपा के अमित जी ने कहा था की वे सारे रास्ते खुले रख रहे हैं,उनके इस कथन का सही निहितार्थ समझा उमर साहब ने। उन्होने भी दरवाजे खोल दिये,इन दरवाजों का एक सिरा केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुचता है,तो दूसरा सिरा प्रदेश की सियासत मे प्रभावी स्थान दिला सकता।अब यही तो सियासत की विशेषता है,मेहबूबा जीत के भी नहीं जीती,उमर हार के भी नहीं हारे।राजनीति ऐसे ही बाज़ीगरों का अखाडा है। मैं क्या कहूँ,बस इतना कहूंगा ,
रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर...
सांस रोककर आप भी इस सियासी नाटक का भरपूर आनंद लीजिये,सत्ता का ऊँट किस करवट बैठता है>?
                                                                                         

Saturday, February 23, 2013

क्‍या अंधा कुंआ बन चुकी है सीबीआई ? सिद्धार्थ मिश्र’स्‍वतंत्र’

बीते दिनों लोकसभा का चालू सत्र देख रहा था । हांलाकि ये सत्र भी अन्‍य े सत्रों की तरह साधारण था, किंतु इसकी विशेषता रही सीबीआई की नव निर्मित व्‍याख्‍या । ये व्‍याख्‍या किसी साधारण व्‍य‍क्ति ने नहीं बल्कि लोकसभा के सम्‍मानित सदस्‍य एवं जदयू अध्‍यक्ष शरद यादव ने दी। सदन में दिये उद्बोधन में उन्‍होने कहा कि हमारी सीबीआई अंधा कुंआ बन चुकी है । ऐसा अंधा कुंआ जिसमें सांप और बिच्‍छू पाये जाते हैं ।सरकार इस कुंए का इस्‍तेमाल अपने विभिन्‍न भ्रष्‍टाचार एवं घोटालों को छुपाकर निश्चिंत होने में करती है । फिर चाहे वो ट्राटा ट्रक घोटाला हो या २जी स्‍पेक्‍ट्रम,कोल आवंटन ब्‍लाक की अ‍नियमितता का मामला हो या पुरातन बोफोर्स तोप घोटाला हर जगह सीबीआई ने जांच के नाम पर मामले को दबाने की अपनी भूमिका से पूर्णतया न्‍याय किया है।
ध्‍यातव्‍य हो कि साधारण मामलों में जांच के निष्‍कर्ष तक पहुंचाने वाली सीबीआई राजनीतिक भ्रष्‍टाचार के रोकथाम में पूर्णतया विफल नजर आती है । सीबीआई की ये विफलता वास्‍तव में कई सवाल खडे करती है ।
१-  क्‍या सीबीआई मामले को दबाने का सरकारी उपकरण बन चुकी है ?
२-   सीबीआई की वर्तमान कार्यशैली क्‍या उसकी उपयोगिता पर प्रश्‍नचिन्‍ह नहीं लगाती?
३-   देश में सीबीआई की जांच के नाम पर व्‍यय होने वाली समस्‍त धनराशि क्‍या जनता के पैसे की बर्बादी नहीं है ?
४-   सरकार के भ्रष्‍टाचार के मामलों की निष्‍पक्ष जांच में क्‍यों विफल होती है सीबीआई ?

और भी कई प्रश्‍न हैं जो सीबीआई की नाकामियों को देखते हुए आम जनमानस के जेहन में उभरते हैं । अब बात करते हैं हालिया वेस्‍टलैंड हेलिकॉपटर मामले में सीबीआई की विफलता का । ताजा मामले में इस चिर परिचित नाकामयाबी ने सीबीआई का दामन नहीं छोड़ा है । हेलीकाप्‍टर सौदे में दलाली और लेनदेन के मामले की जांच के लिए गया सीबीआई का दल बैरंग वापस लौट आया है । बहरहाल इस मामले में हैरान होने जैसा कुछ भी नहीं है । ये तो सीबीआई की प्राचीन कार्यशैली की पुनारावृत्ति ही है । इस मामले में हैरान कर देने वाली सबसे बड़ी बात ये है कि जिस मामले की अनियमितता को लेकर इटली में दो गिरफ्‍तारियां हो चुकी हैं उसी मामले में हमारी सीबीआई एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकी । यहां एक बात और ध्‍यान में रखने की है कि माननीय न्‍यायालय ने प्रारंभ में ही यह बात सुनिश्चित कर दी थी की इस पूरे प्रकरण में सूचनाएं साझा नहीं की जाएंगी । ऐसे में सीबीआई दल का इटली दौरा भी कहीं न कहीं सवालों के घेरे में आ जाता है ।
इस मामले में सबसे दुर्भाग्‍यजनक बात ये है कि इस सौदे को रद्द करने और शेष राशि की भुगतान पर रोक लगा दी गई है तो दूसरी ओर सीबीआई का ताजा तर्क ये है कि उसके पास जांच को आगे बढ़ाने के लिए प्रारंभिक साक्ष्‍यों का अभाव है । सीबीआई का ये कथन कई सवाल खड़े करता है । यदि इस मामले में प्रारंभिक सुबूतों का अभाव था तो ऐसे में भुगतान को रोकने का फैसला क्‍यों किया गया? ऐसे मामलों में जहां देश की पूंजी दांव पर लगी है सीबीआई प्रारंभिक साक्ष्‍यों का रोना रोकर क्‍या अपनी भूमिका के साथ अन्‍याय नहीं कर रही है? खैर इस मामले के नतीजे जो भी हों ऐसे में जब इस पूरी खरीद के नाम पर ३५ प्रतिशत धनराशि का भुगतान किया जा चुका है तो सारा नुकसान तो आखिरकार भारत का ही हुआ है । यदि सीबीआई इस तरह के राजकोशिय घोटाले को रोकने में विफल हो रही है तो ऐसी जांच एजेंसी क्‍या औचित्‍य ? वास्‍तव में अब ये विचारणीय प्रश्‍न हो गया है कि क्‍या वाकई अंधा कुंआ बन चुकी है सीबीआई ?

Tuesday, February 19, 2013

लोकलुभावन बजट से लोकसभा की तैयारी: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बीते दिन अपने कार्यकाल का दूसरा बजट किया । उनके इस बजट से जैसी की सभी को आशा थी कोई भी सकारात्मक परिवर्तन होने की आशा नहीं दिखती । माननीय मुख्यमंत्री जो ें खुद को युवाओं का नेता होने का दावा करते हैं ने इस बजट से सभी को निराश किया है । हांलाकि इस बजट से कई शिकार करके उन्होने वास्तव में अपने सियासी मंसूबे स्पष्ट कर दिये हैं । सियासी मंसूबे अर्थात युवाओं को खैरात,अल्पसंख्यक कार्ड,किसानों की ऋण माफी के साथ ही आधी आबादी को रिझाने का प्रयास । उनका ये प्रयास वास्तव में कितना रंग लाएगा ये तो भविष्य के गर्त में है लेकिन एक बात स्पष्ट है  िकइस बजट के माध्यम से उन्होने अपने पिताजी के सपनों में सत्ता का रंग भरने की भरपूर कोशिश की है । ऐसा हो भी क्यों ना केंद्र की सत्ता की चाबी उत्तर प्रदेश से होकर ही जाती है । ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 81 सीटों के महत्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता । इन परिस्थितियों में अखिलेश यादव की ये चुनावी फुलझड़ी वास्तव में उनकी सियासी महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ और नहीं दर्शाती ।
हैरत की बात खुद को प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त करने वाले अखिलेश के इस बजट से विकास का दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है । बहरहाल आइए एक नजर डालते हैं उनके पिटारे से निकली सौगातों पर । प्रदेश के अब तक के सबसे बड़े बजट में बुंदेलखंड विकास पैकेज के लिए 109 करोड़,सौर उर्जा मोटर चालित रिक्शा के लिए 400 करोड़,हमारी बेटी उसका कल योजना के लिए 350 करोड़,किसान ऋणमाफी के लिए 750 करोड़, निराश्रित विधवाओं के लिए 608 करोड़,वृद्धावस्था पेंशन के लिए 1683 करोड़,बेरोजगारी भत्ते के लिए 1200 करोड़,सिंचाई के लिए 761 करोड़,गरीब की आवासीय योजना के लिए 400 करोड़,कब्रिस्तानों की बाउंडी के लिए 400 करोड़,अल्पसंख्यक बाहुल्य इलाकों के लिए 375 तथा मदरसों के लिए 200 करोड़ की व्यवस्था की गई है । अब बजट के दूसरे पक्ष पर भी एक नजर डालते हैं यथा पूर्वांचल के विकास के लिए 100 करोड़, गन्ना किसानों को भुगतान के लिए 21 करोड़ मात्र तथा 4500 करोड़ की लागत से प्रदेश में 259 पुलों का निर्माण । ध्यातव्य हो कि जो सरकार प्रदेश की आम आवाम को छत मयस्सर नहीं करा सकती वही सरकार मुर्दों पर कितनी मेहरबान है,े  अर्थात कब्रिस्तान की चारदिवारी के लिए दरियादिली से 400 करोड़ विचार करीये उनकी इस प्रत्युत्पन्नमति से जीवित जनों का क्या लाभ है ? और भी देखीये हमारी दयालु सरकार नौजवानों के हाथ में कटोरा थमाए रखने के लिए 1200 करोड़ रूपये तो फूंक सकती है लेकिन उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए एक भी कदम उठाने को तैयार नहीं है । जहां तक प्रश्न है सपा के पारंपरिक वोटबैंक अल्पसंख्यकों का तो इस बजट से उन्हे भी सिवा छलावे के कुछ नहीं मिला है । ज्ञात हो कि मुस्लिम समाज में ही आते हैं बुनकर जी हां वही बुनकर जिनके हाथ की बनी साडि़यां बनारसी साड़ी के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर हैं । भूखमरी के कगार पर पहुंच चुके इन लोगों के लिए सरकार असंवेदनशील क्यों हो जाती है? अंततः जहां तक प्रश्न है किसानों की ऋण माफी का तो आपकों ज्ञात होगा 2009 में अलोकप्रिय होकर सत्ता खोने के कगार पर पहुंच चुके संप्रग गठबंधन की इसी घोषणा ने उन्हे दोबारा सत्ता वापस दी थी । इस मामले में एक प्रश्न और भी है मात्र 50 हजार रूपये के ऋणी किसानों पर लागू होने वाले इस नियम से क्या वाकई अधिकांश किसानों का भला होगा? जिस प्रदेश में किसानों को समय पर बुआई के लिए खाद बीज तक उपलब्ध न हों सिंचाई के लिए बिजली न हो ऐसी क्षणिक योजनाएं किसानों का कितना भला कर पाएंगी ?
इन बातों को दूसरे नजरीये से भी देखते हैं मान लिया जाए कि माननीय अखिलेश जी अपने सारे वादे पूरे कर भी पाएं तो क्या उनके कदमों से उत्तम प्रदेश का सपना साकार हो जाएगा ? जहां तक प्रश्न है आम आदमी का तो उसे बिजली,सड़क और चिकित्सा जैसी बुनियादी चीजों की आवश्यकता है । क्या प्रदेश सरकार अपनी बुनियादी व्यवस्थाओं से संतुष्ट है ? वास्तव में अगर सरकार बिजली,सड़क जैसी मूलभूत जरूरतों पर ईमानदारी से काम करे तो निश्चित तौर पर प्रदेश में उद्योग धंधों का विस्तार हो जाएगा । वस्तुतः यही उद्योग धंधे ही प्रदेश की आवाम को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराते हैं प्रदेश की आय में वृद्धि लाते हैं । हांलाकि इस बजट में सड़कों एवं पुलों के निर्माण की घोषणा भी की गई परंतु पूर्व सपा सरकार के कार्यकाल मंे शुरू हुए पुल निर्माण का हश्र तो सभी को पता है । इसके अतिरिक्त इस बजट में तमाम ऐसी बातें हैं जिनको देखते हुए ये बजट विकास परक तो कत्तई नहीं कहा जा सकता । जहां तक अखिलेश सरकार के बजट से निहीतार्थ तलाशने का प्रश्न है तो वाकई ये घाटे बजट युवा मुख्यमंत्री की राजनीतिक परिपक्वता को प्रदर्शित करता है । जिन विषम परिस्थितियों प्रदेश के प्रत्येक नागरिक पर 11993 रूपये का कर्ज लदा है सरकार का ये चुनावी लालीपाप क्या गुल खिलाएगा ये तो देखने की बात है । हांलाकि बजट के आधार पर सरकार का आकलन किया तो निश्चित तौर पर ये बजट लोकसभा चुनाव 2014 की तैयारियों की तैयारियों के तौर पर देखा जा सकता है ।े

Monday, February 18, 2013

लाल बत्ती की धौंस और आम आदमी: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’


आस्था के महापर्व कुंभ के अवसर पर वास्तव में इस तरह की चर्चाएं तो होनी ही नहीं चाहीए । विवशता के भाव से ये चर्चा करना मजबूरी बन चुकी है । क्या लालबत्ती गाड़ी लोकतंत्र में धौंस का पर्याय बन चुकी है ? यदि नही ंतो कुंभ जैसे महापर्व में इसकी नुमाइश क्या दर्शाती है ? अभी कुछ दिनों पूर्व ही एक खबर पढ़ी बसंत पंचमी के स्नान पर्व के दौरान सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक एवं प्रदेश की राजधानी के डीआईजी बकायदा अपने वाहनों में सवार होकर कुंभ स्नान के लिए पहुंचे । यहां इन दोनों की ही बात क्यों की जाए इन जैसे न जाने कितने विशिष्ट जनों ने ऐसा ही किया है । यहां वरिष्ठ अधिकारियों का ये शौक क्या दर्शाता है? क्या ये संविधान द्वारा जनता के हितार्थ प्रदत्त अधिकारों का दुरूपयोग नहीं है ? अंततः ऐसे असंवेदनशील अधिकारियों से क्या जनसेवा की उम्मीद की जा सकती है ? इन अधिकारियों का ये आचरण अचानक ही कई प्रश्न खड़े कर गया ।
ध्यातव्य हो कि बसंत पंचमी से कुछ दिनों पूर्व ही घटे दुर्भाग्यपूर्ण हादसे कई लोगों की जानें जा चुकी थी । क्या उनके इस वीआईपी काफिले से दुबारा वैसी ही भगदड़ से इनकार किया जा सकता है ? ज्ञात हो कि कुछ दिनों पूर्व ही हाईकोर्ट ने अपने आदेश से पुलिस एवं एंबुलेंस के अलावा अन्य वाहनों के प्रवेश पर रोक लगाई थी । बावजूद इसके वरिष्ठ अधिकारियों का ये कृत्य क्या हाईकोर्ट के आदेशों को धता बताना नहीं है ? वर्दी की हनक में ये वरिष्ठजन कई बार ऐसी हरकतें कर जाते है जिससे निश्चित तौर पर संवैधानिक मान्यताएं आहत होती हैं । विचार करीये उनके इस कृत्य से आमजनों के बीच क्या संदेश गया होगा ? स्पष्ट है कि इन लोगों को न तो हाईकोर्ट के निर्देशों की परवाह थी न ही आमजन की भावनाओं का । कंुभ जैसे महापर्व को अगर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि ये पर्व गणमान्य जनों से कहीं ज्यादा आमजनों का महापर्व है । वो आमजन जो हजारों मीलों की दूरियां भेड़ बकरियों की तरह रेलों एवं बसों में भरकर कुंभ तक पहुंचते हैं । यहां एक बात और भी गौर करने योग्य है कि उनके इस धार्मिक अनुष्ठान के लिए सरकार का न्यूनतम सहयोग प्राप्त होता है । अब यदि सरकार इन श्रद्धालुओं के लिए पर्याप्त रेलों का संचालन नहीं करा सकती,उनकी सुविधा असुविधा का ध्यान नहीं रख सकती तो उसी सरकार के नुमाइंदों को इन आम जनों की भावनाओं को आहत करने का क्या अधिकार है ?
हैरत की बात है एक ओर तो सुप्रीम कोर्ट विशिष्ट जनों की परंपरा पर अपनी नाराजगी जाहिर कर रहा है तो दूसरी ओर ये सम्मानित जन अपने शक्ति प्रदर्शन करने में लगे हैं । उपरोक्त सारी बातेंा को देखकर तो यही लगता  है कि कंुभ मेला प्रशासन हाईकोर्ट के निर्देशों को कत्तई नहीं मानता । अब ध्यान देने वाली बात है  िकइस नवनिर्मित वीआईपी संस्कृति से आम आदमी अपने को ठगा हुआ महसूस करने लगा है । ये आम आदमी वही है जिसके द्वारा दिये कर,रेल भाड़ा एवं धार्मिक अनुष्ठान के नाम से दिये गये रूपयों से ही इस प्रकृति के समस्त पर्वों का संचालन होता है । इन सबके बावजूद कभी आम आदमी के संघर्ष पर विचार करके देखीये कि कैसे धक्का. मुक्का सहते हुए वो कुंभ तक पहुंचा होगा । अंततः स्नान के लिए भी लंबी कतारों में लगकर उसने कितने अनुशासन का परिचय दिया होगा । ऐसे में अनुशासित आम आदमी का नेतृत्व इन असंवेदनशील अधिकारियों के हाथ में देना क्या संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं है? जहां तक प्रश्न है न्यायालयों के निर्देश का तो निश्चित तौर पर उनका फायदा जनता को तभी मिलेगा जब उनका कड़ाई से पालन हो। जहां तक वर्तमान परिप्रेक्ष्यों का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर इस बात की संभावना दूर दूर तक दिखाई नहीं देती । ऐसे में विचारणीय प्रश्न है कि लालबत्ती की धौंस कब तक सहेगा आम आदमी ?

Sunday, February 10, 2013

सिद्धांतों और सिंहासन के दोराहे पर खड़ी है भाजपा: सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

लोकसभा चुनावों के नजदीक आने के साथ सभी दलों की बेचैनी साफ दिखाई दे रही है । बात चाहे भाजपा की हो अथवा कांग्रेस की तो दोनों ही दल अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते । यही बात क्षेत्रिय दलों के संबंध में भी समझी जा सकती है । स्मरण रहे कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव एवं बसपा सुप्रीमो मायावती दोनों ने आने वाले लोकसभा चुनावों के लिए कार्यकर्ताओं को कमर कसने की सलाह दे दी है । रही सही कसर राक्रांपा के वरिष्ठ नेता के शरद पवार को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनानेे संबंधी बयान से पूरी कर दी है । अब जहां तक प्रश्न चुनावों का है  तो निश्चित तौर पर कांग्रेस ने इस दिशा में अपनी बढ़त बना ली है । विगत दिनों हुए चिंतन शिविर से के निष्कर्ष चाहे कुछ भी रहे हों लेकिन दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो गई हैं ।
1.    आगामी लोकसभा चुनावों कांग्रेस अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए युवराज की ताजपोशी का मन बना चुकी है ।
2.    चुनावों में विजयश्री प्राप्त करने के लिए कठोर से कठोर निर्णय लेने को तैयार है ।
इन बातों को समझाने के लिए किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं होनी चाहीए । यथा कांग्रेस में आरंभ से नंबर 2 रहे राहुल की ताजपोशी और उन्हे युवाओं का नेता बताकर छिपे तौर पर ही सही प्रधानमंत्री पद का घोषित करना ंवास्तव में कांग्रेस की एक मजबूत पहल है । जहां तक प्रश्न है कठोर फैसले लेने का तो बीते दिनों अजमल कसाब की फांसी और हाल ही में अफजल गुरू की फांसी इस बात को समझाने के लिए पर्याप्त है कि कांग्रेस अपने मिशन 2014 को लेकर कितनी गंभीर है ।
रही बात देशव्यापी राजनीति की तो निश्चित तौर पर देश की राजनीति आज भी दो दलों पर ही केंद्रित है । हांलाकि क्षेत्रिय दलों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन फिर भी ये छोटी पार्टियां निश्चित तौर पर इन बड़े दलों की असफलता को ही भुनाती हैं । अतः भाजपा को आज भी एक मजबूत विपक्षी की भूमिका में आना ही पड़ेगा । जहां तक भाजपा की वर्तमान स्थितियों को प्रश्न है तो निश्चित तौर पर भाजपा आज अपने की सहयोगियों से मुंहकी खा रही है । राजग के सबसे बड़े दल के रूप में सर्वमान्य भाजपा आजे लगातार अपने से कम सामथ्र्यवान दल जद यू से समझौते कर रही है । अब जबकि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप् में लगभग सभी दलों के पत्ते खुल चुके हैं । ऐसे में भाजपा की चुप्पी निश्चित तौर पर मतदाताओं के रूझान को प्रभावित करेगी । ध्यातव्य हो कि विगत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने हूबहू ऐसा ही दांव खेला था जिसके नतीजे आज सभी जानते हैं । विचारणीय बात है कि अपने मताधिकार का प्रयोग करने वाला प्रत्येक मतदाता निश्चित पार्टी द्वारा घोषित प्रत्याशी के चरित्र को देखते हुए ही उसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत देता है । ऐसे में बहुमत आने के बाद प्रत्याशी की घोषणा निश्चित तौर जनता के सब्र की परीक्षा लेना ही होगा । जहां तक भाजपा में योग्य उम्मीदवारों का प्रश्न है तो निश्चित तौर उसकी कोई कमी नहीं है । आधिकारिक तौर पर विभिन्न न्यूज चैनलों एवं एजेंसियों के द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों से ये बात अब सिद्ध हो चुकी है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आज प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में आम जन की पहली पसंद बन चुके हैं । ऐसे में योग्य प्रत्याशी को दरकिनार करने का ये कदम भाजपा के लिए वाकई आत्मघाती साबित हो सकता है ।
हांलाकि नरेंद्र मोदी का नाम घोषित करने से हिचकने का प्रमुख कारण नीतीश कुमार का विरोध । स्मरण रहे कि नीतीश कई बार सेक्यूलर प्रधानमंत्री की बात कह चुके हैं । रही बात उनके सेक्यूलर मापदंडों की तो कोई बड़ी बात नहीं है कि  वे अपनी दावेदारी मजबूत करने में लगे हों । अब जहां तक राजग से जदयू के अलग होने का प्रश्न है तो निश्चित तौर इसके कुछ हानि और लाभ दोनों हैं । इस हानि स्वरूप शायद भाजपा को बिहार में कुछ एक सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है,हांलाकि इसकी संभावना भी न्यूनतम है । अगर लाभ की बात करें तोे उसे इस बात से समझा जा सकता है कि जदयू बिहार के बाहर पूर्णतः मृतप्राय दल है । रही बात  मोदी की विकास पुरूष की छवि तो सर्वमान्य रूप से वो नीतीश कुमार से कहीं बड़ी है । अब सवाल उठता नीतीश द्वारा लगातार किये विरोध का तो ये स्पष्ट है कि उनका ये दुराग्रह कहीं न कहीं उनकी ईष्र्या से अभिप्रेरित है । ऐसे में जदयू की धमकियंा सहकर गठबंधन निर्वाह करने से बेहतर अपने रास्ते अलग कर लेना । जहां तक परीक्षण का प्रश्न है तो जद यू की विश्वसनीयता का आकलन राष्टपति पद के चुनाव के वक्त ही हो गया था ।
चुनावों में मुद्दे निश्चित तौर पर बड़े कारक साबित होते हैं । ऐसे में कांग्रेस के द्वारा एक के बाद लिये गये फांसी के निर्णयों ने सौ फीसदी ये मुद्दे भाजपा के हाथ से छीन लिये हैं । भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा इसे देर से लिया निर्णय बताना वास्तव में जुबानी जमाखर्च से ज्यादा कुछ नहीं हैं । जनता उनके इन कोरे तर्कों से कत्तई प्रभावित नहीं होगी । इन विषम परिस्थितयों में जब लगभग सारे दल छद्म सेक्यूलरिज्म की चादर तले पांव पसारने को तैयार बैठे हैं भाजपा को निश्चित तौर पर एक बड़े फैसले की दरकार है । ये फैसले प्रधानमंत्री पद का आधिकारिक उम्मीदवार घोषित करने से कम कुछ नहीं हो सकता है । लगातार भ्रष्टाचार,घोटाले और निकृष्ट राजनीति से आजिज आ चुकी जनता अब वास्तव में विकास केंद्रित शासन चाहती है । अतः अगर विकास की बात करें तो नरेंद्र मोदी से बड़ा प्रत्याशी आज पूरे देश में नहीं है । रही बात गुजरात दंगों की तो असम दंगों और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों के दंगों के बारे में क्या कहा जाएगा ? गुजरात दंगों के लिए यदि नरेंद्र मोदी को अछूत बताया जाता है तो यही व्यवहार अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के संदर्भ में भी सत्य सिद्ध होनी चाहीए? जहां तक प्रश्न है न्याय का तो वास्तव में उसके दोहरे मापदंड तो कत्तई नहीं हो सकते । स्मरण रहे कि पार्टी विद डिफरेंस का दम भरने वाली भाजपा के प्रारंभिक नेता पं दीन दयाल उपाध्याय की बात करें तो अपने एक संबोधन में उन्होने स्पष्ट कहा था कि, भाजपा सिद्धांत विहीन सत्ता संचालन के स्थान पर जीवन भर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी । उनकी इन बातों का असर सभी को पता है । भाजपा आज एक बार फिर सिद्धांतों और सिंहासन के दोराहे पर खड़ी है । अब वक्त आ गया है भाजपा को अपने डिफरेंस प्रदर्शित करने का । ऐसे में सिर्फ इतना कहना ही समीचीन होगा कि भाजपा को अपनी प्रासंगिकता पहचाननी होगी । अंततः
     अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला,जिस दीये में जान होगी वो दिया बच जाएगा ।

Friday, January 25, 2013

गणतंत्र दिवस मनाइए गर्व से कहीये वी आर इंडियन: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

देखा जाए तो इतिहास के विस्तृत अध्यायों में तारीखें बहुत मायने रखती हैं । यथा भारत में देशभक्ति की बात करने के लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी की दो तारीखें मुकर्रर हैं  । मजे की बात है वर्ष के शेष दिनों में देश को शर्मसार कर देने वाले लोग भी इन तारीखों पर स्वयं को देश भक्त साबित करने मंे कोई कसर नहीं उठा रखते । गणतंत्र अर्थात गण द्वारा चालित तंत्र , मगर अफसोस की बात है  िकइस संपूर्ण काले तंत्र में गण की भूमिका भस्मासुर पैदा करने की ही रह गई है । ऐसा भस्मासुर जिसे वे चाह कर भी भस्म नहीं कर सकते हैं । इस सारी विभीषिका को देखते हुए मन में कुछ पंक्तियां उठती है:
कैसी है ये त्रासदी कैसा है संयोग , लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग
कोई हैरत की बात नहीं वास्तव में इस गौरवपूर्ण देश का दुर्भाग्यपूर्ण संचालन यही दो कौड़ी के लोग कर रहे हैं । हमारे समाज में आज भी रोजाना की दर से ऐसी घटनाएं घटित होती हैं तो यह साबित करती हैं कि हम आज भी गणतंत्र की भावना से कोसों दूर हैं । यथा अभी कुछ दिनों पूर्व का ही वाकया ले लें हमारे इस गणतंत्र में एक युवराज की ताजपोशी हुई है । इन विषम परिस्थितियों में कुछ तलवे चाटने वाले लोगों ने इसे ऐतिहासिक तो कुछ ने इसे अविस्मरणीय बताया । अब जबकि बात ताजपोशी की है तो यहां विशेष योग्यता का प्रश्न नहीं उठता,अतः हमारे युवराज की कोई विशेष योग्यता नहीं है । बहरहाल जिस विशेष योग्यता पर विशेष बल दिया गया वो है युवा शब्द । ध्यातव्य हो कि 40 वर्ष से अधिक की आयु के व्यक्ति को युवा नहीं कहा जा सकता लेकिन गणतंत्र का असली मजा तो यही है शब्दों की मनमाफिक व्याख्या । खैर ये तथाकथित युवा देश के आम युवा को कहां तक लुभाता है ये देखने वाली बात है ? अपने से क्या हम दूसरी बात करेंगे गर्व करेंगे हमारे संविधान पर । ऐसा संविधान जिसका एकमात्र ध्येय है समरथ को नहीं दोष गुंसाई या और फटे में कहें तो जिसकी लाठी भैंस उसी की ।
वैसे आज के दिन साल भर मौन रहने वाले मौनी बाबा भी लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर अपना मौन तोड़ते हैं । मौन तोड़ते हैं वो भी हिंदी भाषा में देखीये है ना ये दिन महान । संविधान के अनुसार हमारी राजभाषा हिंदी को कम से कम एक दिन तो मिलता है । गर्व करीए हम अपना 62 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं । अन्य दिनों अगर अंग्रेजी नहीं बोलेंगे हमारे काले कारनामों पर पर्दा कौन डालेगा । वस्तुतः देश की अनपढ़ जनता को छलने के लिए अंग्रेजी से सक्षम हथियार क्या हो सकता है? बात समझ मे आए अथवा न आए गण की भूमिका तो तालियां बजाना ही है । वैसे ये तो बड़ी छोटी बात है अगर हमारे जननायकों से पूछिये तो सीधा सा तर्क मिलेगा कि ग्लोबलाइजेशन का जमाना है अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलेगा । अब मन में एक सवाल उठता है कि रूस,चीन और जापान जैसे देश अपनी मातृभाषा में अपना काम कैसे चला लेते हैं ? क्या उनके विकास का स्तर हमसे कुछ कम है ? जवाब हमेशा ना में ही मिलेगा । वास्तव में अंग्रेजी का ये अंधा अनुसरण मात्र एक ढ़कोसला है जिसका देश हित से कोई लेना नहीं है । हां अंग्रेजी बोलने का एक प्रत्यक्ष लाभ आपको बता दूं । आपको याद होगा कि उत्तर प्रदेश के एक कद्दावर नेता कुछ महीनों अपने मातहतों से चर्चा कर रहे थे चर्चा हिंदी में चल रही थी । अतः ये आम जनमानस की समझ में भी आ रही थी । अब इसका नुकसान भी देख लीजिये । इसी दौरान भावनाओं की रौ में बहकर उन्होने कह दिया कि चोरी करना बुरी बात नहीं है थोड़ी थोड़ी किया करो । अब बात चूंकि हिंदी में हो रही थी सबकों समझ आ गई । इसके बाद की स्थिती तो सबको पता है । सोचिये कि यही बात उन्होने अंग्रेजी में कही होती तो क्या इतना बवाल होता । नही ंना इसीलिए हमारे सारे बड़े नेता अपनी बातें अंग्रेजी में कहते हैं । पहले तो बात जनता की समझ में नहीं आती अगर मीडिया की वजह से समझ में आ भी जाए तो जनता की याददाश्त तो हमारे सभी नेता जानते ही हैं कि कमजोर होती है ।
अब जरा अपने गणराज्य की भी बात हो जाए । हमारे गणराज्य का एक अभिशप्त भाग है काश्मीर जिसे कभी धरती का स्वर्ग भी कहा जा सकता है । ध्यान दीजिये ये गुलाम भारत की बातें थी और कहते भी हैं कि छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी । अतः हमारे जननायक कल की बातों पर विशेष गौर नहीं करते । अब जब बात जन्नत की हो तो उस पर सभी की निगाहें गड़नी चाहिए । अतः हमारे पड़ोसी चीन और पाक की निगाहें इस कश्मीर पर ऐसी गड़ी कि इन्होने उसे लगभग आधा कब्जा कर ही दम लिया । खैर इस बात के लिए हमारे नेताओं को मत कोसियेगा । उन्होने अमेरिका से लेकर यूएन तक बहुत चीख पुकार मचाकर अपने कत्र्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन किया मगर नतीजे वहीं ढ़ाक के तीन पात । किंतु हमारे कद्दावर नेता इतने से ही हार मान जाते तो नेता कैसे माने जाते । आखिर वोटबैंक भी तो बनाना था । गौरतलब है कि सत्ता की आंच पर खौलते जनता रूपी दूध की मलाई है वोटबैंक । यही वोटबैंक नेता को पुष्ट करता है । अतः हमारे बुद्धिमान नेताओं ने एक अस्थाई निष्कर्ष निकाला अनुच्छेद 326 । अर्थात एक देश के दो ध्वज और दो संविधान । है न हमारा लोकतंत्र महान । गर्व से कहीये हम अपना 62 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं । यही नहीं हमारे नेताओं ने शांति के लिए जितना काम किया उतना तो शायद विश्व के अन्य किसी भी देश के नेता ने किया हो लेकिन कमबख्त ये नोबेल पुरस्कार आज भी हमारे नेताओं की पहुंच से दूर है । इसमे सर्वप्रथम नाम है माननीय नेहरू जी जिन्होने चीन द्वारा छीन ली गई जमीन को बंजर और निष्प्रयोज्य बताकर अपनी आंतरिक मनोवृत्ति को सुस्पष्ट कर दिया । इससे भी गर्व की बात है कि इसी राजपरिवार ने आने वाले कई दशकों तक अपनी संततियों अथवा युवराजों एवं युवराज्ञियों के माध्यम से हमारे देश को कृतार्थ किया । हैरत होती है जब लोग ऐसे मासूम एवं शांति प्रिय लोगों पर सवाल उठाते हैं । ये सब छोडि़ये गर्व से मनाइए गणतंत्र दिवस ।
अंतिम पंक्तियों में हम बात करेंगे इस लोकतंत्र के नवनीत सेक्यूलरिज्म की । हमारा पूरा देश धर्मांधता की आग में जल जाए,हजारेां लाखों लोग जिहादी हिंसा के शिकार बने ठेंगे से मगर मजाल है कि हमारी सेक्यूलरिज्म की भावना पर ठेस आए । वैसे भी इस सवाल उठाने वाले हम और आप होते कौन हैं ये तो हमारी परंपरा है अतिथि देवो भवः । इसी परंपरा के निर्वाह में सदियों से हमारे अनेकों महापुरूषों ने अपने प्राण दिये, तो भला हमारे आधुनिक नेता इतने निर्विय तो नहीं हो सकते । आप सेक्यूलरिज्म को इसी परंपरा के निर्वाह को इसी परंपरा के रूप में देख सकते हैं इसी कारण हमारे नेता देश में प्रत्येक आतंकी का एवं चरमपंथी का यथायोग्य स्वागत करते हैं । आप कसाब की खातिरदारी से इस बात को भली भांति समझ सकते हैं । वैसे भी बाहर से आने वालों का देश पर पहला अधिकार होता है बस इसी वजह से हमारे जननायकों ने काश्मीर के लोगों शरणार्थी तो बांग्लादेश से आने वाले अतिथियों का वोटर कार्ड बनवाकर बकायदा नागरिक बना डाला । उस पर भी लोग दर्शन बघारते हैं वसुधैव कुटुंबकम, काबिलेगौर है कि सदियों पुराने इस वेद वाक्य का अर्थ आमजन ने भले ना समझा पर हमारे काबिल नेता जरूर समझते हैं । इसीलिए उन्होने इस पूरे कुटुंब को पूरी राजकीय मान्यता के साथ स्वीकार किया । गर्व की बात है कि हमारी इसी उदार भावना के कारण ही ये हिंसक मेहमान आज अमेरिका या अन्य देशों की बजाए भारत आना ज्यादा पसंद करते हैं । अब जब भारत आते हैं तो जाहिर खर्च भी यहीं करते होंगे हुआ विदेशी मुद्रा का निवेश । इस बात को हम भले ही ना समझें पर हमारे वित मंत्रियों ने बखूबी समझ लिया है। सबसे बड़ी बात भारत की बढ़ती जनसंख्या आज चिंता का सबब भी बन गई ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण का भी कारगर अस्त्र हैं ये विदेशी मेंहमान । अतः ये घटनाएं भले ही हमारे लिए चिंता का सबब हों पर हमारे नेता तो माॅैज में कहते है आल इज वेल । सरकार की उपरोक्त सारी नीतियों पर विचार करें तो समझ में आ जाएगा कि एक ही तीर से अनेकों शिकार कैसे किये जाते हैं । अंततः इतना सब समझाने के बाद भी यदि ये सरकारी संदेश आपकी समझ में ना आए तो हमारे मासूम मौनी बाबा कर भी क्या कर सकते हैं? उनकी वचनबद्धता तो इंडिया के प्रति है और हम सब ठहरे जाहिल भारतीय तो जनाब आप भी अंग्रजीदां तौर तरीके अपनाकर गणतंत्र दिवस मनाइए गर्व से कहीये वी आर इंडियन । जहां तक मेरा सवाल है तो मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा किः
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत गालिब, खुश रहने को ये ख्याल अच्छा है ।