Friday, October 21, 2011

          अंधेरा धरा पे कहीं रह ना जाए: सिद्घार्थ मिश्र, स्वतंत्र
प्रकाश पर्व दीपावली एक उत्सव है, प्रकाश की अगवानी का। कार्तिक मास में मनाया जाने वाला यह पर्व भारतीय मिमांसा एवं चिंतन में विशिष्ठ स्थान रखता है। इस पर्व के महत्व को इस श्लोक से भली-भांति समझा जा सकता है -
                               असतो मा सद्गमय
                              तमसों मा ज्योतिर्गमय
                              मृत्योमामृतं गमय।।
  अर्थात्, मुझे असत्य से सत्य की ओर से ले चलो, ये पर्व भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है। इस पर्व के ठीक ष्० दिन पहले मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने विजयदशमी के दिन रावण का वध किया था। श्लोक के अर्थ में देखें तो सत्य ने असत्य पर विजय पायी थी। अत: इस पर्व में ‘सत्यमेव जयते’ की महता आज भी प्रतिपादित होती है। द्वितीय पंक्तियों में कहा गया है, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। माना जाता है कि विश्व का सबसे गहन अंधकार है अज्ञान। अत: प्रतीकों के माध्यम से इस पर्व के उपलक्ष्य पर ज्ञान रूपी दीपक के माध्यम से, अज्ञान रूपी अंधकार का शमन आज भी किया जाता है। अंतिम पंक्तियों में, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलने की बात कही गयी है। मानव जीवन को प्रारंभ से ही क्षणभंगुर माना जाता है। प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित समय सीमा के लिए जन्म लेता है, और अंतत: मर जाता है। अत: मनुष्य के जीवन-मरण के इस चक्र से छूटने की प्रक्रिया की अमरता कहते हैं। यहाँ अमरता से आशय हजार वर्षों के जीवन से न होकर, वैचारिक अमरता से है। उदाहरण के लिए यदि हम मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्रीराम के जीवन चरिष पर गौर करें तो मनुज रूप में जन्म लेने के बाद भी अपने कृतित्व एवं धार्मिक आचरण के फलस्वरूप आज भी जीवित हैं। आज भी उनकी विजय को धर्म की विजय मानकर, राम लीला का मंचन किया जाता है। उनके गृह आगमन की प्रसन्नता में हम दीये जलाकर प्रतिवर्ष ‘दीपावली’ को हर वर्ष प्रकाश पर्व के रूप में मनाते हैं !दीपावली एवं मां सरस्वती का आपस में गहरा संबंध है। इस संदर्भ में कविवर निराला की ये पंक्तियां आज और भी प्रासंगिक हो गई हैं:-
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योर्तिमय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे
वर दे वीणा वादिनी वर दे
 वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में मनुष्य अनेकों व्याधियों एवं दु:श्चिंताओं से जूझ रहा है। आज मनुष्य के जीवन का मूल्य कीट पतंगों के जीवन सदृश हो गया है। गहन झंझावातों से जूझ रही मानव सभ्यता पे आतंकवाद, नक्सलवाद, भाषावाद आदि का ग्रहण लग गया है। यदि समग्र रूप से इन समस्याओं का अध्ययन करें तो इनका अस्तित्व अज्ञान से जुडा हुआ है। अत: निराला ज्ञान की अधिष्ठाषी मां सरस्वती से अज्ञान के अंधकार के शमन की प्रार्थना कर रहे हैं। अज्ञान से घिरा मनुष्य चहुंओर अंधकार की कालिमा से जूझकर हिंसक एवं विवेक शून्य हो गया है। अत: आज के परिदृश्य में ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य हो गयी है। जिस प्रकार अंधेरे कमरे में रखा एक दीपक चहुंओर उजाला भर देता है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान रूपी दीपक मानव चित की समस्त दुर्बलताओ का नाश करके मनुष्य के मन-मस्तिष्क में आशा, दृढता एवं सात्विक विचारों का संचार करता है। विश्व की तमाम समस्याओं के मूल में छिपा है, मानव मन का अज्ञान। इसी अज्ञान के कारण ही भाषा, सीमाएं, जातियों एवं धर्म के आधार पर मनुष्य का निरंतर पतन होता जा रहा है। अन्यथा ईश्वर ने अपनी ओर से तो विभाजन की कोई रेखा नहीं खींची है। हमारे भारतीय चिंतन में कहा भी गया है।

‘‘वसुधैव कुटुंम्बकम’’ अर्थात् इस वसुंधरा पर निवास करने वाला प्रत्येक प्राणी हमारे परिवार का हिस्सा है। यहाँ प्रत्येक प्राणी में, जीव-जंतु, पेड-पौधे भी सम्मिलित हैं। इसीलिए हमारी प्राचीन मान्यताओं में वृक्षों, जीवों, नदियों को भी पूज्यनीय बताया गया है। वैज्ञानिक आधार से भी देखें तो पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक जीव की अपनी उपादेयता है, इसी को पारिस्थितिक तंष (ईको
सिस्टम) कहते हैं। मनुष्य ने अपने क्षणिक लाभ के लिये पर्यावरण में जो भी परिवर्तन किये, उनका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। ग्लोबल वार्मिंग, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण जैसी समस्याओं ने मानव जीवन को विशाक्त बना डाला है। प्रदूषित पर्यावरण, अनुचित आहार-विहार के कारण मानव जाति निरंतर पतनोन्मुख होती जा रही है। पर्यावरण के साथ छेड-छाड के फलस्वरूप नयी-नयी व्याधियों ने मानव जीवन को जकड लिया है, और मनुष्य असमय ही काल के गाल में समा रहा है।
अत: अब हमें ये स्वीकार करना ही होगा कि मनुष्य का समग्र विकास पर्यावरण की अनदेखी करने से नहीं हो सकता है। इसीलिए प्रत्येक वर्ष उत्सव मनाते समय हमें पर्वों के साथ जुडे संदेशों को भी समझना होगा। दीपावली हमारे देश का महापर्व है, तो इसे अशांत एवं प्रदूषित करने से क्या लाभ है। ध्यान देने वाली बात है कि प्रतिवर्ष इन्हीं पटाखों से लाखों टन जहरीली गैसों का रिसाव होता है। यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि कई बार आतिशबाजी से अनेकों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। इन समस्याओं को देखते हुए क्या पटाखों का प्रयोग करना उचित होगा ? इस समस्या को दूसरे पहलू से देखें तो पाएंगे कि एक ओर हम पटाखे जलाकर पैसों का दहन करते हैं, तो दूसरी ओर अनेकों लोग भूख-प्यास से लड रहे होते हैं। क्या हम इन पैसों का उपयोग इन गरीब एवं असहाय लोगों के हित में नहीं कर सकते ? वैसे भी ‘दीपावली’ हम प्रभु श्रीराम के गृह आगमन के हर्ष में मनाते हैं। प्रभु के राज्य को ‘राम-राज्य’ कहा जाता था। उनके राज्य में चहुंओर संपन्नता एवं प्रसन्नता व्याप्त थी। अत: हमें अपने चारों और रहने वाले लोगों की प्रसन्नता को ध्यान रखकर, इस दीपावली पे ‘राम-राज्य’ को चरितार्थ कर सकते हैं।
कहा गया है कि ‘संकल्प’ का कोई विकल्प नहीं होता। आइए इस दीपावली को प्रदूषण मुक्त एवं शांतिपूर्वक मनाने का संकल्प लें। हमारे संकल्प में यदि गरीब, असहाय एवं वृद्घों को भी स्थान मिले तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। कहा भी गया है कि ‘खुशियां बांटने से बढती हैं।’ अत: आइए खुशियां एवं प्यार बांटकर इस पर्व पे ‘राम-राज्य’ की परिकल्पना को साकार करें।
अंतत: कविवर गापेल दास नीरज की इन पंक्तियों में प्रकाश पर्व की महत्ता को समझने का प्रयास करें :-
‘‘जलाओ दिये मगर ध्यान रहे इतना
अंधेरा धरा पे कहीं रह न जाए’’
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार में उपसंपादक के पद पर कार्यरत हैं)
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