Friday, October 21, 2011

आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर मिले आरक्षण

अभी कुछ दिनों पूर्व योजना आयोग की रिर्पोट ने हंगामा खड़ा कर दिया है। लोग सोचने पर विवश हैं क्या ३२ रूपए पर्याप्त हैं, व्यक्ति की रोजमर्रा के खानपान और जरूरतों के  लिए । इस अल्प राशि में क्या खाएं क्या न खाएं, सोचकर लोगों का दिमाग भन्ना गया है। पत्रकारों और अन्य विशेषज्ञों को बैठे बिठाए चर्चा का नया विषय मिल गया है।

खैर चर्चा का सार चाहे जो भी हो पर ३२ रूपए की इस अल्प राशि से गरीबों का कोई भला नहीं हो सकता। ये तो उपहास है गरीबी की दुरूह परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाले करोडा़ें लोगों का। नीयति से निराश और भ्रष्टाचार की भेंट चढेें़ इन आम लोगों का भला योजना आयोग की इस रिपोर्ट से तो कत्तई नहीं हो सकता। जहां तक गरीबी का प्रश्र है तो आजादी के बाद इस विषय पर व्यापक चर्चा कभी नहीं हुई। अगर कुछ चर्चाएं हुई भी तो उनका अंजाम इसी तरह बचकाना ही हुआ। वयस्क तो दूर की बात है, अगर एक छोटे बच्चे के दृष्टिकोण से भी इस विषय पर गौर करें तो ३२ रूपए की ये अल्प राशि अपर्याप्त है। यहां ये पंक्तियां काबिलगौर हैं।

स्वार्थ सिंधु में तैरते मगरमच्छ के बाप
जनता मछली कर रही अपने नाश का जाप

‘‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’’ इस नारे की को उछालकर सत्ता में आई कांग्रेस ने सबसे अधिक शोषण आम आदमी का ही किया है। पोषण वैज्ञानिक सुखात्मे की अवधारणा,‘ शहरों में २४०० तथा गांव में २१०० कैलोरी का इस्तेमाल जीवन हेतु आवश्यक है ’ को यदि मानक मानकर देखें तो कहां से मिलेगी जीवनोपयोगी आवश्यक कैलोरी? आलीशान होटलों में मंहगी शराब गटकने वाले ये माननीय क्या जानेगें गरीबों का दर्द ? इस बारे में यदि सत्य का अन्वेषण करना है तो हमें मिलना होगा पांत के उस आखिरी आदमी जिस तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो जाती है रोटियां। जिनके लिए चिकन या कबाब नहीं रोटियां भी हैं एक सुनहरा ख्वाब। मगर अफसोस पांत में बैठे उस आखिरी उपेक्षित आदमी की भूख से किसी को कोई सरोकार नहीं है। ये भूख क्या उसे हिंसक नहीं बना नहीं सकती? एक कहावत है ‘मरता क्या न करता’। सरकार की ये विध्वंसक नीतियां प्रेरित करती हैं हिंसक बनने के लिए। अन्यथा क्या वजह हो सकती है २७  रूपए के लिए कत्ल करने की। और उस चल जाती है चटपटी स्टोरी,खबरिया चैनलों के मंदबुद्धि एंकर अजीबोगरीब मुखमद्रा बनाकर परोसते हैं खौफ । अंतत: उपेक्षित रह जाते हैं गरीबी के मौलिक प्रश्र।

ऐसा नहीं है कि देश कं गाल हो गया हैं,हमारी खरबों डालर की काली कमाई सड़ रही है स्विस बैंक में। पैसा केंद्रित हो गया है एक जगह मतलब जो पहले से अमीर थे वो उद्योगपति बन गए और जो उद्योगपति थे वे पहुंच गए विश्व के शीर्ष धनाड्यों में । अनिल व मुकेश अंबानी बंधुओं के विश्व के शीर्ष में शुमार होने पर तो दर्जनों कवर स्टोरियां तैयार हो जाती हैं,मगर बंधुआ मजदूरी करने वालों की जीवनशैली पर कलम चलाना मुनासिब नहीं समझा जाता है।चहुंओर निराशा से घिरे ये लोग अगर नक्सली नहीं बनेंगे तो क्या संत नामदेव बनेंगे? मगर कौन समझाये सत्ता के शीर्ष पर बैठे इन उल्लुओं को? कहा भी जाता है--

‘बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है,
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा जहां हर शाख पे उल्लू बैठा है’

दिन रात अंधकार से घिरे इन उल्लुओं से प्रकाश की उम्मीद करना क्या लाजिमी होगा ?परंतु दु:ख की बात है,गरीबी की गलियों में भटके भारत के ग्रामीण आज भी जाति,धर्म,संप्रदाय,भाषा के नाम पर इन तथाकथित राजनेताओं का राजनीतिक उल्लू सीधा करते आ रहे हैं। रही सही कसर पूरी कर दी है,आरक्षण की धधकती आग ने । इतिहास गवाह है चुनाव के खेल में आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है,सरकार बनाने और गिराने का । जहां तक आरक्षण से भला होने का प्रश्र है तो सबसे बड़ा लाभ हुआ है, ये मुद्दा भुनाने वाले नेताओं का । हाल ही में ६७५ करोड़ की लागत से दलित स्मारक के नाम अपनी आदमकद मूर्ति लगनाने वाली मायावती इस आरक्षण की राजनीति की ही उपज हैं। दलित राजनीति से शीर्ष पर पहुंची मायावती के राजसी ठाट बाट अब किसी से छुपे नहीं है। जीते जी अपनी मूर्ति बनवाना हो या हाथी की मूर्तियां बनवाना,ये काम बड़ी बेशर्मी से सिर्फ  वही कर सकती हैं। विचारणीय प्रश्र है कि इन मूर्तियों से दलित या उपेक्षित वर्ग को क्या लाभ मिला? कितने लोगों की रोजी-रोटी की समस्या दूर हो गई इस अशोभनीय कार्य से?मगर कोई किसी को कुछ भी कहने की हालत में नहीं है। बहरहाल देश की दुर्दशा को देखते हुए ये पंक्तियां आज और भी प्रासंगिक हो गई हैं

  ‘अंधेर नगरी चौपट राजा,
  टके सेर भाजी टके सेर खाजा’

जी हां राष्ट्र की वर्तमान दशा साफ तौर पर इन पंक्तियों में परिलक्षित होती है। दलित चिंतन के आधार पर सत्ता में आयी मायावती ने अब चुनाव के ठीक पहले गरीब सवर्णों को आरक्षण दिलाने का एक नया चुनावी शिगुफा छोड़ा र्है। अगर वास्तव में वे सर्वजन के हित में सोचती हैं, तो चुनाव आने से पहले उनकी ये सदबुद्धी कहां थी?मोदी को टोपी पहनाने के फेर में जुटी कांग्रेस कौन जाने कल ,आतंक का पर्याय बन चुके संजरपुर को राजनीतिक तीर्थ घोषित कर दे ? किसी की आलोचना से पूर्व हमें उसके विकास कार्यों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए,क्योंकि ये पब्लिक है सब जानती है।  अब आमजन को मतदान से पूर्व ये समझ लेना चाहिए कि गरीबी,भूखमरी किसी जाति,धर्म या संप्रदाय से संबंधित नहीं होती। अत: अगले चुनावों में हमें इन सभी बाध्क तत्वों को बहिष्कृत कर नए सिरे से नव भारत के निर्माण का संकल्प लेना होगा। हमें बनाना होगा सपनों का वो भारत जहां गरीबी,बेरोजगारी या आरक्षण की सतही राजनीति न होकर  आशा एवं समता का संचार होगा। हमें ये समझना ही होगा लोकतंत्र व राजतंत्र के मध्य छुपा अंतर । ‘सत्यमेव जयते ’ को मानक वाक्य मानकर आइए सृजन करें एक नए भारत का जहां सभी के लिए समान अवसर व संभावनाएं हों । राजनीतिक क्षुद्रता से दूर बहुत दूर.........

सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

 

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