Monday, September 24, 2012

क्या ध्वस्त हो रहा है लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ ?

                                    
यदि कोई ऐसी चीज है जो मुक्त चिंतन को बरदाश्त न कर सके, तो वह भाड़ में जाए । ये कथन है प्रसिद्ध अमेरिकी चिंतक विण्डेल फिलिप के वास्तव में उपरोक्त कथनों में मीडिया की कार्य पद्धति को भी समझा जा सकता है । लोकतंत्र में अपनी विशिष्ट वैचारिक भूमिका के कारण ही मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है । अब प्रश्न उठता है कि क्या मीडिया अपनी भूमिका का निष्पक्ष रूप से निर्वहन कर पा रहा है ? जहां तक प्रश्न है भारतीय मीडिया का तो उसका जन्म ही गुलामी में हुआ था । ऐसी गुलामी जहां सच छापने की कीमत तात्कालीन संपादकों को अपना सर्वस्व लुटाकर चुकानी पड़ी । इसके बावजूद भारतीय पत्रकारिता की धार अपने प्रारंभिक काल से बड़ी पैनी थी ।  सांप्रदायिकता के विरूद्ध चेतावनी,भाषा सुधार, राजनीति दशा एवं दिशा,स्वतंत्रता का संपोषण आदि अनेक विवादित विषयों पर पत्रकारों ने  अपनी लेखनी चलाई । अपने प्रारंभिक दिनों से देश हितों के लिए मुखर मीडिया आज मिशन, सेनसेशन,कमीशन और बाजारवाद के चैराहे पर आ खड़ी है । इन चारों तत्वों में मीडिया का प्रधान तत्व है मिशन,वास्तव में ये मीडिया का मिशनरी स्वरूप जिसने अखबारों को आमजन मानस के बीच लोकप्रिय बनाया। गुलामी के दिनांे के दौरान लोगों  में देश प्रेम के बीच बोये । अब बात आती है सेनसेशन की जो आजकल प्रायः हम सभी देख और सुन रहे हैं । सनसनीखेज समाचारों की इस आपाधापी में पत्रकारिता का मूल तत्व कहीं लुप्त होता रहा है । जैसा कि पराड़कर जी ने कहा था आने वाले दिनों में संपादक मालिक के व्यवसायिक हितों के कुशल प्रबंधक होंगे । वास्तव में आज संपादक कुशल प्रबंधक होते जा रहे हैं । ये समाचार पत्रों मंे प्रकाशित खबरांे को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है । एक ही खबर को चार अलग अलग अखबारांे  में पढ़कर देखीये आपकों ये अंतर साफ दिखने लगेगा । ये तो रही अखबारों की बात टीवी चैनलों  ने तो नैतिकता की सारी हदें ही तोड़ डाली । जैसा कि आप रोजाना ही देखते और सुनते होंगे। पत्रकारों की जगह ले ली कम कपड़ांे में आपसे मुखातिब टीवी एंकरों ने । इसके अलावा अन्य विचित्र भाव भंगिमाओं वाले सनकी से दिखने वाले एंकर भी यत्र तत्र सर्वत्र दिखने लगे हैं । जैसेे आपको याद होगा स्टार टीवी के वो एंकर जो चिल्लाते नजर आते थे ‘सोना है तो जाग जाइए’। जरा गौर करने पर ऐसे अनेकों उदाहरण आपको मिल जाएंगे उदाहरण के तौर कुछ वर्ष पूर्व एक चैनल द्वारा चलाई गई खबर, राजधानी की सड़कों पर दौड़ी चालक रहित कार या उमा भारती की शादी की खबर । ये तो छोटे से उदाहरण है मीडिया की इन खबरों का सिलसिला यहीं नहीं थमता । कुछ वर्षों पूर्व समाज में नयी परिभाषा का जन्म हुआ है, जो दिखता है वो बिकता है । क्या वाकई ऐसा ही होना चाहिए? सब कुछ दिखाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने का वक्त आ गया है । अन्यथा अनेकों पूनम पांडे और सनी लियोन को बढ़ावा मिलेगा । पूनम पांडे का प्रकरण तो सभी को याद होगा । किस तरह होड़ लगी थी कद्दावर पत्रकारों के बीच उसे दिखाने की । इस प्रकरण में अर्द्धविक्षिप्त पूनम पांडे से ज्यादा दोष पत्रकार बिरादरी का था । जरा सोचिए व्यक्तिगत रूप से घर घर जाकर कितनों को देह दर्शन करा सकती थी । यहां उसे विस्तार दिया कैमरे ने,कल तक गुमनाम सी लगने वाली पूनम पांडे रातों रात एक सनसनी बन गयी । फिर एक प्रश्न उठता कि क्या वासना को विस्तार देने का माध्यम बनता जा रहा है मीडिया? वो तो भला हो सेंसर बोर्ड का जिसने सबकुछ खुलेआम दिखाने की छूट अब तक नहीं दी है । अन्यथा क्या होता इस समाज का चेहरा? बड़े से बड़ा कद्दावर समाचार पत्र आज खबरों की कमी से जूझ रहा है ऐसे ही कुछ हालात टीवी चैनलों के भी हैं । टीवी चैनल कम खबरों की भरपाई सास बहू और साजिश,वल्गर कामेडी शो और निर्मल बाबा जैसों के कार्यक्रम दिखा के कर लेता है । दूसरी ओर अखबार भी पेड न्यूज और विज्ञापन छाप कर अपना कोटा पूरा कर लेते हैं । ये अलग बात है कि अखबार में पन्नों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है लेकिन उसमें पठनीय सामग्री कितनी इसका तो भगवान ही मालिक है । अब जरा खबरों की बात कर लें मीडिया सेमिनारों में अक्सर ही न्यूज सेंस की बात होती है । क्या होता है न्यूज सेंस ? जहां तक मेरी राय है तेा वर्तमान में मीडिया में काम कर रहे सत्तर फीसदी लोगों में इसका अभाव है । अगर ऐसा नहीं होता तो 80 फीसदी से ज्यादा खबरें पीआरओ,पुलिस और नेताओं के हवाले से नहीं लिखी जाती । क्या ये तथाकथित बुद्धिजीवी सदा सत्य ही बोलते है? देश के हालात देखकर ऐसा तो नहीं लगता । ध्यातव्य हो कि पत्रकारिता के सिद्धांतों में उसे आम आदमी का हित चिंतक बताया जाता है । लेखन का दृष्टिकोण उस आम आदमी पर केंद्रित होना चाहिए जिस तक पहुंचते पहुंचते रोटियां खत्म हो जाती हैं । क्या उस आम आदमी के प्रति जवाबदेह है मीडिया?
शब्द ब्रह्म का रूप हैै ये कथन है प्रसिद्ध उपन्यासकार अज्ञेय जी के । वास्तव में शब्द भावनाओं के विस्तार का सशक्त माध्यम होते हैं । लगता है आजकल मीडिया में शब्दों का भी अकाल पड़ा हुआ है । कभी देश के शब्दकोष को राष्टपति,मुद्रास्फीति आदि जैसे अनेकों सारगर्भित शब्द देने वाला मीडिया अब शब्दों के चयन के लिए फिल्मों का मोहताज हो गया है । उदाहरण के लिए विभिन्न टीवी चैनलों पर बुम्बाट,इशकजादे जैसे सतही शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है । खैर इस मामले में अपना प्रिंट मीडिया भी पीछे क्यों रहे । कुछ महीने पूर्व एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार का शीर्षक देखा‘दसवीं के दबंगों का कमाल लहराया परचम’ , खबर पढ़ने के बाद ये सोचने पर विवश होना पड़ा दसवीं की परीक्ष में अच्छे अंक लाने वाले ये नौनिहाल अगर दबंग है तो फिर अनैतिक कृत्य करने वाले असामाजिक तत्वों को दबंग कैसे कहा जा सकता है?
बीते चुनावों से एक नई परंपरा ने जन्म लिया है जिसे पेड न्यूज । पेड न्यूज हंालाकि नैतिकता के नंबरदार खबर के ठीक नीचे बहुत बारीक शब्द में लिखते हैं कि ये विज्ञापन है । क्या ऐसे कर देने से हमारे कत्र्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? ध्यान रखीये ज्यादातर पाठक नीचे लिखी इन चंद बारीक लाइनों की बजाय मेाटी हेडिंग पर गौर करते हैं । इन शीर्षकों में होती है भ्रामक सूचनाएं । उदाहरण के लिए फलां नेता के नेतृत्व में उमड़ा जनसैलाब । जबकि हकीकत इसके कोसेां दूर होती है । ये खबरें निश्चित तौर पर मतदाता की मनोदशा को प्रभावित करती हैं । बीते लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग के पास जबरन पेड न्यूज केे लिए दबाव बनाने के 167 मामले दर्ज हुए थे । अब सोचिये किस ओर जा रही है पत्रकारिता ?मामला यहीं तक होता तो मान लेते कि आल इज वेल,लेकिन मीडिया को संचालित करने वाले पूंजीपतियों की मनमानी यहीं खत्म नहीं होती । अभी हाल ही में कैग की रिपोर्ट के बाद प्रकाश में कोयला घोटाले के मामले में कुछ समाचार पत्रों की भूमिका भी संदिग्ध है । रिपोर्ट के अनुसार दैनिक भाष्कर की अनुषांगी कंपनी को डीबी पावर को 765 करोड़ के कोल ब्लाक आवंटित हुए थे । टू जी मामले में भी कुछ पत्रकारों के नाम सामने आए थे । क्या यही होता है एक पत्रकार का चरित्र ? जंतर मंतर में हुए स्वामी रामदेव के अनशन के दौरान एक नयी परंपरा ने जन्म लिया । दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बाद बाबा बस की छत पर सवार होकर अपने समर्थकों का हौंसला बढ़ा रहे थे । इस दौरान कुछ पत्रकार ने उनसे बातचीत की । बातचीत के बाद उनका ये पीटूसी काबिलेगौर मैं फलां, बस की छत से लाइव, सोचने वाली बात है कि अगर बाबा अगर बाथरूम में होते तो पीटूसी क्या होता? अभी ज्यादा दिन नहीं बीते है निर्मल बाबा की नौटंकी बीते । लगभग सभी चैनलों पर छाए रहते थे निर्मल बाबा । अंततः मीडिया की नौटंकी से आजिज आकर आज तक को दिये अपने साक्षात्कार में सामने बैठे पत्रकार से एक प्रश्न पूछा,क्या आप बिना पैसे के मेरा विज्ञापन दिखाओगे ? अरे अगर कमाउंगा नही ंतो मीडिया को विज्ञापन के पैसे कहां से दूंगा? बात साफ निर्मल बाबा की ये दुकान बिना मीडिया के सहयोग के नहीं चल पाती । फिर किस हक से पत्रकारों ने उन्हे ढ़ोंगी बताया ?
अनेकों ऐसे प्रश्न जो ये सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या ढ़ह रहा है लोकतंत्र का चैथा स्तंभ ? जहां तक पत्रकार का प्रश्न है तो जैसा कि पांडेय बेचन शर्मा उग्र ने कहा था कि पत्रकार लाखों की भीड़ में मसीहा की तरह से पहचाना जा सकता है । पत्रकारिता पाने का नहीं गंवाने का मार्ग है जो ऐसा नहीं कर सकते वो रहम करें इस राम रोजगार पर । उन्होने इसे राम रोजगार इसलिए कहा था क्योंकि ये पेश राम की तरह पवित्र रहा है । जरा सोचिये अपने इर्द गिर्द मिलने वालों में कहीं देखा है ऐसा पत्रकार ?
                                                                                                                         सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’


No comments:

Post a Comment