Monday, September 3, 2012

‘युवाओं के नाम एक आवाह्न पत्र’

  देश हित की बात यूं तो विगत कई वर्षांे से करते आ रहे हैं । दुर्भाग्य कि बात ये है कि इसकी अंतिम परिणीती अब तक अप्राप्य है । वर्तमान दशा और दिशा को देखते हुए ये प्राप्त होती नहीं लगती । जायज सी बात आप लोगों को लग सकता है कि ये देश की हम सभी की साझा समस्या है और इसपे व्यक्तिगत आक्षेप लगाने वाला मैं कौन होता हूं ? बात सही भी है, और बहुत से लोगों का ये मानना भी है हमने विगत 60 वर्षों में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर ली हैं । हम एक आर्थिक महाशक्ति बन गए हैं, कंप्यूटर के पुरोधा साबित हो रहे हैं,एटम शक्ति बन चुके हैं । बहरहाल बात को लंबा खींचने से बेहतर है ये कहना कि हममें से कई आत्ममुग्ध हो चुके हैं । गौरतलब है कि आत्ममुग्धता बेहोशी की अवस्था से कहीं खतरनाक चीज है । तो अब मूूल प्रश्न है कि क्या हम वाकई आत्ममुग्धता का शिकार है? क्या हम इतने अंधे हो गए हैं कि हमें सर्वत्र हरा हरा दिखता है ? अनेकों सवाल हैं जो अनेकों लोगों को आक्रांत किये हुए हैं ।
जहां तक मेरा प्रश्न है तो कई लोगों को आधुनिक संचार माध्यमों से इस रह की बातें आप के समक्ष रखने के कारण मैं अहमक भी लग सकता हूं । सही भी है मेरा परिचय आपमें से कई बौद्धिक जनों के समक्ष घुटने भर भी नहीं ठहर सकता । मेरी बौद्धिक,आत्मिक और आर्थिक उन्नती आप लोगों के सामने कुछ भी नहीं है । फिर सवाल ये उठता है कि आप मेरी बातें क्यों पढ़ें ? परन्तु मित्रों सवाल मेरा नहीं ये सवाल इस पूरे देश अथवा समाज का है जो आज नहीं आज से दस वर्षों बाद कभी भी उठाया जा सकता है । जहां तक मेरा प्रश्न है तो वो मैं कुछ पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहा हूं ।
              मैं क्या हूं, मैं कौन हूं !
              मैं राजा या भिखारी कुछ भी हो सकता हूं
              मेरा नाम कुछ भी हो सकता है,
              फर्क नहीं पड़ता,
              मैं एक विचार हूं,जो आपका आक्रांत कर देता है,
              मैं एक सोच हूं जो आपको खुशी से भर देती है,
              मैं एक संभावना हूं जो आपमें जीने की आस जगाती है,
              मैं क्या हूं, मैं कौन हूं
              ये आप सोचिये
              मैं तो बस मौन हूं !
 यहां इन पंक्तियों की प्रासंगिकता सिर्फ इतनी है कि अपने आप को मैं स्वयं नहीं समझ पाया । अगर कुछ समझा तो सिर्फ इतना कि मैं युवा हूं,मुझमें आपमें प्रत्येक युवा में देश को बदलने की क्षमता है । यहां युवा से मेरा आशय है किसी उम्र विशेष से नहीं विचारों से है । जिनके पास कुछ सृजनात्मक विचार हैं,जो लीक से हटकर चल सकें वास्तव में ही युवा हैं । ऐसे युवाओं को समर्पित है मेरा ये संबोधन । जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘ तन समर्पित मन समर्पित, और ये जीवन समर्पित, चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं ।’ सच भी है कि वाकई इस देश के युवाओं ने देश को बहुत कुछ दिया भी है । चाहे भगत  हो या आजाद इन सभी सपूतों ने देश को अपना सम्पूर्ण यौवन दे डाला । इतने बड़े त्याग की उम्मीद क्या उस काल के बूढ़ों से कर सकते हैं । वे लोग जो जेल में अच्छा खाना न मिलने का रोना रोेेते रहे । लेकिन अफसोस आजादी के बाद भी समाज में इन युवाओं की चर्चा न के बराबर हुई । तो क्या उनके प्राणों के कुछ मूल्य न थे? क्या उनका बलिदान इस तिरस्कार के योग्य था जो आज हो रहा है ? दो अक्टूबर को गांधी जयंती की बात तो बच्चा भी जानता है लेकिन भगत सिंह को फांसी कब हुई कितने लोगों को पता है? क्या सरकार का ये दायित्व नहीं है कि इन युवाओं के अभूतपूर्व बलिदान से आमजन को रूबरू कराये ? ऐसे न जाने कितने क्यों हैं जो आज नहीं तो भविष्य में आपके सामने सर उठाएंगे । क्या इनके जवाब आपके पास हैं । आज भी हालात कुछ बदले नहीं हैं । मेरी बातों केा प्रमाणित करते अनेकों पढ़े लिखे बेरोजगार युवा आपको अपने इर्द गिर्द मिल जाएंगे । नौकरी के लिए,पीएचडी के लिए तलवे चाटते हुए । यहां मैं अपने कुछ मित्रों के उदाहरण देना चाहूंगा जो वर्ष 2002 से जेआरएफ और नेट की परीक्षाएं उत्तीर्ण करके आज भी बेरोगार घूम रहे हैं । क्या गलती है इनकी? कोई जवाब है किसी के पास ? थके और हताश ये युवा वास्तव में झंडा ढ़ोने वालों की जमात में शामिल होेते जा रहे हैं । यहां मैं देश के सीमित धनाड्य वर्ग के युवाओं की बात नहीं कर रहा हूं । क्योंकि उनके आदर्श भगत या आजाद नहीं राहुल और अखिलेश यादव होंगे । जिनकी विशेष योग्यता उनका अपने परिवारों में जन्म लेना है । अभी कुछ दिन पहले तक उत्तर प्रदेश अपने सबसे युवा मुख्यमंत्री चुने जाने का जश्न मना रहा था। किंतु सिर्फ छः महीनों में लोगों की ये खुशी काफूर हो गई । हालात ये है कि अब की सरकारों ने लोगों की जेबों पर डाके डाले लेकिन ये युवा तो पूर्ववर्तियों से दो कदम आगे बढ़कर लोगों की नींदोें पर भी डाका डाल बैठा । जब रात भर की बिजली कटौती के कारण लोग सो भी नहीं पाएंगे तो सपने क्या खाक देखेंगे ? अतः अब ये समझ लेना होगा कि देश का विकास इन कुलीन परिवारों में जन्मे तथाकथित युवाओं से न होकर हमसे आपसे होगा । चुनाव आपका है सत्ता में युवाओं की भागिदारी या जीवन पर्यंत कुत्तों की चाटुकारिता । दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां गौरतलब हों: रक्त वर्षों से नसों में खौलता हैं, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है । अंततः मेरा आग्रह सिर्फ इतना है कि हमारी पहचान समग्र रूप से युवा की होनी चाहिए न कि जातियों  के आधार पर और अगर कोई वाद हम युवाओं में हो तो वो सिर्फ राष्टवाद हो ।
                                            जय हिंद जय भारत
                                            सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’                     

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