Saturday, September 15, 2012

पद का नहीं कद का दावेदार ढ़ूंढ़ना होगा

हांलाकि आगामी लोकसभा चुनाव 2014 में प्रस्तावित हैं,लेकिन सत्ता के गलियारों में उनकी धमक साफ सुनी जा सकती है । हर छुटभैया खुद को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट कर रहा है । ये मैं नहीं कह रहा ये खबरें आए दिन समाचार पत्रों और चैनलों पर सुर्खियां बटोर रही हैं । वैसे ये बहस शुरू करने का श्रेय किसी और को बिहार के विकास पुरूष नितीश कुमार को जाता है । याद होगा कि राष्टपति चुनाव के वक्त उन्होने भाजपा से सेक्यूलर प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने की मांग की थी । खैर ये बेवक्त शहनाई बजाने की तरह अप्रासंगिक बात थी । बहरहाल उनकी इस हरकत को देखकर गांव में बचपन की सुनी कहावत याद आ गई । जैसी कि पुरनिये कहा करते हैं अगर खिली धूप के साथ फुहारें पड़े ंतो सियार की शादी होती है । वास्तव में यही है भारतीय राजनीति का स्याह पक्ष यहां कितने ही सियार लोकतंत्र की झुलसती दोपहरी में हनीमून का ख्वाब पाले बैठे हैं । खैर ख्वाब देखना व्यक्ति का नितांत निजी मामला कोई भी कभी भी देख सकता है । ध्यान देने वाली बात ये है कि ख्वाब पूरे होंगे या नहीं इसमें संशय  है। वास्तव में पद की ये महत्वाकांक्षा ही व्यक्ति को नकारात्मकता की ओर ढ़केलती है ।
अपने माय वोट बैंक के साथ मुलायम बड़ी चतुराई से पाला बदलकर तीसरे मोर्चे की किलेबंदी कर रहे हैं । इसके पीछे उनकी महत्वाकांक्षा ही जिम्मेदार है । या कौन भूल सकता है राजनीति के मसखरे कहे जाने वाले लालू जी की महत्वाकांक्षा जिसको लेकर उन्होने भी तीसरा मोर्चा गढ़ा था । उनका और पासवान का हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । वैसे मालूम पड़ा है कि आजकल वो ज्योतिषचार्य हो गये हैं । हैरत में मत पडि़ये बीते लोकसभा चुनावों में उनकी सत्य हुई भविष्यवाणी को याद करीये । उन्होने कहा था कि प्रधानमंत्री बनना आडवाणी जी की कुंडली में नहीं लिखा । उनकी ये बात अंततः सच साबित हुई । अफसोस है बेचारे आडवाणी जी को लेकर जो एक कमजोर प्रत्याशी से पिट गए । मनमोहन जी के विजयी होने के कुछ दिनों बाद ही अखबारों में एक कार्टून प्रकाशित हुआ था,जिसमें दिखाया था कि मनमोहन जी से पिटकर आडवाणी जी बेसुध से रिंग में गिरे हुए हैं । ऐसे में पास से गुजरता हुआ एक राहगीर कहता है कि अरे ये तो मजबूत प्रत्याशी था । उस कार्टून को देखकर आडवाणी जी के दिल पर क्या बीती होगी ये तो नहीं पता पर उस कार्टून को यादकर आज भी हंसते हंसते सांस फूल जाती है । कार्टून पे मत जाइएगा अगर लोकतंत्र में रहना है तो देशद्रोह का अगला मुकदमा आप पर भी ठोका जा सकता है । सही भी तो है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे भी उठाने पड़ते हैं । अब असीम भाई को ही ले लीजिए उनका बनाया एक कार्टून उनकी जान का दुश्मन बन गया । एक ही झटके में वो कसाब,अफजल सरीखे आतंकियों और कनीमोझी,व कलमाड़ी जैसे घपलेबाजों से भी बड़े देशद्रोही बना दिये गए । कोयले की कालीख से भले कांग्रेस के हाथ सने हो लेकिन वो भी देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है । यकीन नहीं आता तो उनके राज में हुए घोटालों की फेहरिस्त पर नजर डालिए । इसे ही कहते हैं खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे । खैर जो भी हो इस चर्चा से मेरा आशय है प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवारों की असल योग्यता दर्शाना । संक्षेप में कहें तो आजादी के बाद से ही देश में तथा देशभक्तों के बीच प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने की होड़ लगी थी । यहां एक प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता है,क्या ऐसा ही होता है प्रधानमंत्री? जैसी कि आजादी के 65 वर्षों तक हम बराबर देखते आ रहे हैं । जवाब यही मिलता है कि हमारे देश में पद के दावेदार तो अनेकों मिल जाएंगे पर इस पद के मुताबिक कद किसी का भी नहीं है । अगर किसी का है तो उसके पीछे पड़ जाते हैं सेक्यूलरिज्म के ठेकेदार । इन्होने सेक्यूलर होने की नयी परिभाषा गढ़ी है । इन तुच्छ जननायकों के अनुसार जो जितना बड़ा देषद्रोही वो उतना बड़ा सेक्यूलर । जो देश को बेच डाले वो और बड़ा सेक्यूलर और जो इस भूभाग के वास्तविक दावेदारों को का जीवन नर्क बना डाले वो तो माशा अल्लाह सेक्यूलरों का खुदा ही होगा । तभी तो गिलानी,अग्निवेश जैसे भेडि़ये मजबूरों का घर फूंककर वहां तमाशा करते हैं । हो सकता हो आपको मेरी बात गलत लगे भाई सबकी अलग राय हो सकती है । ये भी हो सकता है आपको चहुंओर इंडिया शाइनिंग लग रहा हो लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है । अगर स्याह हकीकत को जानना है तो कभी बात करके देखीए अपने ही घर में रिफ्यूजी कैंपों में जीवन बसर करने वाले कश्मीरी हिन्दुओं से जो लाखों की संख्या में अपने घरों से बेदखल हुए बैठे हैं । इनके लिए किसी का कलेजा नहीं फटता दर्द होता बांग्लादेश से अवैध रूप से आए लोगों के लिए । वाह रे सेक्यूलरिज्म मैं इसमें यकीन नहीं रखता । ध्यान दीजिएगा अगर सेक्यूलरिज्म की परिभाषा यही है जो हमारे देश में दिखती है तो अमेरिका को विश्व के नक्शे मिटा देना चाहिए । क्योंकि उसने लादेन जैसे योद्धा को मौत के घाट उतार दिया । उसकी मौत पर किसी ने भी वैसी प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की जैसे हमारे एक केंद्रीय मंत्री ने की थी । अमेरिका के सैनिकों का उसे समुद्र में फेंकना उन्हे रास नहीं आया और वो खुलेआम इसकी भत्र्सना कर बैठे । वास्तव में सेक्यलरिज्म के हमारे और वैश्विक दर्शन में बहुत फर्क है। अब सोचने वाली बात देश की बागडोर हम किसे सौंपे? आपने कभी प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन जी के हावभव देखे हैं । क्या ऐसा ही होता है प्रधानमंत्री? कभी सुनी है उनकी हिन्दी ज्यादातर नहीं सुनी होगी क्योंकि लालकिले पर चढ़कर भी हिन्दी बोलना नहीं पसंद करते । वो तो भला हो विपक्ष का जो उन्हे घेर घारकर कभी कभार हिन्दी बोलने पर मजबूर कर देती है । वरना वो तो शायद सपने में भी हिन्दी से सरोकार नहीं रखना पसंद करते । दोबारा प्रश्न उठता है क्या ऐसा होगा हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री जो हिन्दी बोलना भी पसंद नहीं करता ?हमारे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी की ऐसी ही अदाएं देखकर एक अंग्रेज अधिकारी ने कहा था कि नेहरू दिखता तो हिन्दुस्तानी है पर आत्मा से अंगे्रज है । जी हां तो आजादी के बाद से ऐसे ही काले अंग्रेज सत्ता के दावेदार बने बैठे हैं । अगर मेरी बात गलत लग रही होगी तो शायद आपने चाचा जी की कुछ लार्जर दैन लाईफ वाली तस्वीरें नहीं देखी होंगी । वो तस्वीरें जिनमें चचा अचकन पे गुलाब लगाए विदेशी मेम के साथ बैठकर सिगरेट फूंकते दिखते हैं या वो तस्वीर जिसमें वो उन्हीं मेम से चिपककर बैठे मिल जाएंगे । यहां फिर एक प्रश्न है कितने लोग जानते हैं कि चाचा नेहरू की पत्नी का नाम क्या है ? कितने लोगों ने उनको अपनी श्रीमती के साथ उस तरह से बातें करते देखा है ? खैर वो मेम कोई और लार्ड माउंटबेटन की पत्नी थी और ध्यान रखीएगा ये तस्वीरें उस वक्त की है जब देश दासतां की जंजीरों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था । सबसे अधिक हैरत की बात ये है कि ये चिपकना लिपटना किसी और के साथ नहीं ऐसे आदमी की बीवी के साथ हो रहा था जो उनका वैचारिक शत्रु था । क्या ऐसे में नेहरू जी की निष्पक्षता प्रभावित नहीं हो सकती थी ? उनके बहुतेरे किस्से बाद में कई दिनों तक अखबारों में छपते रहे । नेहरू जी और लेडी माउंटबेटन के बीच हुए पत्र व्यवहारों को भी माउंटबेटन की बेटी ने बाद में प्रकाशित कराया । इन पत्रों से और भी बहुत सी बातें प्रकाश में आई । ध्यातव्य हो कि आजादी मिलने के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी के योग्य दावेदार थे सरदार पटेल जिन्होने कई मौकों पर अपनी योग्यता सिद्ध भी की थी । बता दें कि तात्कालीन कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में 15 में 14 प्रदेश अध्यक्षों ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में मतदान किया था । अंतिम फैसला किया महात्मा गांधी ने जिन्होने हस्तक्ष्ेाप कर पं नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया । जैसा कि उन्हेाने 1930 के अधिवेशन सुभाष के सामने अपने प्रत्याशी की हार पर किया था । ऐसे में गांधी जी को भी बेदाग नहीं ठहराया जा सकता । बहरहाल यहां गांधी जी पर चर्चा नहीं करूंगा । पं नेहरू के जीवन को और करीब से जानना है तो इलाहाबाद स्थित उनके घर आनंद भवन को घूम कर देखीये । काफी कुछ समझ आ जाएगा । वास्तव में पद का वास्तविक दावेदार वही होता है जिसने देश के लिए त्याग किया हो न कि वो जिसने देश के संसाधनों को प्राइवेट लिमिटेड इस्टेट बना डाला हो । गौर करीये वास्तव में कांग्रेस है क्या एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी एक निजी प्रापर्टी जिसका सीईओ परिवार से ही आएगा । तो ऐसे में अमूल बेबी की तो बपौती है प्रधानमंत्री की कुर्सी । सोचिये क्या वास्तव में इसे ही लोकतंत्र कहते हैं?
अक्सर ही चर्चाओं के दौरान जैसा कि मेरे एक मित्र कहा करते हैं कि देश को अभी बड़े डाक्टर या इंजीनियर की नहीं योग्य शिक्षकों और नेताओं की आवश्यकता है । वास्तव मंे वर्तमान में मुख्यधारा के नेताओं पर चर्चा करने के बाद नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और नाम जेहन में ठहरता है ? निष्पक्षता से सोचियेगा । क्या सूख गई है  नेताओं की नर्सरी ? या बपौती बन गई है कुछ प्राइवेट लिमिटेड परिवारों की ? जरा सोचिये मोदी के बाद फिर कौन इस जादुई कुर्सी का नैसर्गिक उत्तराधिकारी ? क्या भविष्य की राजनीति के लिए हमारे पास विकल्प सुरक्षित हैं ? जरा फिर से सोचियेगा नेतृत्वविहीन होकर किस गर्त में जा रहे हैं हम ? अव्यवस्था के इस आलम में युवाओं को आगे आना होगा क्योंकि इसी उम्र में त्याग किया जा सकता है । वास्तव में एक निर्धारित उम्र के बाद व्यक्ति की संघर्ष क्षमता कुंद हो जाती है । यहां प्रश्न व्यक्ति की योग्यता का नहीं सामथ्र्य का होता है । ऐसा ही कुछ मनमोहन जी के साथ भी हुआ है जो कांग्रेस की बलीवेदी पर बकरा बने बैठे हैं । कब तक सत्ता की बागडोर ऐसे निस्तेज और थके हुए बूढ़ों के हाथ में सौंपते रहेंगे कब तक । अब आवश्यकता युवाओं के आगे बढ़ने की । ध्यान रखीयेगा स्वामी विवेकानंद से लगायत भगत सिंह तक सभी युवा थे, जिन्होने हममे स्वाभिमान के बीज बोये थे । आज देश का स्वाभिमान क्षत विक्षत होता देखकर क्या हमार युवा रक्त नहीं खौलता ? क्या इतने ठंडे पड़ गए हैं हम ? सोचिये सारे विकल्प आपके सामने हैं । अंततः
न संभलोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्तां वालों,
तुम्हारी दासतां भी न होगी जहां की दास्तानों में
                                                                                                                                   जय हिंद,जय भारत




                                                                                                                                 सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’  



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