Friday, September 21, 2012

यहां कोई किसी का यार नहीं

एक पुराना गीत है ‘सब प्यार की बातें करते हैं पर करना आता प्यार नहीं,है मललब की दुनिया सारी यहां कोई किसी का यार नहीं’ इन पंक्तियों को अगर भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये और भी प्रासंगिक लगेंगी । एक कहावत है कि सियासत की मजबूरियों में ही सियासत छुपी होती है । वस्तुतः राजनीति समझौते का दूसरा नाम है । ये समझौते किसी दल या विचारधारा को ध्यान में रखकर नहीं किये जाते बल्कि अपनी मजबूरियों को ढ़ोने के लिए किये जाते हैं । ये बात वर्तमान शासन प्रणाली को देखकर बखूबी समझी जा सकती है । इस बात के एक दो नहीं अनेकों उदाहरण रोजाना ही हमारे सामने आते रहते हैं । ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि खुद कि मजबूरियों घिरे इन लोगों से देश हित की उम्मीद की जा सकती है । जवाब हमेशा ही ना होगा ।90 के दशक से अस्तित्व में आयी गठबंधन की राजनीति ने देश के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है । देश की राजनीति में इन दिनों दो गठबंधन दलों की मुख्य भूमिका है । इनमें से एक है कांग्रेस नीत संप्रग तो दूसरा भाजपानीत राजग । चूंकि संप्रग गठबंधन के हाथ में सत्ता की बागडोर है तो आइए पहले चर्चा करते हैं संप्रग की । गठबंधन को निभा रहे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चर्चा इन दिनों हर जुबान पर है । देश तो क्या विदेशों में भी अद्भुत सत्ता संचालन के गुण की चर्चा हर ओर की जा रही है । ऐसे में देश विदेश में हो रही अपनी खिंचाई से आजिज आकर प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कुछ कड़े फैसले लिये । देश में एफडीआई की राह खोलना और पेटोलियम पदार्थों के मूल्य में इजाफा करना । बकौल प्रधानमंत्री ये कड़े फैसले आर्थिक सुधारों के लिए अति आवश्यक बताये गये । इन फैसलों से देश का भला होना या न होना तो भविष्य की गर्त में है लेकिन उनके सहयोगियों ने उनकी थुक्का फजीहत में कोई कसर नहीं उठा रखी है । इनमें सबसे पहले समर्थन वापस लेने की घोषणा की ममता बनर्जी ने । तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो के निर्देशानुसार उनके सांसदों ने मंत्री पद से इस्तिफा देकर समर्थन वापस ले लिया । वजह आम आदम केेे हितों की लड़ाई बताई गई । इस घटना का अगर सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे असली वजह मुद्दे से बिल्कुल भिन्न है । अभी कुछ दिनों पूर्व एक चैनल पर हो रही बहस में शामिल तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुल्तान अहमद ने बताया कि सरकार ने ये फैसले सहयोगियों को नजरअंदाज करके लिये थे । बंगाल में चल रही उनकी पार्टी की सरकार के बारे में प्रश्न करने पर उन्होने कहा कि केंद्र सरकार नहीं चाहती कि बंगाल का विकास हो । लगभग दो साल स ेचल रही हमारी सरकार को आवश्यक आर्थिक मदद नहीं मिलने के कारण जरूरी विकास कार्य भी लंबित पड़े हैं । अगर इन बातों पर गौर करें संप्रग गठबंधन का निरंकुश चेहरा हमारे सामने आता है । आश्चर्य की बात ये है कि लगभग आठ वर्षों पुराने अपने इस रिश्ते को बचाने के लिए कांग्रेस ने कोई खास पहल नहीं की । इसका भी कारण स्पष्ट है क्योंकि ममता के सांसदों के विरोध के बावजूद भी सरकार पर अल्पमत का संकट नहीं है । वजह है सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा । ध्यान दीजिएगा कि अगर तृणमूल कांग्रेस के 19 सांसदों ने इस्तिफा दे दिया है तो भी बसपा के 21 और सपा के 22 सांसद सरकार को स्थिरता प्रदान कर रहे हैं । ऐसे में ममता दीदी के समर्थन देने या लेने का कोई विशेष फर्क सरकार की सेहत पर नहीं पड़ा । इन परिस्थितियों को देखकर एक और गीत याद आ रहा है ‘कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर’।
अब बात करते सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे सपा और बसपा की । भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरे इन दलों को वश में रखने का हथियार अब भी सरकार के पास है । ये है सीबीआई, जिसे उसके इसी विकृत रूप के कारण आजकल कांग्रेस व्यूरो इंवेस्टिगेशन कहा जा रहा है । इसका सबूत है मायावती पर चल रहा ताज कारीडोर मामला कांग्रेस की छत्रछाया में खड़े होने के कारण ही मायावती आजकल ख्ुाद को सुरक्षित महसूस कर रही हैं । अब बात करते हैं मुलायम की तो उनकी अवसरवादी और कुटिल राजनीति से कोई भी अंजान नहीं है । उनके लिए कांग्रेस को समर्थन देने का मतलब है खुद पर चल रही जांच से बचना और उत्तर प्रदेश के लिए बड़े पैकेज झटकना । आपने भी देखा होगा कि मायावती के शासन में केंद्र ने जिस तरह का रवैया अपनाया था उसके ठीक विपरीत अखिलेश के लिए केंद्र ने तिजोरी के ताले खोल दिये हैं । ऐसे में सरकार को गिराकर मुलायम खुद के लिए सिरदर्द नहीं खड़ा करेंगे । उनकी रणनीति है केंद्र से मिल रहे राहत पैकेज से विकास की लहर चलाकर कांग्रेस की कब्र खोदना । कब्र खोदने से मेरा आशय है आगामी लोकसभा चुनाव इस बात से कोई भी अंजान नहीं है कि आम आदमी के हितों की बात करके सत्ता में आयी कांगे्रस आज उसी आम आदमी की दुश्मन नंबर 1 बन गयी है । ऐसे में अगले चुनाव के बाद उसकी वापसी की संभावना भी मृतप्राय हो चुकि है । इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर मुलायम तीसरे मोर्चे की किलेबंदी में जुटे हैं । ऐसे में भारत बंद के दौरान माकपा नेता प्रकाश करात का उन्हे तीसरे मोर्चे का मुखिया कहा जाना मुलायम की सफलता को दर्शाता है । मुलायम के सिंडिकेट में आपको दर्जनों तुच्छ और टुच्चे नेता मिल जाएंगे जिनकी हालत आजकल रोडसाइड रोमियो से ज्यादा कुछ नहीं है ।याद करीये भारतीय राजनीति में तीसरा मोर्चा कोई नई बात नहीं है पूर्व में भी लालू जी ने इस तरह का मोर्चा बनाया था । कौन भूल सकता अवसरवाद के सशक्त उदाहरण रामविलास पासवान को जिन्होने संप्रग और राजग दोनों की सरकारों में मंत्री पद पाया । इन उदाहरणांे को देखते हुए मुलायम का हश्र क्या होगा ये विचारणीय प्रश्न है ।
ये तो थी संप्रग की बात लेकिन राजग गठबंधन की हालत भी इससे कुछ भिन्न नहीं है । जिसकी बानगी भाजपा के महंगाई के विरोध प्रायेाजित भारत बंद के दौरान देखने को मिली । उसके इस आंदोलन को उसके सहयोगी दलों अकाली दल और शिवसेना का समर्थन भी नहीं मिला । भाजपा के एक और बड़े सहयोगी दल जद यू  के तेवर भी कई बार राजग गठबंधन को खतरे में डालते नजर आते हैं । अब विचारणीय प्रश्न है कि खुद अवसरवाद की बिमारी से ग्रस्त ये नेता कैसे रचेंगे स्वस्थ लोकतंत्र? अंततः
                         सियासत नाम है जिसका वो कोठे की तवायफ है,
                             इशारा किसको करती है नजारा किसको मिलता है।
                                                                                                                सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’            

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