Wednesday, November 21, 2012

सत्ता का सकारात्मक संदेश: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

आज की सुबह कई मायनों में अलग थी । सुबह सवेरे पुणे के निकट यरवदा जेल में  कसाब को फांसी लगने की सूचना ने कहीं न कहीं आम जन के मन में सत्ता के प्रति विश्वास की बहाली की है । ध्यातव्य हो ये वही कसाब है जो 26 नवंबर 2008 को मुंबई के दौरान एकमात्र पकड़ा गया जीवित आतंकी था । इस दुर्दांत हमले में 238 लोग घायल और 166 लोगों की मौत हो गयी थी । मुंबई पर हमले की चैथी बरसी के ठीक पांच दिन पूर्व कसाब को फांसी पर लटकाना वास्तव में एक सकारात्मक संदेश है । नब्बे के दशक से आतंकवाद झेल रहे भारत को ऐसे कदम बहुत पहले उठाने चाहीये थे । खैर देर आये दुरूस्त आये अंततः कसाब को अपने कुकर्मों की सजा मिल गई । इस अवसर पर हमें निश्चित तौर पर महामहीम प्रणब दा के प्रति आभारी होना चाहीये । ध्यान देने वाली बात है कि राष्टपति के पास दया याचिका जाना कोई नयी बात नहीं है । उनके पूर्व भी कई लोग इस कुर्सी पर विराजे लेकिन आतंकियों के मामले पर उनकी संदिग्ध चुप्पी ने निश्चित तौर पर इस पद की गरिमा कलंकित की है । ध्यान रहे कसाब का मामला प्रणब दा के पूर्व का है लेकिन पूर्व महामहीम को अपने विदेशी दौरों फुर्सत नहीं मिल सकी । अतः इस मामले का श्रेय प्रणब दा को जाता है । उनके इस निर्णय ने भारत के इस संवैधानिक पद की गरिमा को बढ़ा दिया है ।
26 नवंबर के कुख्यात आतंकी अजमल कसाब की फांसी से पूरे विश्व में सकारात्मक संदेश मिला है । इस संदेश से ये स्पष्ट है कि कभी आतंकियों के लिये साफ्ट टार्गेट माना जाने वाला भारत भी आतंकियों को कठोर दंड दे सकता है । असल में देखा जाय तो आतंक के प्रति ढ़ुलमुल रवैया अपनाने की वजह से भारत आतंकियों का मनपसंद शिकारगाह बन गया । इस में आतंकियों से कहीं ज्यादा गलती उन सेक्यूलर लोगों की है जो देशद्रोही के मानवाधिकारों की वकालत करते नहीं थकते । ऐसे लोगों से मेरा एक सीधा सवाल है कि क्या आतंक से पीडि़त लोगों के मानवाधिकार नहीं होते? यदि होते हैं तो सैकड़ों लोगों को बेदर्दी से मार डालने वाले आतंकियों के कैसे मानवाधिकार ? बहरहाल जो बातें बीत गई उन पर बात करने से विशेष लाभ नहीं होता । यहां विचारणीय प्रश्न है हमारी सुरक्षा व्यवस्था और न्यायपालिका के सुराख । अगर हमारी सुरक्षा व्यवस्था चाक चैबंद होती तो क्या कसाब और उसका दस्ता भारत में इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे पाता । और अगर हमारी न्यायपालिका पर सियासत हावी न होती तो कसाब कब का फांसी पर लटक चुका होता । इस सारी घटना से सबक सिर्फ इतना मिलता है कि हमें अपनी शासन व्यवस्था के ये दोनों सुराख बंद करने होंगे । ये करने के लिये हमें दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी । ये इच्छाशक्ति जो आज प्रणब दा ने दिखायी वो माननीया प्रतिभा जी भी दिखा सकती थी । किंतु उनके कार्यकाल को देखकर बहुधा ऐसा भ्रम हुआ किवे भारत का विदेश मंत्रालय संभाल रही हों ।
वस्तुतः अगर देखा जाय तो भारत मूलतः चर्चाओं का देश है । यहां चर्चाओं का बाजार हमेशा गर्म रहता है । अतः आज इस बड़े मुद्दे पर चर्चा तो लाजिमी है । कसाब की फांसी के साथ ही टीवी समेत विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चर्चा का बाजार गर्म रहा । किसी ने कहा कि कसाब फांसी के पूर्व ही डेंगू से मर गया तो किसी ने उसकी फांसी पर ही संदेह जताया । आपरेशन एक्स के नाम से अंजाम दी गयी इस गोपनीय कार्रवाई की हकीकत देर सवेर तो सामने आ ही जाएगी । गृहमंत्री समेत विभिन्न बड़े अधिकारियों के कैमरे के सामने दिये गये बयान को अगर सच माना जाय तो कसाब मर चुका है । सोचने वाली बात है कि कोई भी व्यक्ति कैमरे के सामने इतना बड़ा झूठ बोल सकता है? जवाब हमेशा ना में ही मिलेगा । तो बेवजह कसाब के जीवित होने की आशंका जताने से क्या प्रयोजन ?
सबसे बड़ी बात ये भी है कि कसाब के मरने या ना मरने की बात प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने नहीं उठाई । अगर नहीं उठाई तो इसका सीधा सा अर्थ उसे भी कसाब की मृत्यु का पूर्ण विश्वास है । ऐसे में एक अच्छे फैसले की निंदा का कोई प्रयोजन नहीं है । ये समय है प्रणब दा और आपरेशन एक्स से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को बधाई देने का । ये समय है लोकतांत्रिक विजयादशमी मनाने का । जहां तक भारतीय राजनीति का प्रश्न है तो वास्तव में ये दिग्भ्रमित और दो धड़ों में विभक्त है। इसका पहला धु्रव है तथाकथित सेक्यूलर तो दूसरे धु्रव पर हैं दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग । इनमें से सेक्यूलर आतंकियों के मानवाधिकार का रोना रोते हैं,तो दक्षिणपंथी अपनी विचारधारा का । गौर से देखा जाय तो दोनो का अपनी विचारधारा से कोई लेना देना नहीं रह गया है । यथा सेक्यूलरों को आतंकियों का दर्द तो दिखता है लेकिन सुरक्षाबल के जवानों की शहादत पर उनकी संवेदना मर जाती है । दूसरी ओर दक्षिणपंथी अपने दल को गंगाजल मान बैठे हैं अर्थात वो गलत हो ही नहीं सकते । इन दोनों के विस्तार को अगर देखें तो निश्चित तौर पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इन दोनों का प्रयोजन देशप्रेम से तो कत्तई नहीं है। अगर ऐसा होता तो देश की सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर दोनों के मत एक हो जाते । अतः लोकतंत्र के पहरूओं से मेरा विनम्र निवेदन है सत्ता के इस सकारात्मक संदेश का स्वागत करें । अंततः प्रणब दा का ये निर्णय मुझे टीएन शेषन की याद दिला गया । आपको याद होगा कि चुनाव आयुक्त के पद पर बैठते है उन्होने बड़े बड़े राजनीतिक सुरमाओं को नाकेां चने चबवा दिये थे । संक्षेप में कहा जाए तो प्रणब दा के इस फैसले से बहुत सी उम्मीदें जगी हैं । आशा है कि वे भविष्य में इस तरह के सख्त निर्णय लेकर अपने पद को और भी गौरवान्वित करेंगे। कहने वाले कुछ भी कहें परंतु देश को राजेंद्र बाबू के बाद पहला ऐसा व्यक्ति मिला जिसने इस कुर्सी के प्रति अपनी उपयोगिता सिद्ध की है । अगर आपको मेरी ये बात गलत लगे भारतीय इतिहास में इस पद पर बैठै किसी अन्य व्यक्ति के ऐसे साहसिक निर्णय की मिसाल ढ़ूंढ़कर बताइये ।

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