Tuesday, October 30, 2012

झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

शीर्षक पढ़कर हैरान होने की जरूरत नहीं है । वास्तव में ये वर्तमान राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का सही आकलन है । माननीय मनमोहन जी के हालिया मंत्रीमंडल में किये गये फेरबदल पर नजर डालें तो पाएंगे कि आज के राजनीतिक सरोकार नैतिकता के विलोम होते हैं । वर्तमान सरकार द्वारा किये गये अब तक के सब से बड़े उलटफेर में  सात केबीनेट मंत्रियों सहित 22 मंत्रियो की कुर्सियों की अदला बदला हो गयी । भ्रष्टाचार,महंगाई सहित कई संगीन आरोपों से जूझ रही सरकार के ये कदम किस ओर इशारा करते हैं । बहरहाल इस फेरबदल को विगत आठ वर्षों से मौन मोहन,अंडर एचीवर समेत विभिन्न उलाहनों से जूझ रहे प्रधानमंत्री की चुप्पी तोड़ने के तौर पर भी देखा जाना चाहिये । ध्यातव्य हो कि मनमोहन ने ऐसे समय अपनी खामोशी तोड़ी जब आम आदमी सरकार के प्रति अपना विश्वास पूरी तौर पर खो चुका है । तथ्यों का अगर और ध्यान से निरीक्षण किया जाये तो ये फेरबदल वास्तव में जनता का ध्यान भ्रष्टाचार और घोटालों से हटाकर अन्यत्र लगाने के लिये उठाया गया कदम ही है । ऐसा ही कदम उन्होने पूर्व  में एफडीआई की स्वीकृति और पेटोलियम पदार्थों के दाम में वृद्धि लाकर किया था । इसका नतीजा भी सभी के सामने है । कोल गेट मामले में सरकार की खिंचाई कर रहे लोगों ने महंगाई और घरेलू बजट पर चर्चा शुरू कर दी ।
उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर देखें तो ऐसा अवश्य लगता है कि इस सरकार का रुख लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह निरंकुश हो गया है । अर्थात जनता जर्नादन मेरे ठेंगे पर, आपको बुरा लगता है तो लगता रहे हम अपने फैसले करने को पूरी तरह आजाद हैं । वास्तव में कांग्रेस का यही विद्रोही तेवर जनता के सिरदर्द का सबब बना हुआ है । गौरतलब है कि वर्तमान में राबर्ट वढ़ेरा के मामले पर घिरी सरकार ने ये फेरबदल के कदम उठाकर लोगों का ध्यान एक बार फिर दूसरी ओर मोड़ दिया है । वस्तुतः चर्चा का विषय अभी रार्बट को मानकों की अनदेखी कर क्लीनचिट देना या उनके बचाव में समस्त मंत्रियों के उतरने पर होनी चाहिये थी । इन मामलों में कमाल का है मनमोहन जी का मैनेजमेंट,तभी तो अपने शासन काल में उन्होने इतने बड़े घोटालों का सृजन किया । पहले घोटाले फिर खुलासे और अंततः तुगलकी फैसलों से चर्चा का रुख बदलना । वास्तव में क्या यही होते हैं प्रधान मंत्री के दायित्व ? उस पर कांग्रेसियों का तुर्रा कि प्रधानमंत्री ईमानदार हैं । भाड़ में जाये ऐसी ईमानदारी जिसकी ओट में लोकतंत्र पे कालिख पोती जाय ।
विचारणीय प्रश्न है कि हालिया हुए इस फेरबदल से लोकतंत्र का कितना भला होगा ? जवाब हमेशा ना में मिलेगा वास्तव में इस तरह के फेरबदल के पीछे प्रधानमंत्री की मंशा कुछ और थी । प्रथम दृष्टया इस फेरबदल के द्वारा प्रथम परिवार के प्रति वफादारी दिखाने वालों को पुरस्कृत किया गया है । ध्यान दीजीयेगा केजरीवाल जी के राबर्ट वाले खुलासे के बाद मनीष तिवारी और सलमान खुर्शिद की भूमिका । अंततः उन्हे वफादारी का पुरस्कार भी मिला । भ्रष्टाचार की मांग को लेकर गडकरी की थुक्का फजीहत और नैतिकता की दुहाई देने वाले कांगेसी नेता खुर्शिद जी या श्रीप्रकाश जी के मामले में नैतिकता क्यों नहीं दिखाते ? वास्तव में ये कांग्रेसी दोमुहेपन की पराकाष्ठा है । ये लोग एक ओर तो गडकरी को नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने की बात करते हैं तो दूसरी ओर खुर्शिद जैसे दागियों का संरक्षण भी करते हैं । इस मामले में काबिलेगौर बात ये भी है कि हवाला मामले में नाम आने के बाद आडवाणी जी द्वारा नैतिकता के आधार पर दिये गये इस्तिफे से भी सबक ले सकते हैं । इस फेरबदल में बात सिर्फ संरक्षण की ही नहीं है,वरन हालिया भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे खुर्शिद को तरक्की भी दे दी गयी । खैर ये इस तरह का पहला मामला नहीं है इसके पूर्व भी असफल मंत्री सुशील शिंदे को इस तरह का प्रमोशन दिया गया है । अब विचारणीय प्रश्न है कि इस फेरबदल के मायने क्या हैं ? ये निर्णय भ्रष्टाचार और दागियों से निजात पाने के लिये नहीं लिया गया क्योंकि अगर सुबोधकांत सहाय को हटाया गया तो श्री प्रकाश जायसवाल और पी चिदंबरम जैसों का अपने पदों पर बना रहना क्या दर्शाता है ?
मनमोहन जी की चुप्पी इस तरह टूटने का आभास किसी को भी नहीं था । अपने हालिया तुगलकी फैसलों में जहां उन्होने ठीक ठाक काम रहे मंत्रियों को दंडित किया तो आरोपियों को मलाई काटने के लिये बड़े पद भी दे डाले । उनके इस निर्णय को एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री के निर्णय के तौर याद नहीं किया जा सकता । इस मामले में सरकार की सबसे ज्यादा निंदा हुई है जयपाल रेड्डी को हटाने से । जानकारों के अनुसार सरकार ने ये फैसला रिलायंस के दबाव में लिया है । खैर उनकी जगह आये मोइली जी ने आते ही तेल के दामों में वृद्धि के आसार दिये तो दूसरी ओर मनमोहन जी के बेहद करीबी माने जाने वाले पवन बंसल जी ने रेल मंत्रालय संभालते ही रेल भाड़ों में वृ़िद्ध की बात कही । अब इन मंत्रियों की अल्प बुद्धि से महंगाई का निराकरण होता तो नहीं दिखता । जहां तक महंगाई से निपटने का प्रश्न है तो ये सीधे सीधे वित्त और कृषि मंत्रालय से जुड़ा मामला है लेकिन अफसोस है कि ये मंत्रालय अब भी पुराने निजामों द्वारा संचालित होंगे । अतः सरकार के इस निर्णय को जनहित से जोड़कर तो नहीं देखा जा सकता । हां इस निर्णय में सरकार के चुनावी स्वार्थ अवश्य छिपे हैं । यथा बीते चुनावों के प्रदर्शन के आधार पर आंध्र प्रदेश के 11 सांसदों को मंत्रीमंडल में स्थान मिलना । ये वास्तव में अपने आप में एक अनोखी घटना है । इसे जगन रेड्डी के बगावत को कुचलने के कदम के तौर पर समझा जा सकता तो गुजरात के सांसद को मंत्रीमंडल में शामिल करने की मुख्य वजह है गुजरात का आगामी विधानसभा चुनाव । इसी प्रकार की सोच चंद्रेश कुमारी को मंत्रीमंडल में शामिल करने के पीछे भी है । सरकार उनके कांगड़ा कनेक्शन का फायदा आगामी हिमाचल विधान सभा चुनावों मंे उठाने को आतुर है । उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अगर देखें तो सरकार का ये निर्णय वास्तव मंे मनमोहन जी की कुशल मैनेजमेंट क्षमता का एक और प्रमाण है । अन्यथा क्या वजह हो सकती है बिहार,मध्य प्रदेश,झारखंड,ओडि़सा समेत विभिन्न पूर्वोत्तर राज्यों की अनदेखी की? अंततः अगर निष्कर्षों की बात की जाये तो ये मनमोहन जी की ये कोशिश सरकार की गिरती साख को बचाने का एक और नाकाम कदम ही माना जायेगा । यदि सरकार के जनता के प्रति संदेश की बात करें तो ये सिर्फ इतना है कि झूठों का बोलबाला और अच्छों का मुंह काला ।

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