Friday, October 26, 2012

सासू मां का लाडला रोबोट: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

जनाब ये है वर्ष 2012 और 1947 से यहां तक के सफर में राजनीति के तौर तरीके पूरी तरह से बदल गये हैं । उस समय कहानी थी एक लोकतंत्र के विकास की आज की कहानी में एक परिवार में ही पूरा लोकतंत्र समा गया है । कहना जरूरी नहीं है कौन सा परिवार और कैसा लोकतंत्र ।बहरहाल कहानी की शुरूआत होती है विदेश से आयातित एक विदेशी पतुरिया की जिसे सोनिया कहा जाता है । ध्यान दीजीयेगा लड़की को भगाकर ले आना शायद आज भी हमारे देश में गुनाह की श्रेणी में आता है । फिर भी भागकर आई इस पतुरिया को राजमाता घोषित किया गया और ये पूरा लोकतंत्र खामोश था । मामला आज भी वैसा ही होता अगर कुछ सरफरोशों ने बात आगे न बढ़ायी होती । अब देखीये विदेश से भाग भगा के आयी ये विधर्मिणी जिसके कुल वंश का पता भी औसत भारतीयों को नहीं है इस देश की अस्मिता के साथ अनोखे खेल खेल रही है ।
अभी कुछ दिनों पहले इसी विष बेल की उपज मंद बुद्धि अमूल बेबी को एक घिनौने मामले में कोर्ट से राहत मिली नहीं की इसके दूसरे फलों ने लोकतंत्र को झकझोर डाला । जी हां ताजा मामला सोनिया के लाडले रोबोट का । दुर्भाग्य से निर्विय व्यक्ति सिर्फ सोनिया ही पूरे देश का दामाद बन बैठा है । जमीन खरीद फरोख्त के इस मामले में कुछ साबित हो न हो एक बात तो साफ हो गयी है कि वास्तव में कांग्रेस ने लोकलाज से पूरी तरह कन्नी काट ली है ।अगर ऐसा नहीं होता तो एक दोषी व्यक्ति की तरफदारी में हर कांग्रेसी को भौंकना नहीं पड़ता । ध्यान दीजियेगा यहां भौंकना शब्द बिल्कुल जायज क्योंकि इन तथाकथित नेताओं के हालिया बयान का घटना के सरोकारों से लेना देना नहीं दिखता । वे सिर्फ इस प्रथम परिवार के प्रति अपनी वफादारी को साबित करने के लिये भौंक रहे हैं । थोड़ी सी बात मुद्दे पर भी कर लें, डीएलएफ के अनुसार उसने रोबोट को ब्याज रहित 50 लाख रु का ऋण दिया और ये बात रोबोट ने भी स्वीकार की है । चलीये उनकी इस बात को मान भी लिया जाय तो ये बात गले से नहीं उतरती कि डीएलएफ जो खुद बैंकों से 12 से 15 प्रतिशत व्याज की दर पर हजारों करोड़ ऋण लेती है रोबोट को ब्याज मुक्त ऋण क्यों दिया ? सोचने वाली बात है करेाड़ों का ऋण क्या इस देश के आम आदमी के लिये भी सुलभ है ? अगर नहीं है तो रोबोट जी डीएलएफ के भी दामाद है ं? इस मामले से एक बात साफ हो चुकी है कि गांधी परिवार अब दोबारा आपतकाल के निरंकुश शासन पद्धति की ओर बढ़ चला है । इन सब बातों को जेहन में रखकर ही शायद ये मंदबुद्धि मैंगोमैन आफ द बनाना रिपब्लिक जैसे मुहावरे गढ़ पाता है । कहते भी हैं कि लाइफ में आराम हो तो आइडियाज आते हैं लेकिन मंदबुद्धि मुहावरे गढ़े ऐसा पहली बार देखा । अब सोचने की बारी मैंगोमैन की है कि क्या हम वाकई बनाना रिपब्लिक में जी रहे हैं ? अगर ऐसा है तो फिर क्या आवश्यकता है इस बनाना रिपब्लिक की ?

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