Saturday, October 20, 2012

वर्तमान परिप्रेक्ष्य और मीडिया

मीडिया अर्थात लोकतंत्र का चैथा स्तंभ । इस स्तंभ का कार्य लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभों व्यवस्थापिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका पर नजर बनाए रखना है । सच भी है कई बार बड़े मुद्दों पर मीडिया के प्रहार ने मामलों का रूप स्वरूप् को बदलकर रख दिया है । ऐसे में आम आदमी की मीडिया से आस लगाना स्वाभाविक लगता है, मगर अफसोस है बीते कुछ वर्षों से मीडिया के चरित्र में गिरावट का सिलसिला बदस्तूर जारी है । ऐसे में हर ओर से छला जाता है आम आदमी । अभी कुछ दिनों पूर्व एक नामचीन अखबार का संपादकीय पृष्ठ पढ़ रहा था । संपादक महोदय अपने विचारों की रौ में शायद इतने खो गये थे कि उन्होने अपने ही विचारों का कई बार खंडन कर डाला । ध्यान दीजियेगा इस अग्रलेख का शीर्षक था बेवजह की सफाई । इस लेख का मूल विषय हालिया प्रकाश में आया सलमान खुर्शिद का प्रकरण । लेख की प्रथम पंक्तियों में संपादक महोदय ने घटना पर प्रकाश डाला मगर अंतिम पंक्तियों तक पहुंचते पहुंचते वो स्वयं ही कह बैठे हांलांकि सलमान जी विश्वसनीयता तो संदेह से परे है । अब बताइये जो व्यक्ति स्वतः सलमान साहब को चरित्र प्रमाण पत्र देने को उद्यत हो उससे निष्पक्षता कि कैसी उम्मीद की जा सकती है ? दूसरा मामला देखीये सैफ अली खान और करीना की शादी । मीडिया के गलियारों में ये घटना लगातार सुर्खियां बटोरती रही । प्रश्न उठता है कि क्या वाकई ये इतने महत्व की घटना थी,जितनी की इसे तवज्जो दी गई । एक आदमी अधेड़ अवस्था में अपनी पहली पत्नी को छोड़कर दूसरी के साथ शादी कर रहा है । क्या करीना ने सैफ का बसा बसाया घर नहीं उजाड़ा? क्या उनका ये आचरण नैतिकता का हनन नहीं है ? अगर ये वाकया मानवता की सर्वोच्च घटना है तो फिर पशुता क्या है ? सोचिये क्या ये प्रश्न नहीं थे मीडियाकरों के पास उठाने के लिये ? अब बताइये कितनी निष्पक्ष और संवेदनशील है हमारी मीडिया ? कहां गये महिला अधिकारों का दम भरने वाली क्रांतिकारी महिलाएं ? दिलचस्प बात ये है कि ठीक इसी दिन किसी पारिवारिक विवाद को लेकर एक दंपत्ति के बीच हुई मारपीट की खबर को पत्रकारों ने नमक मिर्च लगाकर परोसा । इस खबर का शाीर्षक था ये पति नहीं शैतान है । अगर  वाकई लड़ भिड़ फिर साथ रहने वाला पति शैतान है तो बुढ़ापे में अपनी पत्नी को अकेला छोड़ने वाले सैफ अली खान को क्या कहा जाये ? मगर अफसोस पत्रकारों ने इस मुद्दे पर बात तो नहीं की अलबत्ता सैफीना जैसे शब्द गढ़कर पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों की धज्जीयां उड़ा डाली । घटना को एक अन्य नजरीये से भी देखना होगा सैफ और अमृता के बेटी सारा के नजरीये से । सोचिये कैसा लगा होगा उस बेटी को अपने अधेड़ बाप की बारात में शामिल होके । हमारे माननीय वरिष्ठ पत्रकार जरा अपने आप को उस लड़की के स्थान पर रख कर देखें तो शायद मामला उनकी भी समझ मंे आ जायेगा । इस घटना के कुछ दिनों पहले ही वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे जी का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होने खाप पंचायतों की जी भर के लानत मलानत की थी । अब सोचने वाली बात पंचायतों की थुक्का फजीहत तो आप सभी ने जी भर के कर ली लेकिन अमृता का घर उजाड़ने वाली बेबो को नसीहत देने का साहस कौन करेगा । सोचिये औरत की दुश्मन कौन ये पंचायतें या खुद औरत ? इस प्रसंग मंे अंतिम उदाहरण और रखना चाहूंगा हमारे माननीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जी ने हाल ही में एक नयी परिभाषा दी । उनके अनुसार बूढ़ी बीवियां त्याज्य हो जाती हैं । उनकी इस परिभाषा के जीवंत उदाहरण बने हमारे सैफू मियां,लेकिन उनके इस गहन शोध को विस्तार देने का कार्य किया तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों ने । सोचने कि बात है कभी पूनम पांडे तो कभी करीना तो कभी कोई और निरंतर अपने कुत्सित संदेश मीडिया के माध्यम से परोस रही हैं । ऐसे मंे मीडिया की भूमिका क्या है और क्या होनी चाहिये? कहीं मीडिया सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का उपकरण तो नहीं बन गया है ? सोचियेगा प्रश्न विचारणीय है ।           
                                            जय हिंद जय भारत
                                            सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

No comments:

Post a Comment