Tuesday, October 23, 2012

क्या सफलता जीवन का अंतिम सत्य है: सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की इस आपाधापी को देखकर अक्सर ही मन द्रवित हो उठता है । हर कोई परेशान है सफल होने के लिए और शामिल होने को इस मूषक परिक्रमा में । क्या सफलता जीवन का अंतिम सत्य है? क्या सफल होने के उपरांत जीवन में कुछ भी शेष नहीं रहता ? क्या होते हैं सफलता के पैमाने ? क्या सफलता के लिए समझौते आवश्यक हैं ? क्या व्यक्ति अपनी मानवता और स्वतंत्रता को विक्रय किये बिना सफल नहीं हो सकता? अगर अपने व्यक्तित्व को बेचकर हमने सफलता का वरण किया तो उस सफलता का उद्देश्य क्या रह गया ? अनेकों प्रश्न है जिनके जवाब आज भी खोजता हूं  ।
ये अलग बात है कि मैं कोई बड़ा दार्शनिक या विचारक नहीं हूं कि मेरे सारे तर्क आप सर्वमान्य करें और मैं ऐसी कोई आशा भी नहीं रखता । बहरहाल अपने विषय पर लौटते हैं बात करते हैं अपने पहले प्रश्न की । क्या सफलता जीवन का अंतिम लक्ष्य है । जी नहीं सिर्फ सफल होना जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है । वास्तव में हमारे वेदों और प्राचीन ग्रंथों में वर्णित तर्कों के आधार पर देखें तो जीवन के चार प्रमुख पुरूषार्थ हैं । धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष सफलता को समझने के लिए इन चारों पुरूषार्थों को सूक्ष्मता से समझना होगा । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है, सर्वे गुणाः कांचनाश्रयंति: अर्थात जगती के सारे गुण अर्थ में समाहित हैं । यहां अर्थ से आशय है धन का तो ध्यान दीजियेगा धन की प्रकृति भी दो प्रकार की होती है । पहला नारायण का और दूसरा कुबेर का । धन का आकांक्षी तो प्रायः हर व्यक्ति होता है लेकिन धन की प्रकृति की परख कुछ लोगों मंे ही होती है । उदाहरण के तौर पर एक चिकित्सक समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए जो धनोपार्जन करता है,ये धन ही नारायण का धन है । दूसरी ओर एक दूसरा चिकित्सक अन्य अवांछित माध्यमों से अपने कत्र्तव्यों की उपेक्षा कर धन संग्रह में लिप्त होता है । ऐसे व्यक्तियों का धन निश्चित तौर पर एक ईमानदार चिकित्सक से ज्यादा होगा लेकिन ये कुबेर का धन है । इस प्रकृति का धन आपको भीतर से अशांत कर देता है । इसका उदाहरण आपको विगत दिनों एनआरएचएम घोटालों के दौरान हुई छापेमारी में साफ तौर पर दिख जायेगा । अब सवाल सिर्फ इतना है कि अपनी शांति की कीमत पर प्राप्त हुई ये सफलता किस काम की ? जहां तक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सफलता के पैमानों का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर इसकी व्याख्या भी दिग्भ्रमित करने वाली है । आज समाज में ऐसे अनेकों व्यक्ति मिल जाएंगे जो आपकी सफलता का आकलन आपकी जेब से करते हैं । अर्थात सफलता का पैमाना धन को माना जाने लगा है,जो कि पूर्णतः गलत है । व्यक्ति कि सफलता का आकलन उसके व्यक्तित्व में समाहित गुणों  से होना चाहिये । आप देखीये अगर देश की सर्वोच्च सेवाओं में कार्यरत लोग आठवीं दसवीं पास नेताआंे के जूते उठाने का कार्य कर रहे हैं । ये उनकी सफलता है अथवा असफलता ? इसे अगर सफलता कहें तो असफल व्यक्तियों का जीवन इनसे तो भला होता है । सोचिये जो व्यक्ति इस तरह का शोषण बर्दाश्त करता हो तो क्या वो अपने मातहतों का शोषण नहीं करेगा । निश्चित तौर पर करेगा और अगर करेगा तो कहां गई हमारे दर्शन में समाहित समता की भावना ।
अब बात करते हैं अपने तीसरे प्रश्न पर क्या सफलता के उपरांत जीवन में कुछ भी शेष नहीं रहता ? गौर कीजियेगा उपरोक्त उदाहरणों पर क्या इस तरह के लोग सफल नहीं हैं । उनकी पहली सफलता तो उसी दिन मिल गई थी जिस दिन उन्होनें प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर अपनी जगह इस व्यवस्था में बना ली । इतना सब कुछ पाने के बाद भी व्यक्ति संतुष्ट नहीं होता और इस तरह की सफलता का निरंतर विस्तार होता है । उदाहरण के तौर पर एक पति एक पिता एक पुत्र और अंततः एक कुशल चिकित्सक,प्रशासक,शिक्षक अथवा पत्रकार के रूप में । ऐसे में देखा जाये तो इस प्रकृति की सफलता वास्तव में एक मृग मरीचिका से ज्यादा कुछ भी नहीं है । वस्तुतः इस 99 के चक्कर का अंत कभी भी नहीं होता । सफलता संतुष्टि में निहित होती है । संतुष्टि सिर्फ और सिर्फ अपने निर्धारित कार्यों को ईमानदारी से करने में ही है । ध्यान दीजियेगा ये सिर्फ साड्डे हक की बात नहीं है यहां साड्डे कत्र्तवयों का चिंतन भी आवश्यक है । ध्यान दीजियेगा हर व्यक्ति प्रारंभ में ईमानदार ही होता है लेकिन धीरे धीरे वो अपने सद्गुण खो बैठता है । इस समझौते और चारित्रिक मिलावट का अंतिम उद्देश्य क्या होता है,सिर्फ और सिर्फ धन संग्रह । अब बताइये ऐन केन प्रकारेण धन अर्जन करने वाले व्यक्ति को सफल माना जा सकता है । अगर ऐसे व्यक्ति सफल हैं तो समाज में विवेकानंद और सुकरात सरीखे लोगों का क्या स्थान होगा ? सोचिये सारे तर्क आपके सामने हैं कि आप किस प्रकृति की सफलता अर्जित करना चाहते हैं ।
जहां तक मेरे विचारों का प्रश्न है तो वास्तव में सफलता जीवन का सबसे बड़ा छलावा है, असफलता जहां आपको मनुष्य बनाये रखती है तो दूसरी ओर इस प्रकार की सतही सफलता आपको पशुता की ओर ढ़केलती है । व्यक्ति की सफलता का आकलन हर रोज उसके जीवन के अंतिम दिन तक होता है,क्योंकि वास्तव में हमारे दर्शन की सफलता एक विस्तृत प्रक्रिया है । अतः इसे एक वर्ष या दो वर्ष में नहीं पाया जा सकता । जीवन के कुछ वर्षों और परीक्षाओं से सिर्फ आपकी स्मृति और कौशल का परीक्षण किया जा सकता है । जबकि सफलता का विषय इससे इतर है । हमारी सफलता की अंतरिम मापक इकाई है मोक्ष की अवधारणा । इस अवधारणा में व्यक्ति की जटिलता नहीं वरन उसकी सरलता को सराहा जाता है  । अर्थात निष्काम भाव से कृत मानव जनित कार्यों के आधार पर ही व्यक्ति की सफलता का सच्चा आकलन किया जा सकता है ।

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